बुधवार, 6 जनवरी 2016

नारद जी का गुरु धारण करना
 
          निगुरा  हमको  न  मिले  पापी  मिलें हज़ार।।
          इक निगुरे के सीस पर लख पापियों का भार।।
     देवर्षि नारद जी के विषय में ऐसा प्रसिद्ध है कि अपने तप के प्रभाव से उन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि वे इस शरीर से ही वैकुण्ठ चले जाते थे। ऐसी शक्ति प्राप्त करके उनके ह्मदय में अहंकार प्रवेश कर गया था। एक बार देवर्षि नारद जी जब वैकुण्ठ गए तो भगवान विष्णु ने हमेशा की तरह उनका हार्दिक अभिनन्दन किया और उन्हें बैठने के लिये आसन दिया। भगवान विष्णु से कुछ देर वार्तालाप करने के उपरान्त जब नारद जी विदा हुए तो भगवान ने अपने अऩुचरों को बुलाया और जहाँ नारद जी बैठे थे, उस स्थान की ओर संकेत करते हुए कहा-नारद जी के बैठने से यह स्थान अपिवत्र हो गया है अतएव इस स्थान को अच्छी तरह धोकर पवित्र कर दो। अनुचर आज्ञा पालन में लग गए। इधर नारद जी को कोई बात याद आ गई। वे अभी दूर नहीं गए थे, अतः पुनः वापिस लौट आए, परन्तु अनुचरों को वह स्थान जहाँ वे बैठे थे, साफ करते देखकर विस्मय से खड़े रह गए। कुछ क्षण वे मौन खड़े रहे, फिर भगवान के चरणों में निवेदन किया-प्रभो! एक तरफ तो मेरा इतना सम्मान और दूसरी तरफ मेरा इतना अनादर कि जिस जगह पर मैं बैठा था उसे साफ कराया जा रहा है।
     भगवान ने कहा-नारद जी! यह ठीक है कि आप ज्ञानी, ध्यानी और वेदों-शास्त्रों के महान ज्ञाता हैं। यह भी ठीक है कि आप महान तपस्वी हैं और तपोबल से जब चाहें वैकुण्ठ आदि देवलोकों में आ-जा सकते हैं। आपको इसके लिए कोई  रोक-टोक नहीं है। परन्तु आपने  चूंकि अभी गुरू की शरण ग्रहण नहीं की, इसलिए हम आपको पवित्र नहीं मानते। यही कारण है कि जब आप यहाँ आकर बैठते हैं तो आपके जाने के बाद हम वह स्थान अपवित्र समझकर स्वच्छ एवं पवित्र करवाते हैं।
     नारदजी ने कहा-भगवन्! यह सत्य है कि मैने किसी को गुरु धारण नहीं किया, परन्तु तप साधना तो की है और उस तप-साधना द्वारा मैं आपको प्राप्त करने मे भी सफल हुआ हूँ। आपको प्राप्त करके क्या मैं पवित्र नहीं हो गया?
     भगवान ने कहा-नारद जी! यह ठीक है, कि तप साधना द्वारा वैकुण्ठ आने के आप अधिकारी हो गए हैं, परन्तु आपका यह कहना सरासर गलत है कि आप मुझे प्राप्त कर चुके हैं। आपकी साधना मनमति की साधना है, इसीलिए आपके अन्दर अहंता एवं अहंकार ने आसन जमा रखा है। इस अहंता-अहंकार के परदे ने अभी भी आपको मुझसे अलग कर रखा है। अहंता अहंकार के इस परदे को दूर करने के लिए ही गुरु की शरण में जाना आवश्यक होता है। नारद जी ने कहा-यदि गुरु की शरण में जाना इतना ही आवश्यक है तो फिर मैं आपको ही गुरु धारण कर लेता हूँ।
     भगवान ने कहा-मैं किसी प्रकार भी आपका गुरु नहीं हो सकता, क्योंकि मैं सूक्ष्म एवं निराकार हूँ, और आप स्थूल एवं साकार हैं। मनुष्य का गुरु जब भी होगा साकार ही होगा। साकार रूप गुरु से ही मनुष्य को परमार्थ का लाभ प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वह सेवक को अपने सान्निध्य में रखकर उसे भक्ति के भेद से परिचित करा सकता है। सूक्ष्म एवं निराकार भला मनुष्य को यह भेद कैसे समझा सकता है? इसीलिए सभी ऋषियों मुनियों ने साकार रुप गुरु की शरण ग्रहण करने और गुरु की भक्ति करने पर बल दिया है। इसके बिना न कोई मुझे प्राप्त कर सकता है और न ही किसी का परमार्थ सिद्ध हो सकता है। नारद जी ने निवेदन किया कि मैं किसको अपना गुरु बनाऊँ।
     भगवान ने कहा-आप कल प्रातःकाल गंगा जी के किनारे चले जाएं और जो मनुष्य सबसे पहले मिले, उसे ही अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा ले लें। इसीमें आपकी भलाई है। भगवान की आज्ञा लेकर नारद जी विदा हुए और मत्र्यलोक में आए। उनके मस्तिष्क में सारी रात भगवान विष्णु की बातें ही गूँजती रहीं। प्रातः होते ही वे गंगा जी की ओर चल पड़े। गंगा जी के निकट पहुँच कर क्या देखते हैं कि एक धीवर (मछुआरा) कन्धे पर जाल रखे सामने से आ रहा है। उसे देखते ही नारद जी ने अपने माथे पर हाथ मारा और मुँह में बड़बड़ाते हुए कहा-यह कैसा अपशकुन हुआ! भगवान ने तो कहा था कि सबसे पहले जो मनुष्य मिले, उसे ही गुरु धारण कर लेना, परन्तु सबसे पहले तो यह धीवर ही मिला, तो क्या इसे ही गुरु बनाना पड़ेगा? यह अपढ़, गंवार धीवर मुझ जैसे ज्ञानी, ध्यानी का गुरु कैसे हो सकता है? यह भला मुझे क्या ज्ञान देगा? यह सोचकर वे उलटे पाँव लौट चले। जैसे ही वे वापिस मुड़े कि पीछे से आवाज़ आई -यह नारद भी कैसा नासमझ और अज्ञानी है, क्योंकि इसे भगवान की बात पर भी विश्वास नहीं। भगवान के समझाने पर आया था गुरु धारण करने, परन्तु इसमें तो अहंता-अहंकार कूट-कूटकर भरा हुआ है। कानों में ये शब्द पड़ते ही नारद जी ठिठक गए। कुछ पल इन शब्दों पर विचार करते रहे फिर लौटकर निवेदन किया-गुरुदेव। मुझे क्षमा करें और अपनी शरण में लीजिए। धीवर ने उसे गुरु-दीक्षा देकर विदा  किया। नारद जी सीधे वैकुण्ठ पहुँचे। उन्हें देखकर भगवान विष्णु बोले। नारद जी! गुरु मिले? नारद जी ने उत्तर दिया-प्रभो! मिले तो सही पर--। भगवान ने उनकी बातबीच में ही काटते हुए कहा-""पर'' शब्द कहने का अर्थ है कि आपने मेरे कहने से गुरु धारण किया, परन्तु आपकी अपने गुरु में श्रद्धा एवं निष्ठा नहीं है। श्रद्धा रहित मनुष्य के लिए परमार्थ की दृष्टि से आपका सब किया-कराया व्यर्थ हो गया। अब तो आपको चौरासी अवश्य भुगतनी पड़ेगी। नारद जी से थोड़ी सी भूल हो गई जो गुरुदेव जी के सन्दर्भ में उन्होने "पर' शब्द लगा दिया-इस पर भगवान बोले कि ऐ नारद! तुमने गुरु के प्रसंग में "पर' शब्द का प्रयोग गिया है। इसलिये तुम्हें चौरासी भुगतनी होगी। नारद् जी ने प्रार्थना की भगवन! इस दुःख से छूटने का उपाय क्या होगा? श्री भगवान ने कथन किया कि ""चौरासी देना तो मेरा काम है और उससे छुटकारा दिलाना केवल सद्गुरु का काम है।''
     कहु नानक प्रभ इहै जनाई। बिन गुरू मुकति न पाइये भाई।।
इसलिये तुम श्रद्धा और नम्रतापूर्वक सद्गुरुदेव जी की शरण में जाओ और वे जैसे कहें उनके वचन का अक्षरशः पालन करो। तब चौरासी की यातना से निस्तार हो सकता है अन्य कोई उपाय नहीं है। नारद जी बुद्धिमान थे। मन की तुला पर लगे तोलने-एक तरफ रखा चौरासी भोगने का दुःख और दूसरी तरफ रखा सद्गुरुदेव जी की आज्ञा में रहने के नियम को। और समझ लिया कि यह तो अपार लाभ का व्यापार है। मैं श्री गुरुदेव जी की आज्ञा के परिपालन से काल की जन्म जन्मान्तरों तक की पाबन्दी के दुःखों से छूट जाऊँगा। यह विचार कर अत्यन्त श्रद्धा भाव से श्री गुरुदेव जी के समीप गये। उनके चरण कमलों में पहुँच कर उन्हें साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और श्री गुरुदेव जी का हुक्मनामा पाकर उठे और विनय की कि मैं भूलनहार हूँ, आप क्षमाशील हैं, मेरी भूलचूक के लिये क्षमा करें। मुझसे जो अपराध हुआ है उसके बदले भगवान ने मुझे चौरासी भोगने का दण्ड दिया है। आप ही उससे छुड़ाने में समर्थ हो। आप ही युक्ति से मुक्ति दे सकते हो।
विशेषः- जब नारद जी श्री गुरुदेव जी के निकट जा रहे थे तो उनके गुरुमहाराज जो धीवर थे उन्हें मार्ग में मिल गये और नारद जी ने उसी जगह ही जहां धूलि बिछी थी दण्डवत् प्रणाम कर दिया। दैववश वहां एक फैशनेबल सज्जन खड़े थे उन्होने नारद जी से कहा कि भूमि पर धूलि में लेट जाना कौन सी सयानप है? नारद जी ने उससे कहा कि तुम ही बताओ कि सतगुरुदेव भगवन जी के पवित्र चरण कमलों में दण्डवत् करने से काल के आगे बार बार जन्मों तक नाक रगड़ने से जीवन बच जाता है। थोड़ी सी नम्रता दिखलाने से महान कष्ट कट जाये तो कौन सी बुरी बात है? तब वह पुरूष क्षमा मांगने लगा और  कहने लगा कि भक्तों और सन्तों से अधिक बुद्धिमान तीनों लोकों के अन्दर और कोई नहीं क्योंकि वे ही लाभ-हानि को पूरी तरह पहचानते हैं।
     श्री गुरुदेव जी ने नारद जी की श्रद्धा व नम्रता को देखकर बड़ी प्रसन्नता पूर्वक कहा कि नारद! गुरुदेव ने हँसते हुए कहा-तुम फिर विष्णुलोक जाओ और भगवान से कहो कि जो चौरासी मैने भोगनी है, उसका नक्शा बना कर दिखला दो जब वे नक्शा तैयार कर दें तो तुम उस पर लोट-पोट हो जाना। जब भगवान ऐसा करने का कारण पूछें तो उत्तर देना चौरासी भोग रहा हूँ, क्योंकि वह चौरासी भी आपकी बनाई हुई है और यह भी आपने ही बनाई है। भगवान की कृपा से तुम्हारी चौरासी एक पल में ही कट जायेगी। यह हमारा आशीर्वाद है। श्री गुरुदेव का आशीर्वाद पाकर नारद जी श्री भगवान जी के पास पहुँचे और आज्ञानुसार श्री भगवान से चौरासी का नक्शा बना कर दिखाने की विनय की जब वह मानचित्र पूर्ण हुआ तो नारद जी उसमें लेटनी लगाने लगे। श्री भगवान जी ने पूछा-नारद! तुम यह क्या कर रहे हो? धूलि में क्यों लेट रहे हो? नारद जी ने उत्तर दिया कि मैं गुरूदेव जी की आज्ञा मानकर थोड़ी देर मिट्टी में लेटने से यदि चौरासी कट जाये तो यह बड़े लाभ का सौदा है। श्री गुरुदेव जी ने आशीर्वाद देकर कहा है कि ऐसा करने से श्री भगवान तुम्हारी चौरासी क्षमा कर देंगे-अतएव मैं चौरासी भुगत रहा हूँ। श्री भगवान ने कथन किया कि श्री सद्गुरुदेव जी के वरदान को तो हम भी नहीं मिटा सकते। ये अधिकार तो उनको हैं जो शरण में आए हुए किसी के भी जन्म जन्मान्तर के दुःख एक पल में काट देते हैं।
     गुरु की टेक रहहु दिन रात। जाकी कोई न मेटे दात।
इसलिये हे नारद जी तुम बड़े भाग्यवान हो जो गुरु भक्ति की सरल राह को अपना कर अऩेक जीवों के लिये मार्ग बना रहे हो इस पथ पर जो चलेगा उसको इस लोक में भी सुख मिलेगा। और उसका परलोक भी सँवर जायेगा।
     इह लोक सुखी परलोक सुहेले। नानक हर प्रभ आपहि मेले।
तब भगवान बोले-नारद जी! आपने देखा कि गुरु ने कितनी सुगमता से आपकी चौरासी भोगने से बचा लिया। अब की बार नारद जी गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए तो उनके दिल की अवस्था बदल चुकी थी। अब उनके दिल में गुरुदेव के प्रति पूर्ण श्रद्धा थी। उन्होने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक गुरुदेव के चरणों में दण्डवत्-प्रणाम किया। गुरुदेव ने उसके ह्मदय की अवस्था को जानकर कहा-अब तुम वास्तव में ही गुरुमुख बन गए हो और तुम्हारे दिल में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा उत्पन्न हो गई है। अब बैठ जाओ और आँखें बन्द करके अपने अन्दर गुरु का ध्यान करो।
    नारद जी ने आँखें बन्द करके गुरु का ध्यान किया तो अहंता-अहंकार के सब आवरण छिन्न-भिन्न हो गए और घट में निर्मल प्रकाश फैल गया। उस प्रकाश में नारद जी को गुरुदेव के ज्योतिर्मय स्वरुप के दर्शन हुए। गुरुदेव के इस अलौकिक स्वरूप के दर्शन कर वे आत्म विभोर हो गये। तभी अपने अन्दर उन्हें गुरुदेव कीआवाज़ सुनाई दी-नारद! तुम गुरु को अपढ़ समझ रहे थे, परन्तु स्मरण रखो कि गुरु परमपुरुष अथवा परमतत्त्व है। यही गुरु का वास्तविक स्वरुप है, इसलिये गुरु के अस्तित्व में तनिक भी सन्देह करना अथवा अश्रद्धा रखना कदापि उचित नहीं। अब तुमने गुरु के वास्तविक स्वरुप को जान लिया, इसलिये अब तुम निगुरे नहीं रहे, अपितु गुरुमुख बन गए हो। अब तुम जहाँ बैठोगे, वह स्थान पवित्र समझा जाएगा। नारद जी ने आँखें खोलीं। गुरुदेव को सम्मुख देखकर उन्होंने दण्डवत-वन्दना की, तत्पश्चात हाथ जोड़कर निवेदन किया गुरुदेव! मुझपर अपनी कृपा दृष्टि सदा बनाये रखें। तब गुरुदेव ने नारद जी को भक्ति के गहन रहस्य विस्तार से समझाये। भक्ति का वास्तविक भेद प्राप्त करके उनका जीवन धन्य हो गया। तत्पश्चात उन्होंने ""भक्ति सूत्र'' की रचना की जिसमें भक्ति-तत्त्व पर बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला गया है। अभिप्राय यह कि भक्ति-मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु पुरुष के लिए सद्गुरु की शरण ग्रहण करना परमावश्यक है। श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ सद्गुरु के वचनों पर आचरण करके ही मनुष्य इस मार्ग पर सफलता प्राप्त कर सकता और अपना जीवन धन्य बना सकता है।

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