रविवार, 25 सितंबर 2016

प्रारब्ध की गठरी सबके सिर पर है


          एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।
          इकु संसारी इकु भण्डारी इकु लाए दीवाणु।।
कुल मालिक ने संसार की रचना करते समय तीन शक्तियां उत्पन्न की और उन तीनों को पृथक-पृथक कर्तव्य सौंप दिये। ये तीन शक्तियां जो जगत का प्रबन्ध चला रही हैं,कौन सी हैं? और कौन से कर्तव्य उनको सौंपे गये हैं?एक कार्य है संसार के प्राणियों की उत्पत्ति करना, यह कार्य प्रकृति की ओर से ब्राहृा जी को सौंपा गया। दूसरा कार्य है संसार का पालन-पोषण करना,इस कार्य के लिये विष्णुमहाराज नियुक्त किये गये कि वे ब्राहृा जी द्वारा उत्पन्न जीवों को भोजन उपलब्ध करायें।अब तीसरा कार्य रह जाता है,प्राणियों के संहार करने का अर्थात संसार के जीवों का समय आने पर नाश करना,और यह कार्य है शिवजी महाराजका। अन्य शब्दों में यूँ समझ लीजिये कि ब्राहृा जी घड़े घड़ते हैं,विष्णु महाराज भरते जाते हैं और शिवजी समय आने पर अथवा पुराने होने
पर घड़े तोड़ते जाते हैं।ये तीनों शक्तियाँ अपने अपने कार्य में संलग्न हैं और यह क्रम निरन्तर चल रहा है। उत्पन्न करने का, पालन पोषण करने का अथवा संहार करने का कार्य मनुष्य के ज़िम्मे नहीं,अपितु इन शक्तियों के ज़िम्मे है। मनुष्य यदि इन तीनों देवताओं के कर्तव्यों का उतरदायित्व अपने ऊपर ले ले और कहे कि मैं ही उत्पन्न करने वाला और पालन करने वाला हूँ तो यह उसका अज्ञानता है इस अज्ञानता में पड़ कर मनुष्य व्यर्थ ही अपने आपको दुःखी बना लेता है। वह कहता है कि यदि मैं धनोपार्जन न करूँ तो मेरा परिवार भूखा मर जायेगा।इसका अर्थ कोई यह न समझ ले कि महापुरुष धनोपार्जन करने से अथवा परिवार के पालन-पोषण से रोकते हैं। ऐसा कदापि नहीं है। अपितु सन्तों का तो यह कथन है कि निस्सन्देह आप संसार में रहकर कार्य-व्यवहार करो,परिवार का पालन-पोषण करो धनोपार्जन करो,क्योंकि पुरुषार्थ करना मनुष्य का कर्तव्य है,परन्तु मन में यह विचारधारा होनी चाहिये कि मै कार्य-व्यवहार अवश्य कर रहा हूं,परन्तु पालन-पोषण का उत्तरदायित्व तो प्रकृति केहाथ में है।यदि मैं कल को इस संसार से  चला जाऊँ तब भी परिवार का पालन पोषण तो होता ही रहेगा। सतपुरुषों का कथन  हैः-
          गमें रोज़ी मखुर बरहम मज़न औराके-दफ्तर रा।।
          के पेश अज़ तिफल एज़्द पुर कुनद पिस्ताने-मादिर रा।।
अर्थः-ऐ मनुष्य!अपनीआजीविका की चिन्ता मत कर,न ही इसके लिये अपने भाग्य के कार्यालय की जांच-पड़ताल कर क्योंकि प्राकृतिक नियम है कि बच्चे के जन्म लेने से पूर्व ही मालिक माता के स्तनों को बच्चे के लिये दूध से भर देता है।
     इतिहास बतलाता है कि श्री कबीर साहिब जी के घर साधु-सन्त आया जाया करते थे।श्री कबीर साहिब जी कपड़ा बुनने का कार्य करते थे। इस धन्धे से जो कुछ प्राप्त होता,उससे परिवार का पालन-पोषण भी करते थेऔर साधु-सेवा भी करते थे। साधु-सेवा में अधिक रुचि होने के कारण श्री कबीर साहिब जी को कपड़ा बुनने के लिये बहुत कम समय मिलता था, इसलिये उनकी माता को बहुत चिंता होती थी। एक बार श्री कबीर साहिब जी की माता रह न सकी और रोने लगी। इसका वर्णन गुरुबाणी में इस प्रकार है-
मुसि मुसि रोवै कबीर की माई। ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई।।
तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर। हरि का नामु लिखि लिओ सरीर।।
माता के इसप्रकार के वचन सुनकर श्रीकबीर साहिब जी ने उत्तर दिया।
ओछी मति मेरी जाति जुलाहा। हरि का नामु लहिओ मैं लाहा।।
कहत कबीर सुनहु मेरी माई। हमरा इनका दाता एकु रघुराई।।
     माता का यह कथन था कि साधु-सन्तों की सेवा में लगकर तुमने ताना बुनना भी त्याग दिया है। तुम तो हर समय मालिक का नाम जपते रहते हो, फिर भला परिवार का पालन-पोषण कौन करेगा? उत्तर में श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि हे माता। मेरी बुद्धि तो ओछी है क्योंकि मैं जाति का जुलाहा हूँ,किन्तु मैने मालिक के नाम का जो लाभ कमाया है, उसे मैं ही जानता हूँ, अन्य कोई नहीं जान सकता। हे माता!मेरा और सबका दाता तथा पालन करने वाला एक भगवान ही है, इसलिये तू क्यों व्यर्थ चिंता करती है।
     कहते हैं एक बार अकाल पड़ गया। उस समय श्री कबीर साहिब जी की लड़की कमाली ने सोचा कि कुछ दिन के लिये मैं अपने पिता के घर चली जाऊँ। यह विचार कर अपने बच्चों को साथ लेकर श्री कबीर साहिब जी के घर की ओर चल पड़ी। घर में प्रवेश करने से पूर्व द्वार पर उसे श्री कबीर साहिब मिल गये। कमाली को देख कर वे हँसने लगे।कमाली ने सोचा कि पिता जी शायद इसलिये हँस रहे हैं कि मैं उन पर बोझ बन कर आ गई हूं। श्री कबीर साहिब जी पूर्ण महापुरुष थे, अतएव कमाली के मनोभाव को जान कर उन्होने ये वचन फरमाये-बेटी! मैं इसलिये नहीं हँसा हूँ कि तू मुझ पर बोझ बन कर आई है, अपितु मैं तो मालिक की रचना को देखकर प्रसन्न हो रहा हूँ कि तुम जितने जीव मेरे घर आये हो, सब के सिर पर प्रारब्ध की गठड़ियाँ बँधी हुई हैं। यहाँ रहकर भी तुम सबने अपनी ही प्रारब्ध लेनी है।

गुरुवार, 22 सितंबर 2016

विदूषक को छड़ी दी


   सारा जीवन इस नश्वर शरीर के बनाव-ऋंगार,पालन पोषण में गुज़ार देना कहाँ की बुद्धिमानी है। संत महापुरुष विभिन्न उदाहरण देकर अपनी बात को सपष्ट करते हैं।
     एक बार किसी राजा ने अपने मन बहलाव के लिये किसी विदुषक (जोकर) को नियुक्त किया। राजा ने मज़ाक करते हुये एक छड़ी उस विदुषक को दे दी और उससे कहा कि इस छड़ी को उस व्यक्ति को देना जो तुमसे भी अधिक मूर्ख हो।चार पाँच दिन के उपरांत विदुषक के हाथ में छड़ी को देखकर राजा ने पूछा कि उसने इस छड़ी को किसी व्यक्ति को क्यों नहीं दिया।तब विदुषक ने उत्तर दिया कि उसे कोई मूर्ख ही नहीं मिला। इस प्रकार कुछ दिनों के समय के अन्तराल पर राजा ने विदुषक से तीन चार बार यही प्रश्न पूछा।विदुषक का भी यही उत्तर था कि उसे कोई मूर्ख नहीं मिला। इस प्रकार छः माह बीत गये।
    राजा बहुत बीमार हो गया।अनेक उपाय करने के उपरान्त भी राजा स्वस्थ न हुआ। तब राजा को ऐसा अनुभव होने लगा कि उसका अंत समय निकट आ गया है।मृत्यु का विचार मन में आने से राजा का दुःख औरभी बढ़ गया।तभी विदूषक राजा का हाल पूछने के लिये उसके पास आया। राजा ने उसको कहा कि अब तो चलने की तैयारी है। विदूषक राजा की यह बात सुनकर बहुत हैरान हुआ। विदूषक ने पूछा कि कहाँ जाना है? राजा ने उत्तर दिया वह उस स्थान के बारे में अनभिज्ञ है जहाँ उसे जाना है। फिर विदुषक ने कहा कि पहले तो यात्रा पर जाने से पूर्व सारा सामान बाँध लिया जाता था अब साथ में क्या ले जाने का इरादा
है? क्या साथ ले जाने वाला सामान जैसे धन, कपड़े,वस्तुएँ आदि एकत्र कर बाँध ली गई हैं? तब राजा ने कहा कि जहाँ जाना है,वहाँ कुछ भी साथ नहीं जायेगा।तब विदुषक ने फिर प्रश्न किया कि कब जाना है और कैसे जाना है। परन्तु राजा का तो बार बार यही उत्तर था कि उसे कुछ भी नहीं मालूम कि कब जाना हैऔर कैसे जाना है।फिर विदुषक ने राजा से कहा कि किसी नौकर अथवा सम्बन्धी को साथ ले जायें जो यात्रा में आपकी सेवा कर सके।राजा ने उत्तर दिया कि जहाँ उसे जाना वहाँ कोई भी साथ नहीं जा सकता। विदूषक ने राजा की सब बातें सुनने पर वह छड़ी राजा के हाथ में थमा दी।
     उस छड़ी को देखकर राजा को आश्चर्य होने साथ साथ क्रोध भी आता है और विदूषक से पूछा यह छड़ी तो मैने किसी मूर्ख को देने के लिये दी थी।विदुषक अत्यन्त बुद्धिमान थाऔर सन्तों की संगत उसे प्राप्त थी,अतः उसने राजा से कहा-कि उससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा जिसने अपनी यात्रा का पहले से ही प्रबन्ध नहीं किया हुआ है अर्थात मृत्यु के समय जब धन-सम्पत्ति,नौकर,सम्बन्धीऔर यहाँ तक कि अपना शरीर भी साथ नहीं जायेगा तोअपना सम्पूर्ण जीवन शरीर व शारीरिक सम्बन्धों के लिये व्यर्थ गँवा देना कहां की बुद्धिमानी है? ऐसा सोच कर ही मैने आपको छड़ी दी है।

शनिवार, 17 सितंबर 2016

करूणा करो जिससे झगड़ा है


बुद्ध एक गंव में रूके हैं और एक आदमी को उन्होने ध्यान की दीक्षा दी है। उससे कहा कि करूणा का पहला सूत्र कि ध्यान के लिए बैठे तो समस्त जगत के प्रति मेरे मन में करूणा का भाव भर जाए, इससे शुरु करना।उसने कहा और सब तो ठीक है, सिर्फ मेरे पड़ोसी को छुड़वा दें, उसके प्रति करूणा करना बहुत मुश्किल है।बहुत दुष्ट हैऔर बहुत सता रखा है उसने और मुकदमा भी चल रहा है।और झगड़ा-झांसा भी हैऔर गुंडे भी उसने इकट्ठे लगा रखे हैं, मुझे भी लगाने पड़े हैं। सारे जगत के प्रति करूणा में मुझे ज़रा भी दिक्कत नहीं है,यह पड़ोसी भर को छोड़ दें, क्या इतने से कोई दिक्कत आएगी ध्यान में? सिर्फ एक पड़ोसी।
     बुद्ध ने कहा, सारे जगत को छोड़,सिर्फ एक पड़ोसी पर ही करूणा करना काफी होगा। क्योंकि दोष जो भरा है वह उस पड़ोसी के लिए है, सारे जगत से कोई लेना-देना नहीं है।करूणा,वह दोष का परिहार करेगी जो हमारे चित्त में इकट्ठे होते हैं।दूसरा बुद्ध ने कहा, मैत्री। समस्त जगत के प्रति मैत्री का भाव। समस्त जगत में आदमी ही नहीं,सब कुछ।तीसरा बुद्ध ने कहा है,मुदिता।प्रफुल्लता का भाव,प्रसन्नता का भाव।ध्यान रखना कि जब हम प्रफुल्लित होते हैं तब जगत के प्रति हमारे भीतर से कोई भी दोष नहीं बहता।और जब हम दुःखी होते हैं,हम सारे जगत को दुःखी करने का आयोजन सोचने लगते हैं। दुःखी आदमी सारे जगत को दुःखी देखना चहता है। उससे ही उसको सुख मिलता है। और कोई सुख नहीं है उनका। जब तक आप उनसे ज्यादा दुःखी न हों, तब तक वह सुखी नहीं हो पाते। दुःखी आदमी को जब चारों तरफ दुःख दिखायी पड़ता है, तब वह बड़ी निश्चिन्तता से बैठ जाता है।बुद्ध ने कहा है तीसरा,मुदिता। प्रफुल्लता से बैठना। ह्मदय को प्रफुल्लता से भरना। और चौथा बुद्ध ने कहा है, उपेक्षा। कुछ भी हो जाए-अच्छा हो कि बुरा,फल मिले कि न मिले, ध्यान लगे कि न लगे, ईश्वर से मिलन हो कि न हो,असफलता आए, सफलता आए,श्रेय,अश्रेय कुछ भी हो, उपेक्षा रखना। दोनों में समतुल रहना। दोनों में चुनाव मत करना। ये चार को बुद्ध ने कहा है। इनसे ह्मदय के दोष अलग हो जाएंगे। ध्यान इनके बाद सुगम बात होगी, सहज बात होगी।

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

चोर मुसे घर आई


     मन रे जागत रहिये भाई।
     गाफिल होई बसत मति खोवे, चोर मुसै घर जाई।
असावधान होकर जीओगे, गाफिल होकर जीओगे, बेहोश जीओगे, नशे-नशे में जीओगे तो वह जो भीतर बसता है,वह जो भीतर का मालिक है, उसका तुम्हें कभी भी पता न चलेगा। वह जो भीतर बसा है तुम्हारे घर में। और जब भीतर का पुरुष, भीतर का दिया अन्धेरे से ढंक जाए,गहन रात में खो जाए,भीतर की प्रतिभा सो जाए जागी न हो,तो फिर चोर घर में घुसना शुरु हो जाता है।बुद्ध ने कहा है,घर में कोई न भी होऔर सिर्फ दिया जलता हो तो भी चोर डरते हैं, घर में कोई न भी हो लेकिन दिया जलता हो,तो भी चोर दूर दूर चलते हैं। क्योंकि दिये के जलने से खबर, शायद घर में कोई हो।जिस दिन भीतर का दिया जलता है,उस दिन चोर प्रवेश नहीं करते। चोर कौन है? जो भी तुम्हें प्रतिक्रिया में ले जाते हैं, वे सभी चोर हैं। किसी ने गाली दी और तुम प्रभावित हो गये। चोर भीतर घुस गया। अब यह चोर तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा। यह बड़े मजे की बात है,गाली देने वाला तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाता था, न पहुँचा सकता था।उसकी सामथ्र्य न थी,चोर बाहर था,क्या करेगा?लेकिन तुमने चोर को भीतर बुला लिया। तुम क्रोधित हो गए।अब नुकसान होगा। महावीर ने बार-बार कहा है, तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र भी नहीं है और तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु भी नहीं है।अगर तुम चोरों को भीतर घुसने दोगे, तो तुम्हीं शत्रु हो। जिसने गाली दी,वह शत्रु नहीं है। क्योंकि इसकी गाली तो बाहर पड़ी रह जाती,अगर तुम अक्रोध में रहे आते।अप्रभावित अगर तुम गुज़र जाते,तो इनकी गाली भीतर प्रवेशकैसे करती?किसी ने सम्मान किया,सम्मान में कोई खतरा नहीं है।लेकिन तुम अकड़ गए,अहंकार आ गया। चोर भीतर घुस गया।चोर तुम्हारे कारण भीतर घुसता है, दूसरे के कारण नहीं। एक सुन्दर स्त्री गुजरी। उसे पता भी न होगा, कि आप वहां मन्दिर के सामने खड़े क्या कर रहे थे?या मन्दिर के भीतर आप तो पूजा कर रहे थे और एक स्त्री भी आकर झुकी। स्त्री को कुछ पता भी न हो, स्त्री का कुछ हाथ भी न हो, चोर आपके भीतर घुस गया।किसी ने गाली दी,तब तो हमें यह भी लगता है कि कम से कम इसने गाली तो दी।कुछ तो इसका हाथ है।लेकिन एक सुन्दर स्त्री पास से गुज़री, उसने आपकी तरफ देखा भी नहीं, लेकिन चोर  भीतर घुस गया। आपने चोर खुद ही बुला लिया। काम जग गया। वासना जग गई। आप गाफिल हो गए। मुश्किल में पड़ गए। बेचैनी हो गई। एक उत्तप्तता ने घेर लिया। खो दिया केन्द्र अपना। सपना जग गया नींद आ गई।
     गाफिल होई बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई।
जैसे ही तुम गाफिल हुए, वैसे ही चोर भीतर घुस जाता है। तो तुम्हारी गफलत ही असली कारण है। बुद्ध एक गांव के पास से गुज़रे। लोगों ने गालियाँ दी,अपमान किया। बुद्ध ने कहा,क्या मैं जाऊँ,अगर बात पूरी हो गई हो?क्योंकि दूसरे गांव मुझे जल्दी पहुँचना है। लोगो ने कहा,यह कोई बात न थी। हमने भद्दे से भद्दे शब्दों का प्रयोग किया है,क्या तुम बहरे हो गए? क्या तुमने सुना नहीं? बुद्ध ने कहा कि सुन रहा हूँ।पूरे गौर से सुन रहा हूँ।इस तरह सुन रहा हूँ,जैसा पहले मैने कभी सुना ही न था, लेकिन तुम ज़रा देर करकेआए।दस साल पहले आना था।अब मैं जाग गया हूँ। अब चोरों को भीतर घुसने का मौका न रहा।तुम गाली देते हो।मैं देखता हूँ। गाली मेरे तक आती है और लौट जाती है। ग्राहक मौजूद नहीं है । तुम दुकानदार हो। तुम्हें जो बेचना है, तुम ले आए हो। लेकिन ग्राहक मौजूद नहीं है। ग्राहक दस साल हुए मर गया।पीछे के गांव में कुछ लोग मिठाइयां लाए थे।मेरा पेट भरा था,तो मैने उससे कहा,वापिस ले जाओ। मैं तुमसे पूछता हूं, वे क्या करेगें?किसी ने भीड़ में से कहा, जाकर गांव में बांंट देंगे,खा लेंगे। बुद्ध ने कहा,तुम क्या करोगे?तुम गालियों के थाल सजाकर लाए। मेरा पेट भरा है। दस साल से भर गया। तुम ज़रा देर करके आए।अब तुम क्या करोगे? इन गालियों को वापिस ले जाओगे, बांटोगे,या खुद खाओगे?मैं नहीं लेता।तुम गलत आदमी के पासआ गये।
और जब तक मैं न लूं, तुम कैसे गाली दे सकते हो? देना तुम्हारे हाथ में है, लेने की मालकियत तो सदा मेरे हाथ में है। देने से ही तो काम पूरा नहीं हो जाता।यह अधूरी प्रक्रिया है। और मजा यह है, कि अगर तुम लेने को तत्पर हो, तो बिना दिए भी मिल जाता है। कोई आदमी हँस रहा है। वह किसी और कारण से हँस रहा है, तुमको चोट लग गई। तुम समझे, तुम्हारे कारण हँस रहा है। तुम्हारी अकड़ ऐसी है कि तुम सोचते हो, दुनियाँ में जो भी हो रहा है, तुम्हारे कारण हो रहा है। लोग हँस रहे है। तो तुम्हारी वजह से हँस रहे है। लोग धीरे-धीरे घुस घुस करके बातें कर  रहे हैं, तो तुम्हारी निन्दा कर रहे है अन्यथा घुस घुस करके क्यों बातें करेंगे। जैसे तुम केन्द्र हो सारे संसार के, कि जो भी यहाँ हो रहा है, तुम्हारी वजह से हो रहा है। फूल खिल रहे है, तो तुम्हारे लिए। चादँ-तारे उग रहे हैं तो तुम्हारे लिए। गालियाँ आ रही हैं तो तुम्हारे लिए। लोग हँस रहे है, मज़ाक कर रहे हैं तो तुम्हारे लिए। तुमने सारी दुनियाँ को अपने सिर पर उठा रखा है। जो तुम्हें नहीं दिया गया है, वह भी तुम ले लेते हो। जो होशपूर्वक,व्यक्ति बुद्ध जैसा व्यक्ति वही लेता है, जो लेना है।

शनिवार, 10 सितंबर 2016

सन्त एकनाथ जी

सन्त एकनाथ जी पैठन(दक्षिण भारत का एक नगर) के निवासी थे।अति शान्त और मृदुल स्वभाव। क्षमा, दया और करुणा से ओतप्रोत जीवन। अक्रोध तो मानो एकनाथ जी का स्वरूप ही था। उनके मुख पर सदैव शान्ति विराजमान रहती। किन्तु संसार में यदि अक्रोध है तो क्रोध भी है, शान्ति है तो अशान्ति भी है, दया और करुणा है तो क्रूरता भी है तथा सन्त हैं तो असन्त भी हैं।
     सन्त एकनाथ जी नित्यप्रति प्रातःकाल गोदावरी नदी पर स्नान करने जाया करते थे। मार्ग में एक सराय पड़ती थी जिसमें एक पठान रहता था। वह दुष्ट स्वभाव का था। वह आते-जाते व्यक्तियों को बहुत तंग किया करता था। एकनाथ जी जब नदी से स्नान करके लौटते तो वह पठान उनके ऊपर कुल्ला कर देता। एकनाथ जी वापिस लौट जाते और पुनः नदी पर स्नान करते। जब वे पुनः स्नान करके वापिस आते, वह पठान फिर उनपर कुल्ला कर देता। किसी किसी दिन तो उन्हें चार-पांच बार स्नान करना पड़ता,परन्तु एकनाथ जी तनिक भी क्रुद्ध न होते। उनके मुखमंडल पर सदैव की ही भाँति शान्ति शोभायमान रहती। वह पठान सोचता, यह कैसा मनुष्य है जो तनिक भी क्रोध नहीं करता। एक दिवस-आज मैं इऩ्हें क्रोधित करके ही रहूँगा-यह पठान की जिद थी। अथवा यूँ कहा जाये कि नित्यप्रति सन्तों के दर्शन करते-करते उसके पुण्य संस्कार उदय होने तथा सुधरने का समय आ गया था तो अनुचित न होगा। उस दिन एकनाथ जी बार-बार स्नान करके आते और वह पठान बार-बार उनके ऊपर कुल्ला कर देता। सन्त एकनाथ जी को उस दिन एक सौआठ बार स्नान करना पड़ा, परन्तु क्या मजाल जो उनके चेहरे पर क्रोध की रेखा भी उभरी हो।
     ""आप मुझे क्षमा करें। मैने बहुत पाप किये हैं जो आपको प्रतिदिन कष्ट दिया है।आप वास्तव में ही सच्चे सन्त हैं।''कहते हुये उस पठान ने एकनाथ जी के चरण पकड़ लिये।""अरे-अरे!यह क्या करते हैं?आपकी कृपा से मुझे आज एक सौ आठ बार गोदावरी-स्नान का सौभाग्य प्राप्त हुआ।''कहते हुये सन्त एकनाथ जी ने उस पठान को प्रेम से गले लगा लिया। उस दिन से वह पठान पशुता त्याग कर मानव बन गया और सन्तों का आदर-सत्कार करने लगा।

रविवार, 4 सितंबर 2016

क्षमा

गौतम बुद्ध के एक शिष्य पूर्ण ने सीमाप्रांत में धर्म प्रचार करने की अनुमति मांगी। बुद्ध ने कहा, ‘उस प्रांत के लोग अत्यंत कठोर तथा क्रूर हैं। वे तुम्हें गाली देंगे।’ पूर्ण ने कहा, ‘मैं समझूंगा वे भले लोग हैं कि वे मुझे थप्पड़-घूंसे नहीं मारते।’ बुद्ध बोले, ‘यदि वे तुम्हें थप्पड़-घूंसे मारने लगे तो…।’ पूर्ण ने कहा, ‘वे शस्त्र-प्रहार नहीं करेंगे इस कारण मैं उन्हें दयालु मानूंगा।’

इस पर बुद्ध बोले, ‘यदि वे शस्त्र प्रहार करें तो…?’ पूर्ण ने फिर उसी तरह जवाब दिया, ‘अगर वे मुझे मार नहीं देंगे तो मुझे इसमें उनकी कृपा ही दिखेगी।’ बुद्ध बोले, ‘ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि वे तुम्हारा वध नहीं करेंगे।’ पूर्ण ने उत्तर दिया, ‘यह शरीर रोगों का घर है। आत्मघात पाप है इसलिए जीवन धारण करना पड़ता है। मुझे मारकर वे मेरे ऊपर कृपा ही करेंगे।’ बुद्ध प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे धर्मप्रचार की अनुमति देते हुए कहा, ‘जो किसी दशा में दोष नहीं देखता वही सच्चा साधु है।

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

सम्यक जीवन

मोटा अर्थ है कि व्यायाम उतना करें जो सम्यक हो संतुलित हो। सूक्ष्म अर्थ भी है। इसका गहरा अर्थ है कि आप जो भी श्रम करें चाहे मानसिक तल पर चाहे शारीरिक तल पर वो हमेशा सम्यक हो वो कभी अति पर न चला जाये। वो अति पर चला जायेगा घातक हो जायेगा।
     बुद्ध के पास श्रोण नाम को एक राजकुमार दीक्षित हुआ था। वो वैभव में पला उसने कभी कोई दुःख नहीं देखे कभी नंगे पैर सड़क पर नही चला। वो भिखारी हो गया उसको अब चिथड़े पहनने पड़े और नंगे पांव चलना पड़ा। लेकिन बुद्ध देखकर हैरान हुये कि और भिक्षु तो ठीक रास्ते पर चलते हैं वो उन पगडन्डियों पर चलता है जहाँ काँटे हों उन पर जानबूझकर चलता है। और जब उसके पैरों से खून बहने लगता है और फफोले होने लगते हैं उसमें गौरव अनुभव करता है इसको वो तपश्चर्या समझ रहा है। इसको वो त्याग समझ रहा है। बड़ा सुन्दर था गौर वर्ण था। तीन महीने में वो सूखकर हड्डी हो गया। एक दम काला पड़ गया। बुद्ध ने एक दिन उसके पास जाकर कहा, एक बात पूछनी है। मैने सुना कि जब तुम राजकुमार थे तुम बीणा बजाने में बहुत कुशल थे। तो मैं ये पूछने आया हूँ अगर बीणा के तार बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा होता है? तो उसने कहा तार बहुत ढीले हों तो संगीत कैसे पैदा होगा? ध्वनित ही नहीं होगा। बुद्ध ने कहा, तार अगर बहुत कसे हों तो संगीत पैदा होता है? तो उसने कहा, तार बहुत ज़्यादा कसे हों तो वो टूट जायेंगे। तब भी ध्वनित नहीं होगा। बुद्ध ने कहा, मैं तुमसे ये कहने आया हूँ, कि जो वीणा का नियम है वही जीवन का नियम है। तार बहुत ढीले हों तो बेकार हैं तार बहुत कसे हों तो बेकार हो जायेंगे। तारों की एक स्थिति ऐसी है कि जो न ढीले हैं और न कसे हुये हैं वही स्थिति जिन्हें आप न ढीले कह सको न कसे कह सको तभी उनमें संगीत पैदा होता है। और जीवन में भी वहीं संगीत पैदा होता है जहाँ संतुलन होता है। जहाँ इस तरफ या उस तरफ किसी अति पर नहीं होता है। एक आदमी अतिशय भोजन करता है फिर उपवास भी करता है। ये दोनों बातें पागलपन की है। न तो निराहार होना है न अति आहार करना है। सम्यक आहार लेना है।