रविवार, 31 जनवरी 2016

क्रोध उथलेपन का सबूत


क्रोध सिर्फ उथलेपन का सबूत है।यह तुम ध्यान रखना। तुम जितने गहरे होते जाओगे,उतना क्रोध मुश्किल हो जायेगा।क्रोध से तुम किसीऔर का नुकसान नहीं कर रहे हो,सिर्फअपने को उथला बनाये हुए हो।और उथले पानी में बड़े जहाज़ नहीं रुकते। और तुम आशा बांधे हो,कभी परमात्मा का जहाज़ भी तुम्हारे किनारेआकर रुके।रुकने का उपाय नहीं है, किनारे लग नहीं सकता,क्योंकि उसके लिए गहरा पानी चाहिए। तुम्हारे किनारे तो तस्करों की डोंगियां ही लगेंगी,स्मगलर्स की छोटी-छोटी नावें लगेंगी, परमात्मा का जहाज नहीं लग सकता। उतनी ही जगह है तुम्हारे किनारे पर,उतना ही पानी है। पानी गहरा नहीं है। लेकिन परमात्मा का विराट जहाज तुम्हारे किनारे तभी लग सकता है, जब उतने विराट को झेलने की गहराई तुमने बना ली हो। क्रोध उथलेपन का सबूत है।
     पुराने प्राचीन चीन में एक नियम था। अब भी उस नियम की कोई लकीर कहीं-कहीं चलती है। कन्फ्यूसियस के जमाने में वह नियम पैदा हुआ।उन्नीस सौ दस में एकअमरीकन यात्री चीन गया।वह जैसे ही स्टेशन पर उतरा और स्टेशन के बाहर गया,वहां देखा, कि दो आदमियों में बड़ी घमासान लड़ाई चल रही है।मगर लड़ाई सिर्फ शब्दों की है।और कोई दो सौ आदमियों की भीड़ खड़े होकर देख रही है।और निरीक्षण ऐसे हो रहा है,जैसे कोई बड़ा खेल हो रहा हो। वहअमकीरन भी खड़ा हो गया।जल्दी ही तूफान इतने करीब आया जा रहा है कि जल्दी ही उपद्रव होगा। और बात वे इतने गुस्से में कर रहे हैं,चीख रहे हैं,चिल्ला रहे हैं,और एकदूसरे पर बिलकुल झपट रहे हैं, लेकिन वह बड़ा हैरान हुआ कि मारपीट शुरू क्यों नहीं होती? इतनी भूमिका क्यों चल रही है?तो उसने एक चीनी से पूछा कि मैं समझ नहीं पा रहा।बड़ी देर हो गई,आखिर कभी की मारपीट हो गई होती हमारे मुल्क में,यह इतनी देर क्यों लग रही है?उस चीनी ने कहा,यहां नियम है। नियम यह है,कि जो पहले हमला करे वह हार गया। बस,फिर मामला खतम!जैसे ही इन दो में से किसी ने हमला किया,भीड़ हट जायेगी। मामला खत्म ही हो गया है। जो पहले क्रोधित हुआ, वह उथला साबित हुआ। तो ये दोनों एक दूसरे को उकसा रहे हैं, कि किसी तरह दूसरा उत्तेजित हो जाये और हमला कर दे। जो बच गया हमला करने से,वह जीत गया।कन्फ्यूसियस ने इसकी आधारशिला रखी थी, कि क्रोध करने का अर्थ है आदमी हार ही चुका।अब उसे और हराने की ज़रूरत नहीं है।असल में हारा हुआआदमी ही क्रोध करता है।तुम जितने गहरे हो उतना ही क्रोध मुश्किल है। और तुम जितने गहरे हो उतनी ही हार असंभव है। गहराई विजय है उथलाई हार है। और गहरे पानी में ही परमात्मा का विराट जहाज़ तुम्हारे किनारे लगता है।

शनिवार, 30 जनवरी 2016

लकड़हारा जिसने चन्दन के कोयले बनाये


     एक राजा एक दिन वन में शिकार करता हुआ अपने साथियों से अलग हो गयाऔर मार्ग भूल गया।मार्ग की खोज में भटकते भटकते वह बहुत थक गया।इधर भूख-प्यास ने भी उसे बहुत परेशान किया। थका-मांदा एक पेड़ के नीचे पड़ रहा। अकस्मात एक लकड़हारे ने,जो निकट ही लकड़ियाँ काट रहा था,उसे देखा।उसने राजा को रूखा-सूखा भोजन, जो उसके पास था, खाने को दिया और निकट के एक जल रुाोत से शीतल जल लाकर उसे पिलाया।खा-पीकर राजा की जान में जान आई। तत्पश्चात वह लकड़हारा राजा को वन के बाहर तक छोड़नेआया। राजा ने उससे पूछा-तुम क्या काम करते हो? उसने उत्तर दिया-मैं लकड़हारा हूँ,लकड़ियाँ काटकर उनके कोयले बनाता हूँऔर उन्हें बाज़ार में बेचकर जो कुछ प्राप्त हो जाता है, उससे अपना जीवन-निर्वाह करता हूँ। राजा ने उसकी दयनीय दशा पर तरस खाकर चन्दन का एक बाग उसके नाम करते हुये कहा-मैं चन्दन का एक बहुत बड़ा बाग तुम्हें पुरस्कार में देता हूँ। उसे पाकर तुम मालामाल हो जाओगे।
     राजा केआदेशानुसार लकड़हारे को चन्दन का एक बहुत बड़ा बाग दे दिया गया। लकड़हारा चन्दन का इतना बड़ा बाग पाकर ह्मदय में अति प्रसन्न हुआ।चन्दन की लकड़ी की परख तो उसे थी नहीं,न ही वह चन्दन का मूल्य जानता था,वह तो एक दीन लकड़हारा था। चन्दन का बाग प्राप्त कर वह मन ही मन सोचने लगा कि राजा ने मुझपर अत्यन्त दया की है।अब मुझे कोयलों के लिये लकड़ी खोजने कहीं दूर न जाना पड़ेगा यह बाग भी बड़ा विशाल है,अतःबहुत समय तक काम देगा। यह विचार कर वह चन्दन की लकड़ी काट-काटकर कोयले बनाने और पहले की तरह ही बाज़ार में बेचने लगा।इस प्रकार काफी समय बीत गया।
   एक दिन राजा शिकार करते हुये फिर उसी वन कीओर जा निकला। उस वन में जाने पर उसे उस लकड़हारे का ध्यान हो आया। राजा ने सोचा चन्दन के बाग की ओर चलकर देखना चाहिये कि लकड़हारे ने अब तक उस बाग से क्या लाभ उठाया है? उसका विचार यह था कि लकड़हाराअब तक धनवान हो गया होगा और खूब ठाठ-बाठ से जीवन व्यतीत कर रहा होगा। किन्तु वहां जाने पर राजा को बड़ी निराशा हुआ। क्या देखता है कि बाग में कुछ इने-गिने पेड़ बचे हैं। एक किनारे पर लकड़हारे का टूटा-फूटा झोंपड़ा है। एक स्थान पर कोयलों का एक ढेर रखा हुआ है और लकड़हारा फटे-पुराने कपड़े पहने कोयलों को बोरे में भर रहा है। उस इस प्रकार फटेहाल देखकर राजा ने उसे अपने निकट बुलाया और पूछा-हमने तो तुम्हें चन्दन का बाग दिया था ताकि तुम चन्दन की लकड़ी बेचकर धनवान बन जाओ, परन्तु तुम तो उसी प्रकार दीन दिखाई दे रहे हो,यह क्या बात है?
     लकड़हारे ने हाथ जोड़कर विनय की-महाराज की जय हो। आपने मुझ दीन पर अत्यन्त कृपा की है जो मुझे यह बाग दिया है। अब मुझे लकड़ी लाने के लिये कहीं अन्यत्र जाना नहीं पड़ता। इस बाग में काफी लकड़ी है,मैं काटकर और उनके कोयले बनाकर बाज़ार में बेचआता हूँ। इससे मुझे काफीआराम हो गया है। राजा को उसकी अज्ञानता पर बहुत खेद हुआ। राजा ने कहा-अरे नासमझ!यह तूने क्या किया,चन्दन की लकड़ी के कोयले बना डाले?तुझे चन्दन की लकड़ी का मूल्य ज्ञात नहीं,इसीलिये तूने इतनी हानि कर ली। खैर!जो कुछ हुआ सो हुआ।अब ऐसा कर कि किसी पेड़ की एक छोटी टहनी काटकर ले आ।आदेश की देर थी कि लकड़हारा एक छोटी टहनी काटकर ले आया और राजा के सामने रख दी।राजा ने उसे नगर के एक इत्र बेचने वाले का नाम बताते हुए कहा-उसके पास जा और इसका जो मूल्य वह दे, उसे ले आ।
     लकड़हारा उस लकड़ी को गंधी के पास ले गया।गंधी ने उस थोड़ी सी लकड़ी के बदले उसे बहुत से रुपये दिये। अब तो लकड़हारे को चन्दन का मुल्य ज्ञात हुआ और वह अपनी अज्ञानता पर खेद करते हुये कहने लगा कि हाय!मैने इतनी मुल्यवान लकड़ी के कोयले बना-बनाकर उसे यूंही नष्ट कर दिये।किन्तु अब रोने और पछताने से क्या होता था? तब राजा ने उसे समझाया,कि जो कुछ हुआ सो हुआ, अब जो पेड़ शेष बचे हैं उन्हें बेचकर लाभ उठा।
     यदि ध्यानपूर्वक विचार किया जाये तो इस कथा में जिज्ञासु के लिये बहुत ही शिक्षाप्रद सामग्री विद्यमान है। परमात्मा ने जीव पर अति कृपा कर उसे मनुष्य जीवन रूपी चन्दन का बाग प्रदान किया है,जिसका एक-एक स्वांस अत्यन्त मूल्यवान है।आम संसारी मनुष्य अज्ञान वश इन स्वांसों को सांसारिक भोगों में व्यय करके उन्हें नष्ट कर रहा है। चन्दन की लकड़ी का मूल्य तो स्वांसो की तुलना में कुछ भी नहीं है। सन्तों ने तो एक-एक स्वांस का मुल्य त्रैलोकी की सम्पदा के तुल्य बतलाया है, अतएव ऐसी अमूल्य निधि को परमात्मा की प्राप्ति की अपेक्षा विषय विकारों और भोगों मे लुटा देना कहाँ की बुद्धिमत्ता है?

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

किसी को सुख नहीं दिया जा सकता


  एक सूफी फकीर जुन्नैद हुआ।वह कहता था,किसी को ज़बरदस्ती सुख नहीं दिया जा सकता। किसी को ज़बरदस्ती शान्ति नहीं दी जा सकती। मैं भी राज़ी हूँ। बहुत लोगों को मैने भी कोशिश करके देख ली कि ज़बरदस्ती भी दे दो।असंभव है।तुम जितना देने की ज़बरदस्ती करोगे, उतना आदमी चौंककर भागता है,कि कोई खतरा है। आनन्द भी नहीं दे सकते किसी को। क्योंकि कोई लेने को राज़ी ही नहीं है। तो एक दिन एक भक्त ने कहा कि यह बात मैं मान ही नहीं सकता। तो हम एक प्रयोग करें। वह एक आदमी को लाया और उसने कहा कि यह आदमी बिल्कुल दीन दरिद्र है। और सम्राट आपके भक्त हैं। आप उनसे कहें कि इसको एक करोड़ स्वर्ण अशर्फियाँ दे दें। फिर हम देखें कि कैसे यह आदमी दीन-दरिद्र रहता है।कैसे दुःखी रहता है।जुन्नेद ने कहा कि ठीक। एक दिन प्रयोग किया गया,और एक करोड़ अशर्फियाँ एक बहुत बड़े मटके में भर कर एक नदी के पुल के बीच में रख दी गयीं। पुल पर आवागमन बन्द किया गया। और वह आदमी रोज़ शाम को टहलने उस पुल पर से निकलता था,ठीक उस वक्त आवागमन बन्द किया गया।भरा हुआ मटकाअशर्फियों का रख दिया बीच पुल पर,कोई नहीं हैऔर दूसरी तरफ सम्राट, जुन्नेद और उसके साथी, जो प्रयोग कर रहे थे, वे चुपचाप खड़े हो गये। तो कोई अड़चन नहीं है इस आदमी को। कोई पुलिस नहीं है,कोई जनता नहीं है,पुल खाली है। पुल पर मटका रखा हुआ है। स्वर्ण की अशर्फियाँ चमक रही हैं सूरज की धूप में और वह आदमी चला आ रहा है उस तरफ से।पर बड़ी हैरानी की बात है। वह आदमी मटकी के पास से गुज़र गया और दूसरी तरफ आ गया। उसने मटकी को न तो देखा,और न छुआ। जुन्नेद और उसके साथियों ने उसे पकड़ा और कहा कि तुम्हें मटकी दिखायी नहीं पड़ी।उसने कहा कि कैसी मटकी?जब मैं पुल पर आया तब मुझे ख्याल उठा कि आज पुल पर कोई भी नहीं है कई दिन से ख्याल उठता था लेकिन कर नही  सकता था आज प्रयोग कर लूँ। कई दिन से सोचता था कि आँख बन्द कर के पुल पार कर सकता हूँ कि नहीं। लेकिन भीड़-भाड़ रहती थी,कभी कर नहीं पाया। आज सन्नाटा देखकर ख्याल आया कि आज कर लेना चाहिए। तो मैं आँख बन्द करके गुज़र रहा था। कैसी मटकी? किस मटकी की  बात कर रहे हो?और प्रयोग सफल रहा। आँख बन्द किए पुल पार किया जा सकता है। जुन्नेद ने कहा, यह देखो,जिसे चूकना है वह कोई ख्याल पैदा कर लेगाऔर चूक जाएगा जो चूकने के लिए ही तैयार है, तुम उसे बचा न सकोगे। परमात्मा भी तुम्हें वह नहीं दे सकता जिसे लेने के लिए तुम तैयार नहीं हो गये हो।तुम अगर दुःख के लिए तैयार हो,दुःख तुम अगर सुख के लिए तैयार हो,स्वर्ग,सुख। तुम वही पाते हो जो तुम्हारी तैयारी है। मिलता उसकी अनुकम्पा से है।पाते तुमअपनी तैयारी से हो। बरसता वह सदा है। भरते तुम तभी हो, जब तुम तैयार होते हो,उन्मुख हो।

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

राजा,मन्त्री,सिपाही को बोली से पहचाना


    जब किस कउ इहु जानसि मंदा। तब सगले इसु मेलहि फंदा।।
सत्पुरुष चेतावनि देते हुये फरमाते हैं कि ऐ मनुष्य! जब तक तू किसी को बुरा समझता रहेगा,स्मरण रख कि तब तक हर प्रकार के दुःख तेरे गले में अपना फंदा डाले रहेंगे और तू चौरासी के चक्र से मुक्त न हो सकेगा। चौरासी के फंदे को काटने का साधन यही है कि किसी से कटु वचन बोल कर उसका दिल मत दुखाओ। वास्तव में देखा जाये तो मनुष्य की निरख-परख और उसका मूल्यांकन तो उसकी बोलचाल से ही किया जाता है।
   एक राजा साथियों सहित शिकार खेलने वन में गया। एक हरिण को देखकर उसके पीछे हो लियाऔर अपने साथियों से अलग हो गया। इधर हरिण भी उसकी आँखों से ओझल हो गया। हरिण को खोजते-खोजते जब वह कुछआगे गया तो एक स्थान पर उसे एक सूरदास ऋषि बैठे दिखाई दिये।राजा ने उनसे पूछा-हे विशाल नेत्रों वाले ऋषिदेव!क्या आप यह बताने की कृपाकरेंगे कि इधर से कोई  हरिण तो नहीं निकला।ऋषि ने उत्तर दिया-राजन्!कुछ देर हुई इधर से एक हरिण गया है। राजा ने हरिण के पीछे फिर घोड़ा दौड़ाया।कुछ देर बाद मंत्री उधर आ निकला। उसने भी ऋषि को सम्बोधित करते हुये कहा-हे सूरदास! क्या आप बता सकेंगे कि इधर से कोई गया है या नहीं। ऋषि ने उत्तर दिया-मंत्री जी! कुछ देर हुई इधर से राजा साहिब गुज़रे हैं। मंत्री के जाने के कुछ समय बाद कोतवाल वहाँ आयाऔर बड़े कठोर शब्दों में बोला-एअन्धे!इधर से कोई आदमी गुज़रा है? ऋषि ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक उत्तर दिया-हां, कोतवाल साहिब!कुछ देर हुई,पहले राजासाहिब और फिर मंत्री जी इधर से गये हैं।कुछ देर बाद जब वे तीनों मिले,तो वार्तलाप के मध्य इस बात का वर्णन आया कि ऋषि ने,जो कि सूरदास है,यह कैसे जान लिया कि अमुक व्यक्ति राजा है,अमुक मंत्री तथा अमुक कोतवाल। वे तीनों उसके पास गये।राजा ने उससे पूछा-हे ऋषिदेव!कृपा करके आप यह बतलाइये कि सूरदास होने पर भी आपने हमें कैसे पहचान लिया? ऋषि ने उत्तर दिया-राजन!प्रत्येक व्यक्ति को उसकी बोलचाल से पहचाना जा सकता है। वार्तालाप से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन-स्तर का पता चल जाता है। आपकी वाणी नम्र और मधुर थी,मंत्री की वाणी मेंआपकी अपेक्षा नम्रता और मधुरता कम थी,परन्तु कोतवालसाहिब की वाणी तो बहुत ही कठोर थी।यह सुनकर वे समझ गये किअनुभवी लोगों कीअन्दर कीआँख खुली होती है, जिस कारण उन्हें सच्चाई का पता चल जाता है।जब तक ह्मदय पर द्वैत का पर्दा पड़ा रहता है, तब तक विवेक की आँख नहीं खुलती।
          बानी तो अनमोल है, जो कोई जानै बोल।
          हीरा तो दामों मिलै, शब्द का तोल न मोल।।
     फरमाते हैं कि प्रकृती कीओर से मनुष्य को जो बोलने काअधिकार मिलाहुआ है,यह एक दुर्लभऔर मूल्यवान रत्न है,यदि कोई सौभाग्यशाली सत्पुरुषों की संगति में जाकर उसके प्रयोग का ढंग सीख ले अर्थात बोलने की युक्ति जिसे आ जाये तो वह व्यक्ति बहुत अधिक मालदार हो सकता है,क्योंकि हीरे जवाहर तो दाम से मिल जाते हैं,परन्तु सत्पुरुषों का शब्द किसी भी मूल्य-तोलमोल से नहीं मिल सकता। यह जब भी मिलेगा, उनकी कृपा से मिलेगा। हीरे का मूल्य लगाया जा सकता है, परन्तु शब्द के मूल्य का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसलिये सत्पुरुष उपदेश करते हैं किः-
          हिये तराजू तोल के, तब मुख बाहर खोल।
अर्थात् जब भी बोले, पहले मन में अच्छी प्रकार सोच समझ लो कि बोलने में क्या लाभ और क्या हानि है? इस प्रकार जो लाभ-हानि का अनुमान लगाकर और भलीभाँति सोच विचार कर बोलता है,तो वह सौभाग्यशाली सदैव सम्मान और सुख से जीवन व्यतीत करता है। जो बिना तोल के जैसा आया बोल दिया, उनका जीवन सदैव फसाद और अशान्ति का शिकार बना रहता है।

बुधवार, 27 जनवरी 2016

दूध का दूध पानी का पानी


     एक दिन वचन हुये कि देहात से एक गूजरी मथुरा में दूध बेचने आती थी।उसका नियम था कि तीन पाव दूध में पाव भर पानी मिलाकर बेचती थी।एकदिन दूध के सोलह रुपये उसके पास बटुए में रखे थे कि वह यमुना-स्नान को गईऔर कपड़ेआदि घाट पर रखकर स्नान करने लगी। एक बन्दर ने अवसर पाकर उसके बटुए को उठा लिया और पेड़ की शाखा पर जो यमुना की ओर बढ़ी हुई थी, जा बैठा।स्त्री यह देखकर रोने-चिल्लाने लगी। उसकी आवाज़ सुनकर बहुत से लोग एकत्र हो गये औरउन्होने बन्दर से बटुआ प्राप्त करने का बहुत प्रयत्न किया,परन्तु सब व्यर्थ। बन्दर ने बटुआ खोलकर उसमें से एक रुपया निकाला और बहुत
देरतक उसको देखकर यमुना जी में पटक दिया,फिर दूसरा निकालाऔर उसको भी देखभाल कर यमुना जी में पटक दिया।इसी प्रकार चार रूपये पानी में पटक कर फिर बटुआ घाट पर डालकर किसी ओर चल दिया।
     उस समय गूज़री ने बटुआ उठाकरअत्यन्त खेदपूर्वक कहा-दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। जब लोंगों ने इस विषय में उससे पूछा तो उसने स्पष्ट कह दिया कि जितना मैं पानी मिलाती थी, उसके मूल्य का रूपया बन्दर ने पानी में डाल दिया। अब मुझे खेद है कि मैने पानी मिला कर व्यर्थ ही परेशानी उठाई। गूज़री ने उस दिन से दूध में पानी न मिलाने की सौगन्ध खाईऔर उस दिन से यह कहावत प्रसिद्ध हो गई कि  ""दूध का दूध पानी का पानी, गूज़री बेचकर पछतानी।''
     अभिप्राय यह कि प्रत्येक कर्म का फल एक दिन सामने आ जाता है। शुभ कर्म का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ ही होता है। इसलिये मनुष्य को पहले से ही सोच समझकर अपने कर्मों पर दृष्टि रखनी चाहिये ताकि बाद में पश्चाताप न करना पड़े। मालिक के दरबार में तो एक दिन पूरा-पूरा न्याय होता है। वहां दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जाता है।

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

अनार रस कम निकला


मनुष्य के मन के विचारों तथा उसकी भावनाओं का प्रभाव केवल मनुष्य पर ही नहीं होता, प्रत्युत पशु, पक्षियों एवं पेड़ों को भी वे प्रभावित किये बिना नहीं रहतीं। कथा है कि एक राजा आखेट के लिये वन में गया और साथियों से बिछुड़कर मार्ग भूल गया तथा दो तीन दिन भूखा-प्यासा भटकता रहा। भूख-प्यास से मरणान्न हो रहा था कि उसे एक उद्यान दिखाई दिया। भूखे प्यासे भटकते रहने से यद्यपि शरीर निढाल हो रहा था, फिर भी गिरते-पड़ते अत्यन्त कठिनाई से उद्यान में पहुँचा। वहां अनार के हरे-भरे पेड़ों को देखकर जान में जान आई। माली को संकेत से निकट बुलाया और उससे फलों का रस मांगा। माली वस्तुतः एक महात्मा थे, जिन्होंने अपने आश्रम में वह उद्यान लगा रखा था। उन्होंने पके हुये अनार तोड़े, उनका रस निकाला और गिलास भरकर राजा को दिया। रस पीकर राजा की जान में जान आई। उसने कहा कि ऐसा ही रस का एक गिलास और भी भर कर ला दो।
     महात्मा जी अब की बार जब पके अनार तोड़ने के लिये गये, तो एक भी अनार पका हुआ दिखाई न दिया। विवश होकर वे अधपके अनारों को तोड़कर रस निकालने का प्रयत्न करने लगे। काफी देर बाद वे केवल आधा गिलास रस लेकर राजा के पास आये। राजा ने पूछा कि पहली बार जब आप रस लेने गये थे, तो मिनटों में ही गिलास भरकर ले आये थे, परन्तु अब की बार आप काफी देर बाद लौटे हैं, फिर भी रस का आधा गिलास ही लाये हैं। इसका क्या कारण है? महात्मा जी ने उत्तर दिया-क्षमा कीजियेगा, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पहली बार जब आपने रस मांगा था, उस समय आपके मन में शुभ भावना थी, जिसके प्रभाव से जब मैं पेड़ों के पास गया, तो मुझे तुरन्त पके अनार दिखाई पड़ गये। उनको तोड़कर और दाने निकालकर निचोड़ा, तो तत्काल ही गिलास रस से भर गया। किन्तु अब की बार कदाचित आपकी भावना में कुछ अन्तर आ गया था, जिसके प्रभाव से सब पेड़ मुरझा गये थे। मैं प्रत्येक पेड़ के पास गया, परन्तु मुझे एक भी पका हुआ अनार दिखाई न पड़ा। मैं मन ही मन बड़ा चकित हुआ और सोचने लगा कि अभी अभी इन पेड़ों को क्या हो गया है? जब मुझे कोई पका अनार न मिला, तो मैने कच्चे पक्के अनार तोड़े, परन्तु जब रस निकालने लगा तो देखा कि दाने सूखे हुये हैं। बहुत प्रयत्न करने पर और बहुत से अनारों के दानों को निचोड़ने पर भी रस का गिलास नहीं भरा गया। राजा भी सत्यवादी था। उसने अपना अपराध स्वीकार करते हुये कहा महात्मन्! मैं इस देश का राजा हूँ। पहली बार जब आप रस लेने गये थे, तब मैंने मन ही मन विचार किया था कि आपके हाथ से रस पीकर मैं आपको प्राणदाता मानूँगा और आपके गुण गाऊँगा। किन्तु जब दूसरी बार आप रस लेने के लिये गये, तो मेरे मन में विचार उठा कि आपके पास तो बहुत बड़ा बाग है और इससे आप को बहुत आय होती होगी, अतएव आप पर राजस्व लगाना चाहिये। वास्तव में मेरी इस दुर्भावना का फल ही मुझे प्राप्त हुआ है कि रस का गिलास भी न मिल सका। मैं आपको वचन देता हूँ कि भविष्य में कभी भी किसी के प्रति कुभावना को मन में प्रविष्ट न होने दूँगा। आप जैसे महान सन्त की पल भर की संगति ने मेरा ह्मदय प्रकाशमान कर दिया है। सन्त उपदेश करते हैं कि अपनी भावनाओं को शुभ बनाने का यत्न करते रहो। इससे मालिक भी प्रसन्न रहते हैं। जिससे आपका जीवन भी खुशी से बीतता है और परलोक भी संवरता है।

सोमवार, 25 जनवरी 2016

गोपीचन्द को माता की शिक्षा


    राजा गोपीचन्द अपने पिता के देहावसान के उपरान्त राज्य सिंहासन पर बैठे। उनकी माता बड़ी विवेकवान,विचारशील और भक्ति के विचारों वाली थी।उसने गोपीचन्द को समझाया-बेटा!जिस राज्य सिंहासन केआज तुमअधिकारी हो,इसपर तुमसे पहले तुम्हारे पिता और उनसे पहले तुम्हारे दादा परदादा बैठ बैठ कर इस नश्वर संसार से चले गये। तुम्हें भी एक दिन इस राज्यसिंहासन को छोड़ कर जाना होगा,अतएव उचित यही है कि तुम सन्त सतपुरुषों की चरण-शरण ग्रहण कर मालिक के सच्चे नाम की कमाई करो, जो इस लोक में तो क्या उस लोक में भी जीव का साथ नहीं छोड़ता, जो शाश्वत और सदैव अंग-संग रहने वाला है।
     इस प्रकार उसने गोपीचन्द को भक्ति मे मार्ग पर लगाया।जब गोपी चन्द राज्य त्याग कर वन में जाने लगे,तो माता ने उन्हें पुनः शिक्षा देते हुए कहा-बेटा!किले के अन्दर रहना,स्वादिष्ट व्यंजन खाना और नरम-नरम गदेलों पर शयन करना। गोपीचन्द माता के ये शब्द सुनकर मन में अत्यन्त विस्मित हुये।उनकी समझ में माता की बातें न आर्इं, अतएव वे माता को सम्बोधित करते हुये बोले-माता जी! एक ओर तो आप मुझे राज्य त्याग कर भक्ति-पथ पर लगा रही हैं।और दूसरी ओर ऐसा उपदेश दे रही है। भला! वन में किला, स्वादिष्ट व्यंजन और नरम-नरम गदेले कहां? माता ने समझाते हुये कहा-बेटा!किला सतगुरु की आज्ञा है। यदि तू सदगुरु की आज्ञा के अन्दर रहेगा तो मन-माया और काम क्रोधादि शत्रुओं से सदैव बचा रहेगा।स्वादिष्ट व्यंजन खाने काअभिप्राय यह है कि जब भजन करते करते तुझे भूख खूब सताने लगे,तब भोजन करना।ऐसी स्थिति मेंसूखी रोटीअथवा वृक्षों के पत्ते भी तुझे ऐसे स्वादिष्ट प्रतीत होंगे जैसे स्वादिष्ट व्यंजन। नरम-नरम गदेलों पर सोने का तात्पर्य यह है कि जब तुम्हें नींद अत्यन्त व्याकुल करे, तब सोना। ऐसी दशा में पत्थर भी तुम्हें नरम गद्दों की तरह प्रतीत होंगे।
     अब मनुष्य को मन में विचार करना चाहिये कि आत्मकल्याण का कार्य कितना महत्व पूर्ण है?यदि यह कार्यअति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण न होता तो गोपी चन्द की माता पुत्र से राज्य का त्याग करवा कर उसे कभीअपने से विलग न करती। कौन माताअपने पुत्र को अपने से विलग करना चाहती है? किन्तु जिन सौभाग्यशाली जीवों को सन्त सत्पुरुषों की शुभ संगति प्राप्त हो जाती हैऔर उस शुभ संगति के प्रताप से जिन्हें इस बात की समझ आ जाती है कि आत्म कल्याण का कार्य केवल मनुष्य जन्म में ही सम्भव हैऔर यह जन्म जीवात्मा को मिला ही इसीलिये है,वे स्वयं तो इस कार्य को करते ही है,अन्यान्य प्राणियों को भी इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।जो जीव सन्त सतपुरुषों की ऐसी हितभरी वाणी को सुनकर जाग पड़ते हैं और आलस्य त्याग कर अपने कार्य में अर्थात आत्म कल्याण में जुट जाते हैं। वे अत्यन्त सौभाग्यशाली है,क्योंकि वे मनुष्य जन्म के उद्देश्य को पूरा करके इस लोक में भी सच्चे सुखआनन्द की प्राप्ति करते हैं और मालिक के धाम में भी उज्जवलमुख होते हैं। ऐसे सौभाग्य शाली जीव धन्यवाद के पात्र हैं।

रविवार, 24 जनवरी 2016

जो मांगना छोड़ देता है, वही परमात्मा में प्रेवश करता है


ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास जब विवेकानंद आए, तो उनके घर की हालत बड़ी बुरी थी। पिता मर गए थे, कोई संपत्ति तो छोड़ नहीं गए थे, उल्टा कर्ज छोड़ गए थे और विवेकानंद जी को कुछ भी न सूझता था कि कर्ज़ कैसे चुके? घर में खाने को रोटी भी नहीं थी। और ऐसा अवसर हो जाता था कि घर में इतना थोड़ा-बहुत अन्न जुट पाता, कि मां और बेटे दोनों थे, तो एक का ही भोजन हो सकता था। वो विवेकानंद जी मां को कहकर कि मैं आज घर पर भोजन नहीं लूंगा, किसी मित्र के घर निमंत्रण है, मां भोजन कर ले, इसलिए घर से बाहर चले जाते। कहीं भी गली-कूचों में चक्कर लगाकर-कोई मित्र का निमंत्रण नहीं होता-वापस खुशी से लौट आते कि बहुत अच्छा भोजन मिला, ताकि मां भोजन कर ले। स्वामी रामकृष्ण जी को पता लग गया तो उन्होंने कहा, तू भी पागल है, तू जाकर मां काली से क्यों नहीं मांग लेता? तू रोज़ यहां आता है, जा मंदिर में और मां से मांग ले, क्या तुझे चाहिए? स्वामी रामकृष्ण जी ने कहा तो विवेकानंद जी को जाना पड़ा। स्वामी रामकृष्ण बाहर बैठे रहे, आधी घड़ी बीती। एक घड़ी बीती, घंटा बीतने लगा। तब उन्होंने भीतर झांककर देखा, विवेकानंद आँख बंद किए खड़े हैं। आँख से आनन्द के आँसूं बह रहे हैं। सारे शरीर में रोमांच है। फिर जब विवेकानंद जी बाहर आए, तो स्वामी रामकृष्ण जी ने कहा, मांग लिया मां से? विवेकानंद जी ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया। जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि मैं तो सिर्फ अनुग्रह के आनंद में डूब गया। अब दोबारा जब जाऊंगा, तब मांग लूंगा। दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे दिन भी यही हुआ। स्वामी रामकृष्ण जी ने कहा, पागल, तू मांगता क्यों नहीं है? तो विवेकानंद जी ने कहा, कि आप नाहक ही मेरी परीक्षा ले रहे हैं। भीतर जाता हूं, तो यह भूल ही जाता हूं कि वे क्षुद्र ज़रुरतें, जो मुझे घेरे हैं, वे भी हैं, उनका कोई अस्तित्व है। जब मां के सामने होता हूं, तो विराट के सामने होता हूं, तो क्षुद्र की सारी बात भूल जाती है। यह मुझसे नहीं हो सकेगा। स्वामी रामकृष्ण ने अपने शिष्यों से कहा कि इसीलिए इसे भेजता था, कि अगर इसकी प्रार्थना अभी भी मांग बन सकती है, तो इसे प्रार्थना की कला नहीं आई। अगर यह अब भी मांग सकता है प्रार्थना में, तो इसका मन संसार में ही उलझा है, परमात्मा की तरफ उठा नहीं है। आप पूछते हैं कि क्या मांगे? मांगें मत। मांग संसार है और जो मांगना छोड़ देता है, वही केवल परमात्मा में प्रेवश करता है।

शनिवार, 23 जनवरी 2016

निजी सम्पत्ति


शिकार के लिए जंगल में भटकते ईरान के शहंशाह अब्बास ने स्वच्छंदतापूर्वक बांसुरी बजाने वाले एक चरवाहे बालक को देखा। बालक की हाज़िरजवाबी और प्रतिभा का वह कायल हो गया। बादशाह उसे शाही दरबार में ले आया। उस बालक का नाम मुहम्मद अली बेग था। थोड़े दिनों में वह दरबार की शोभा बढ़ाने लगा। शाह ने उसे खजांची बना दिया। अब्बास के बाद उसका नाबालिग पौत्र शाह सफी तख़्त पर बैठा। धूर्त लोगों ने शाह के कान भरे कि शाही खजांची मुहम्मद अली बेग खज़ाने का दुरुपयोग करता है। नया शाह चाल में आ गया। उसने मुहम्मद अली की हवेली का निरीक्षण किया। हवेली में चारों ओर सादगी का साम्राज्य दिख रहा था। शाह जब लौटने लगा तभी चुगलखोरों के इशारे पर उसका ध्यान एक कमरे की ओर गया। कमरे पर तीन मजबूत ताले लटक रहे थे। इसमें छुपा रखी हैं शाही खज़ाने की बेशकीमती चीज़ें, दूसरे चुगलखोर ने कहा। जब शाह ने मुहम्मद अली से पूछा तो वह सिर झुकाकर बोला-हुज़ूर, इसमें मेरी निजी सम्पत्ति है। गुस्से से शाह ने कहा-लेकिन शासक को किसी की भी निजी सम्पत्ति देखने का अधिकार है। शाह की निगाहें मुहम्मद पर केंद्रित हो गर्इं। बेशक परवरदिगार! लेकिन शासन को उसे छीनने का हक नहीं है। मुहम्मद अली ने सर झुकाकर कहा। हम उसे देखें तो सही। शाह के हुक्म पर ताले खोल दिए गए। कमरे के बीचों बीच एक तख्त पर कुछ चीज़ें करीने से रखीं थीं। एक बांसुरी, सुराही, बाजरे का भात रखने की थैली, लाठी, चरवाहे की पोशाक और दो मोटे-ऊनी कंबल वहां रखे थे। मुहम्मद बोला-यही है मेरी निजी सम्पत्ति हुज़ूर। आपके दादा मरहूम शाह मुझे लाए थे तब मेरे पास यही चीज़ें थीं। आज भी मेरी निजी कहने को यही चीज़ें हैं। शाह को समझ में आ गया कि मुहम्मद अली इमानदार आदमी है। झूठे लोगों ने उस पर झूठे इल्ज़ाम लगाए हैं।

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

सूखे और गीले नारियल का उदाहरण


शेख फरीद के पास कभी एकआदमी गया।और उस आदमी ने पूछा कि सुनते हैं हम कि जब मंसूर के हाथ काटे गये,पैर काटे गये,तो मंसूर को कोई तकलीफ न हुई,लेकिन विश्वास नहीं आता। पैर में कांटा गड़ जाता
है,तो तकलीफ होती है। हाथ-पैर काटने से तकलीफ न हुई होगी?और उस आदमी ने कहा,यह भी हम सुनते हैं कि जब जीसस को सूली पर लटकाया गया, तो वे ज़रा भी दुःखी न हुए। और जब उनसे कहा गया कि अंतिम कुछ प्रार्थना करनी हो तो कर सकते हो। तो सूली पर लटके हुए,कांटों से छिदे हुए, हाथों में खीलों से बँधे हुए, लहू बहते हुए उस जीसस ने अंतिम क्षण में जो कहा वह विश्वास के योग्य नहीं है, उस आदमी ने कहा,जीसस ने कहा कि क्षमा कर देना इन लोगों को,क्योंंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
     यह वाक्यआपने भी सुना होगा। और सारी दुनियाँ में जीसस को मानने वाले लोग निरंतर इसको दोहराते हैं। यह वाक्य बड़ा सरल है। जीसस ने कहा कि इन लोगों को क्षमा कर देना परमात्मा,क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।इन पागलों को यह पता नहीं है किजिसको ये मार रहे हैं, वह मर ही नहीं सकता है। इसको माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं। ये एक ऐसा काम कर रहे हैं,जो असंभव है। ये मारने का काम कर रहे हैं, जो असंभव है। उस आदमी ने कहा कि विश्वास नहीं आता कि कोई मारा जाता हुआ आदमी इतनी करूणा दिखा सकता हो। उस वक्त तो वह क्रोध से भर जाएगा।
     बाबा फरीद जी खूब हँसने लगे।और उन्होने कहा, कि तुमने अच्छा सवाल उठाया। लेकिन सवाल का जवाब मैं बाद में दूँगा,एक छोटा-सा मेरा काम कर लाओ। पास में पड़ा हुआ एक नारियल उठाकर दे दिया, और कहा कि इसे फोड़ लाओ। लेकिन ध्यान रहे, इसकी गिरी को पूरा बचा लाना,गिरी टूट न जाये। लेकिन वह नारियल था कच्चा।उसआदमी ने कहा, माफ करिए, यह काम मुझसे न हो सकेगा। नारियल बिलकुल कच्चा है।और अगर मैने इसकी खोल तोड़ी,तो गीरी भी टूट जायेगी। तो उस फकीर ने कहा,उसे रख दो।दूसरा नारियल उसने दिया जो कि सूखा थाऔर कहा कि अब इसे तोड़ लाओ।इसकी गिरी तो तुम बचा सकोगे? उस आदमी ने कहा, इसकी गिरी बच सकती है।
     तो बाबा फरीद जी ने कहा कि मैने तुम्हें जवाब दिया, कुछ समझ में आया?उस आदमी ने कहा मेरी समझ में नहीं आया।नारियल से और मेरे जवाब का क्या संबंध है? बाबा फरीद ने कहा,यह नारियल भी रख दो,कुछ फोड़ना-फाड़ना नहीं है। मैं तुमसे यह कह रहा हूँ कि एक कच्चा नारियल है,जिसकी गिरी और खोलअभी आपस में जुड़ी हुई है।अगर तुम उसकी खोल को चोट पहुँचाओगे तो उसकी गिरी भी टूट जाएगी। फिर एक सूखा नारियल है।सूखे नारियल और कच्चे नारियल में फर्क ही क्या है? एक छोटा-सा फर्क है कि सूखे नारियल की गिरी सिकुड़ गई है भीतरऔर खोल अलग हो गई है। गिरीऔर खोल के बीच में एक फासला,एक दूरी हो गई है।अब तुम कहते हो कि इसकी हम खोल तोड़ देंगे तो गिरी बच सकती है। तो मैने तुम्हारे सवाल का जवाब दे दिया।
     उस आदमी ने कहा मैं फिर भी नहीं समझा।तो उन्होने कहा,जाओ, मरो और समझो। इसके बिना तुम समझ नहीं सकते। लेकिन तब भी तुम समझ नहीं पाओगे, क्योंकि तब तुम बेहोश हो जाओगे। खोल और गिरी एक दिन अलग होंगे,लेकिन तब तुम बेहोश हो जाओगे।और अगर समझना है,तो अभी खोलऔर गिरी को अलग करना सीखो। अभी,जिंदा में। और अगर अभी खोल और गिरी अलग हो जाएं, तो मौत खतम हो
गई। वह फासला पैदा होते से ही हम जानते हैं कि खोल अलग, गिरी अलग। अब खोल टूट जाएगी तो भी मैं बचूँगा। तो भी मेरे टूटने का कोई सवाल नहीं है, तो भी मेरे मिटने का कोई सवाल नहीं है। मृत्यु घटित होगी, तो भी मेरे भीतर प्रवेश नहीं कर सकती है, मेरे बाहर ही घटित होगी। यानी वही मरेगा, जो मै नहीं हूँ जो मैं हूँ वह बच जाएगा। ध्यान या समाधी का यही अर्थ है कि हम अपनी खोल और गिरी को अलग करना सीख जाएं।वे अलग हो सकते हैं, क्योंकि वे अलग हैं। वे अलग-अलग जाने जा सकते हैं, क्योंकि वे अलग हैं। इसलिए ध्यान है स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश, जो आदमी अपनी इच्छा से मौत में प्रवेश कर जाता है,वह अनायास ही जीवन में प्रविष्ट हो जाता है। वह जाता है तो है मृत्यु को खोजने, लेकिन मृत्यु को तो नहीं पाता है, वहां परम जीवन को पा लेता है। वह जाता है तो है मृत्यु के भवन में खोज करने,लेकिन पहुंच जाता है जीवन के मन्दिर में।

तार न अधिक ढीले हों न कसे


     बुद्ध के पास एक राजकुमार संन्यस्त हुआ। उसका नाम था श्रोण। वह बहुत भोगीआदमी था। भोग में ज़िन्दगी बिताई। फिर त्यागी हो गया, फिर संन्यस्त हो गया। और जब भोगी त्यागी होता है तो अति पर चला जाता है।वह भी चला गया।अगर भिक्षु ठीक रास्ते पर चलते,तो वहआड़े टेढ़े रास्ते पर चलता।अगर भिक्षु जूता पहनते,तो वह काँटों में चलता। भिक्षु कपड़ा पहनते,तो वह नग्न रहता।भिक्षु एक बार खाना खाते,तो वह दो दिन में एक बार खाना खाता। सूख कर हड्डी हो गया,चमड़ी काली पड़ गई। बड़ा सुंदर युवक था,स्वर्ण जैसी उसकी काया थी। दूर-दूर तक उसके सौंदर्य की ख्याति थी।पहचानना मुश्किल हो गया। पैर में घाव पड़ गये।बुद्ध छः महीने बाद उसके द्वार पर गये।उसके झोंपड़े पर उन्होने जा कर कहा,श्रोण!एक बात पूछने आया हूँ।मैने सुना कि जब तू राजकुमार था तब तुझे सितार बजाने का बड़ा शौक था,बड़ा प्रेम था। मैं तुझसे यह पूछनेआया हूँ कि सितार के तारअगर बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा होता है? श्रोण ने कहा, कैसे पैदा होगा? सितार के तार ढीले हों तो संगीत पैदा होगा ही नहीं। बुद्ध ने कहा,और अगर तार बहुत कसे हों तो संगीत पैदा होता है? श्रोण ने कहा, आप भी कैसी बात पूछते हैं।अगर बहुत कसे हों तो टूट ही जायेंगे। तो बुद्ध ने कहा, तू मुझे बता कैसी स्थिति में संगीत श्रेष्ठतम पैदा होगा?श्रोण ने कहा,एक ऐसी स्थिति है तारों की,जब न तो हम कह सकते हैं कि वे बहुत ढीले हैं और न कह सकते हैं कि बहुत कसे हैं,वही समस्थिति है। वहीं संगीत पैदा होता है।
     बुद्ध उठ खड़े हुए। उन्होने कहा, यही मैं तुझसे कहने आया था, कि जीवन भी एक वीणा की भांति है। तारों को न तो बहुत कस लेना, नहीं तो संगीत टूट जायेगा। न बहुत ढीला छोड़ देना,नहीं तो संगीत पैदा ही न होगा।और दोनों के मध्य एक स्थिति है,जहां न तो त्याग हैऔर न भोग, जहां न तो पक्ष है न विपक्ष, जहां न तो कुआँ है न खाई, जहां हम ठीक मध्य में हैं। वहां जीवन का परम-संगीत पैदा होता है।
     यह सूफी कथा भी उसी परमसंगीत के लिए है। न तो नियमों को तोड़कर उच्छृंखल हो जानाऔर न नियमों को मान कर गुलाम हो जाना। दोनों के मध्य नाज़ुक है रास्ता।इसलिए फकीरों ने कहा है,खड्ग की धार है। इतना बारीक है, जैसे तलवार की धार हो। मगर,अगर समझ हो, तो वह पतला सा रास्ता राजपथ हो जाता है। और जो उस रास्ते पर चलना सीखजाता है,उसके जीवन से सारे कष्ट गिर जाते हैंअति कष्ट लाती है, दुःख लाती है।दो अतियाँ हैं। एक नरक ले जाये,एक स्वर्ग,मोक्ष दोनों के मध्य में है। जो बहुत दिन स्वर्ग में रहेगा, उसको स्वाद बदलने के लिए नरक जाना पड़ेगा।और जो बहुत दिन तक नरक में रहेगा वह स्वर्ग पाने
की क्षमताअर्जित कर लेता है।वे दोनों एक दूसरे में बदलाहट करते रहते हैं।तुम्हें पता न हो, या पता हो,स्वर्ग और नरक के बीच बड़ा आवागमन चलता है।और वहां पासपोर्ट की भी कोई ज़रूरत नहीं।और दरवाज़े दूर-दूर नहीं हैं,आमने सामने हैं।इधर से लोग उधर जाते हैं,उधर से लोगइधर आते हैं। कोई रुकावट नहीं है। जब ऊब जाती है तबीयत,तो लोग स्वाद लेने उधर चले जाते हैं। तुम्हें पता है,दुःख से भी तुम ऊब जाते हो,सुख से भी तुम ऊब जाते हो। मिठाई खाते हो उससे ऊब जाते हो,नमकीन से थोड़ा स्वाद बदलते हो।नमकीन खाते हो उससे ऊब जाते हो,मीठे सेथोड़ा स्वाद बदलते हो।आराम से ऊब जाते हो श्रम करते हो,श्रम से ऊब जाते हो विश्राम करते हो। स्वर्गऔर नरक के बीच यात्रा चलती रहती है।दोनों के मध्य में है मोक्ष।

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

भाई कन्हैया-20.01.2016


भाई कन्हैया का जीवन एक मिसाल है। वह दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज का अनन्य प्रेमी था। वह राग-द्वेष की भावना से कितना ऊपर उठ चुका था, यह निम्नलिखित प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है।एक समय की बात है,श्री गुरुगोबिन्द सिंह जी महाराज तथा औरंगज़ेब की सेनाओं में परस्पुर युद्ध चल रहा था। भाई कन्हैया युद्धक्षेत्र में घूमकर बिना पक्ष-विपक्ष का विचार किये घायल सैनिकों को पानी पिलाया करता था। उसे ऐसा करते देखकर कुछ सिखों ने श्री गुरु महाराज जीके चरणों में भाई कन्हैया की शिकायत करते हुए निवनेदन किया-""सच्चे पादशाह! भाई कन्हैया युद्धभूमि में घूम फिर कर अपने पक्ष के घायल सैनिकों के साथ साथ शत्रु पक्ष के घायल सैनिकों को भी पानी पिलाता है और उन्हें होश में लाने का प्रयत्न करता है। उसे ऐसा करने से मना कीजिये कि वह शत्रुओं को पानी न पिलाये।''
     भाई कन्हैया भक्ति की किस मंज़िल पर पहुँचा हुआ है,यद्यपि श्री गुरुमहाराज जी इस बात को भलीभाँति जानते थे, परन्तु भक्त की महिमा को प्रकट करने के लिए उन्होने भाई कन्हैया को उसी समय बुलवाया और सबके सामने फरमाया,"'भाई कन्हैया! तुम्हारी शिकायत आई है कि तुम अपनी सेना के घायल सैनिकों के साथ साथ शत्रु दल के घायल सैनिकों को भी पानी पिलाते हो।''भाई कन्हैया ने हाथ जोड़कर विनय की,""सच्चे पादशाह! मैं मित्र-शत्रु अथवा अपना-पराया नहीं जानता। मुझे तो सब में आपका ही रूप नज़र आता है। जिस समय मैं घायल सैनिकों को पानी पिलाता हूँ, उस समय मुझे ऐसा अनुभव होता है कि आपको प्यास लगी है और सेवक आपको पानी पिलाने की सेवा कर रहा है।'' उसका यह उत्तर सुनकर सभी चकित रह गए।तब श्रीगुरुमहाराजजी ने फरमाया,""भाई कन्हैया!भक्ति की दृष्टि से तुमअत्यन्त उच्च अवस्था को प्राप्त कर चुके हो, क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में सकल सृष्टि इष्टरूप हो चुकी है,और तुम्हारी दृष्टि में मित्र-शत्रु अथवा अपना-पराया नहीं रहा,फिर किससे राग और किससे द्वेष? इसलिये हमारी आज्ञा है कि अभी तक तो तुम घायल सैनिकों को केवल पानी ही पिलाया करते थे। परन्तु अब पानी पिलाने के साथ साथ उनकी मरहम-पट्टी भी किया करो।''

स्तुति-निन्दा दोनो पर मिट्टी डाली-19.01.2016


लाहौर में छज्जू नामक एक भक्त जी रहा करते थे, जो सर्राफ का  काम करते थे।एकदिन एक पठान उनके पास स्वर्ण-मुद्राओं से भरी एक थैली लेकर आयाऔर बोला-इसमें पूरी एक सौ स्वर्ण मुद्रायें हैं, गिन लीजिये। भक्त जी ने मुद्रायें गिनी, तो वे निन्यानवें निकली। जब भक्त जी ने पठान से कहा कि ये मुद्रायें तो एक कम सौ हैं, तो पठान एकदम क्रोध में आ गयाऔर भक्त जी के प्रतिअनुचित शब्दों का प्रयोग करते हुये उच्च स्वर में बोला-किसीदूसरे को ठगने का प्रयत्न करना।मुझको ठगना सुगम नहीं है। मैं काज़ी के सामने तुम्हारी पेशी कराऊंगा। पठान को ऊँचा बोलते सुनकर बहुत से लोग वहाँ एकत्र हो गये। पठान की बात सुनकर सभी लोग कहने लगे कि देखो!कैसा कलियुग आ गया है?बनता भक्त है, परन्तु धोखाधड़ी अभी भी नहीं छोड़ी।
     मामला काज़ी के न्यायालय में पेश हुआ। इधर पठान की स्त्री को जब इस बात का पता चला,तो उसने तुरन्त एक व्यक्ति के हाथ काज़ी को सन्देश भिजवाया कि थैली में से एक मुद्रामैने खर्च के लिये निकाली थी,परन्तु मुझे बताना याद नहीं रहा। उस व्यक्ति ने जब न्यायालय में जा कर सबके सामने यह बात बताई,तो पठान बड़ा लज्ज़ित हुआ और भक्त जी से क्षमा याचना करते हुये बोला-मैने आप जैसे नेक आदमी पर जल्दबाज़ी में मिथ्या आरोप लगाकर व्यर्थ ही आपको बदनाम करने का प्रयत्न किया। मुझसे बहुत भारी अपराध हुआ है।
     काज़ी ने निर्णय दिया-पठान ने चूँकि भक्त जी पर झूठा आरोप लगाया है, अतः भक्त जी अपने मुख से जो दण्ड कहेंगे, पठान को वही दण्ड भोगना पड़ेगा। काज़ी का निर्णय सुनकर भक्त जी ने कहा-यहाँ उपस्थित सभी लोग पठान को शाबाशी दें, क्योंकि उसने भरी सभा में अपना अपराध स्वीकार किया है। यह सुनकर वही लोग जो कुछ देर पहले भक्त जी को ठग और धोखेबाज़ कह रहे थे, उनकी प्रशंसा करने लगे। भक्त जी ने दोनों मुट्ठियों में धूल भरकर बारी-बारी से फेंकते हुये  कहा-एक मुट्ठी निंदा पर और एक स्तुति पर। मुझे न अपनी निंदा सुन कर दुःख हुआ और न स्तुति अथवा प्रशंसा सुनकर खुशी, क्योंकि मेरा अन्तर्यामी प्रभु सब कुछ देखता है। वही सत-असत का निर्णय करेगा और मनुष्य को उसके कर्मानुसार फल भोगना पड़ेगा।
    इसीलिये सन्तों सतपुरुषों का उपदेश है कि निंदा सुनकर न तो क्रोध करो और न ही प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होओ, क्योंकि प्रभु के दरबार में निर्णय लोगों के कहने सुनने के आधार पर नहीं होगा, प्रत्युत मनुष्य के अपने कर्मों के आधार पर होगा। जो मनुष्य स्तुति-निंदा से अप्रभावित रहता है, उसे सत्पुरुषों ने मुक्त पुरुष कहा हैः-
          उसतति निंदिआ नाहिं जिहि कंचन लोह समानि।
          कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जानि।।

शेख सादी साहिब धन चोर ले गये-18.01.2016


शेख सादी साहिबअपने समय में माने हुए व्यक्ति थे। फकीरों साधु-सन्तों की संगति से उन्होंने सन्तोष रूपी शिक्षा को दृढ़ता से पल्ले बाँध लिया। भगवान की कृपा से घर में धन-माल सब कुछ था परन्तु इसके लिये उन्हें अहंकार नहीं था।कोई सम्बन्धी कहता कि मियाँ!इतना क्या करोगे? उत्तर देते कि जिसका है वही सम्भाल लेगा मुझे क्या चिन्ता? शेख सादी साहिब तोअपनी मस्ती में मस्तदुनियाँ का कार्य-व्यवहार करके हुएफकीरों की संगति में समय व्यतीत करते हुए जीवन का लाभ ले रहे थे।
     कुछ समय बीता।कुछ धन सन्तों की सेवा-टहल में खर्च कर दिया और शेष को चोर चुराकर ले गए। किसी मित्र ने कहा-मियाँ! अब कैसे बसर होगा?उत्तर मिला कि जैसे पहले था वैसे अब हूँ,मेरा धन तो कहीं नहीं गया।उसीअनुरूप ही फकीरों की सेवा टहल जो पहले धन से करते थे अब तन से करने लगे। इसी पर सन्तोष था कि ऊँट तो उनके पास है जिससे आने जाने में असुविधा नहीं थी।
          जो कुंजे कनाअत में है तकदीर पर शाकिर।
          है जौक  बराबर  उन्हें कम और जियादा।।
जो सन्तोषी है,वे भाग्य पर भरोसा रखते हैं। उन्हें कम और ज्यादा सभी बराबर है।उन्हें जो मिलजाए उसी पर सब्रा करते हैं। एक बार यह घटना घटित हुई कि एक सौदागर ऊँटों पर कुछ लादकर ले जा रहा था। उसने अपना धन माल सुरक्षा की दृष्टि से एक बहुत ही बूढ़े लद्दू ऊँट पर लाद दियाऔर उस पर टूटी-फूटी काठी रख दी और उस काठी में अशर्फियों की थैली रख दी। ऐसा उसने इसलिये किया ताकि बूढ़े ऊँट पर किसी की दृष्टि न पड़े।वह सौदागर जंगल से गुज़र रहा था कि अकस्मात् युद्ध में शत्रु से लूटा माल लेकर कुछ लोगआ रहे थे, उन्होंने सौदागर से सब ऊंट व माल छीन लिए।उनमें वह बूढ़ा ऊँट भी था।सभी सरदार अन्य ऊंटों पर सवार हो गएऔर एक सरदार अभी कुछ दूर बूढ़े ऊँट पर जा ही रहा था कि उधर से शेख सादिसाहिबअपने ऊंट पर सवार मिल गए। वह ऊँट भी अच्छा था और काठी भी नई थी।सरदार ने""आव न देखा ताव''बूढ़े ऊंट से उतर कर शेख सादि साहिब के अच्छे ऊँट को छीन लियाऔरअपना बूढ़ा ऊंट उन्हें दे दिया और कहा कि चल बैठ इस ऊंट परऔर चला जा।वह सरदार शेख सादि साहिब के ऊँट को लेकर चला गया। शेख सादिसाहिब बूढ़े ऊँट को लेकरअपने घर आ गए।और कहने लगे किअच्छा हुआ परमात्मा ने अब इसकी सेवा टहल करने को दिया है।ज्यों ही ऊंट से काठी उतारकर एकओर रखने लगे कि झनझनाती स्वर्ण मोहरें थैली में से गिर पड़ींऔर ऊंट से चीथड़ों की कमानी उतारी तो ढेर धन उसमें छिपा पाया।उन्होने आकाश की ओर देखकर कहा-वाह भगवान!सच है,जिसे देता है छप्पर फाड़कर देता है।और मुझे थप्पड़ खा कर ज़बरदस्ती लेना पड़ा।भगवान जो कुछ करता हैअच्छाही करता है।

सुख-दुःख दोनों ही चप्पू चाहियें-17.01.2016


उसके रास्ते अनूठे हैं। कभी वह तुम्हें देता है और देने के द्वारा तुम्हें निर्मित करता है। और कभी ले लेता है और लेने के द्वारा तुम्हारा विकास करता है कभी ज़रूरत होती है कि तुम्हें दुःख मिले क्योंकि दुःख तुम्हें चेताता है, होश लाता है सुख में तो तुम सो जाते हो, खो जाते हो। दुःख में तुम जाग आते हो।
  एक सूफी फकीर हुआ।हसन उसका नाम था।उसके शिष्य ने एक दिन पूछा कि सुख है यह तो समझ में आता है क्योंकि परमात्मा है,वह पिता है,तो वह सुख दे रहा है, लेकिन दुःख क्यों?दुःख समझ में नहीं आता। साँयकाल नदी के पार बाग में जब जाने लगे तो शिष्य को भी नाव में साथ बिठा लिया था।हसन ने नाव चलानी शुरुकी थोड़ी दूर नाव चलायी और एक ही चप्पू से उसने नाव चलानी शुरु कर दी। वह नाव गोल गोल घूमने लगी।अगर इसी  तरह एक ही चप्पू से नाव चलायी तो हम यहीं भटकते रहेंगे। इसी किनारे पर गोल गोल घूमते रहेंगे। दूसरा चप्पू खराब है या आपका हाथ काम नहीं कर रहा?या हाथ में दर्द है तो मैं चलाऊँ।'' हसन ने कहा,""तू तो समझदार है। मैं तो समझा कि नासमझ है।''अगर सुख ही सुख होगा तो नाव वर्तुल में ही घूमती रहेगी। कहीं पहुंचती नहीं। उसको साधने के लिये विपरीत चाहिये।दो चप्पुओं से नाव चलती है।दो पैर सेआदमी चलता है। दो हाथ से जीवन चलता है। रात और दिन चाहिये।सुख और दुःख चाहिये।जन्मऔर मृत्यु चाहिये।अन्यथा नाव घूमती रहेगी। भँवर बन जायेगी। तुम कहीं पहुँचोगे ही नहीं।

हानि-लाभ में सेठ की समता-16.01.2016


          सुख स्वपना दुःख बुदबुदा, दोनों है मेहमान।
          सबका आदर  कीजिये, जो भेजे भगवान।।
जिस प्रकार कुदरत के नियम केअनुसार रात्रि के पश्चात् दिन और दिन के पश्चात् रात्रि,गर्मी के पश्चात्सर्दी व सर्दी के पश्चात् गर्मी काआगमन होता है उसी प्रकार सुख के पश्चात् दुःखऔर दुःख के पश्चात् सुख का आना स्वाभाविक है। इसलिये सुख दुःख दोनों को ही प्रभु की देन समझ कर प्रसन्न रहना चाहिये। विवेकी मनुष्य दोनों ही परिस्थितियों में समान रहता हैक्योंकि वह जानता है कि दोनों ही परिस्थितियां सदैव रहने वाली
वाली नहीं है। वह न तो सुख में गर्व करता हैऔर न ही दुःख में दुःखी होता है।
    किसी नगर में एक सेठ रहता था।उसके पास लाखों की सम्पत्ति थी और भरा-पूरा परिवार था।उसे सब तरह की सुख सुविधायें थीं। फिर भी उसका मन अशान्त रहता था। जब उसकी हैरानी बहुत बढ़ गई तो वह एक सन्त के पास गया और अपना कष्ट उन्हें बताकर प्रार्थना की, कि महाराज,जैसे भी हो,मेरी अशान्ति दूर कीजिए।सन्त ने उसकी बात ध्यान से सुनी और कहा कि अमुक नगर में एक बहुत बड़ा धनिक रहता है, उसके पास जाओ,वह तुम्हें रास्ता बता देगा। सेठ ने सोचा कि सन्त उसे बहका रहे हैं। उसने सन्त से कहा,""स्वामी जी, मैं तो आपके पास बड़ी आशा लेकर आया हूँ। आप ही मेरा उद्धार कीजिये।'' सन्त ने फिर वही बात दोहरा दी। लाचार होकर सेठ उस नगर की ओर रवाना हुआ। वहाँ पहुँचकर वह देखता क्याहै कि उस धनपति का कारोबार चारोंओर फैला है।लाखों का व्यापार है और उस आदमी का चेहरा फूल की तरह खिला है।वह एक ओर बैठ गया। इतने में एक आदमी आया उसका मुँह उतरा हुआ था। बोला,""मालिक हमारा जहाज़ समुद्र में डूब गया। लाखों का नुकसान हो गया?'' उद्योगपति ने मुस्कराकर कहा,""मुनीम जी, इसमें परेशान होने की क्या बात है? व्यापार में ऐसा होता ही रहता है।''इतना कहकर वह अपने साथी से बात करने लगा। थोड़ी देर में एक दूसरा आदमी आया। बोला,""सरकार,रुई का दाम चढ़ गया है। हमें लाखों का फायदा हुआ है।'' धनिक ने कहा,""मुनीम जी, इसमें खुश होने की क्या बात है? व्यापार में ऐसा होता ही रहता है।''सेठ को अपनी समस्या का समाधान मिल गया। उस ने समझ लिया कि शान्ति का स्त्रोत वैभव में नहीं, मन की समता में है।
     इस प्रकार विवेकी मनुष्य किसी भी परिस्थिति में अपने विवेक को नहीं खोते।भौतिक सुख दुःख तो प्रारब्धाधीन न चाहने पर भी आते जाते ही रहेंगे, किन्तु विवेकी मनुष्य उनमें रमण नहीं करते। वे तो हर हाल में मुस्कराना जानते  हैं। 

सेवक कवड़ी ककड़ी भी खा गया-21.01.2016


जब तुम दुःखी हो,तो आसपास ज़िम्मेवारी किसी के कंधे पर टांग देते हो। और जब तुम सुखी हो तब तुम खुद मानते हो,कि मेरा ही कारण मैं सुखी हूँ यह तर्क किस भाँति का है? सुखी हो तब तुम अपने कारण और दुःखी हो तब किसीऔर के  कारण। इस वजह से न तो तुम दुःख को हल कर पाते हो और न तुम सुख का राज़ खोज पाते हो। क्योंकि दोनों हालत में तुम गलत हो।न तो दूसरा ज़िम्मेवार है दुःख के लियेऔर न तुम ज़िम्मेवार सुख के लिये दोनों के पीछे परमात्मा ज़िम्मेवार है।और अगर एक ही हाथ से सुख-दुःख आ रहे हैं तो उनमें भेद क्या करना, फर्क क्या करना?
     एक मुसलमान बादशाह हुआ। उसका एक गुलाम था। गुलाम से उसका बड़ा प्रेम था, बड़ा लगाव था। वह बड़ा स्वामिभक्त था। एक दिन दोनों जंगल से गुजरते थे। एक वृक्ष में एक ही फल लगा था। सम्राट ने फल तोड़ा। जैसी उसकी आदत थी, उसने एक कली काटी और गुलाम को दी। गुलाम ने चखी और उसने कहा, मालिक, एक कली और।और गुलाम माँगता ही गया।फिर एक ही कली हाथ में बची। सम्राट ने कहा,
इतना स्वादिष्ट है?गुलाम ने झपट्टा मार कर वह एक कली भी छीनना चाही। सम्राट ने कहा, यह हद हो गई। मैने तुझे पूरा फल दे दिया, और दूसरा फल भी नहीं है। और अगर इतना स्वादिष्ट है, तो कुछ मुझे भी चखने दे। उस गुलाम ने कहा,""नहीं,स्वादिष्ट बहुत हैऔर मुझे मेरे सुख से वंचित न करें। दे दें।''लेकिन सम्राट ने चख ली। वह फल बिल्कुल ज़हर था। मीठा होना तो दूर,उसके एक टुकड़े को लीलना मुश्किल था। सम्राट ने कहा,""पागल,तू मुस्करा रहा है,और इसज़हर को तू खा गया? तूने कहा क्यों नहीं?''उस गुलाम ने कहा,""जिन हाथों से इतने सुख मिले हों और जिन हाथों से इतने स्वादिष्ट फल चखे हैं, एक कड़ुवे फल की शिकायत?'' फलों का हिसाब ही छोड़ दिया, हाथ का हिसाब है। जिस दिन तुम देख पाओगे कि परमात्मा के हाथों से दुःख भी मिलता है, उस दिन तुम उसे दुःख कैसे कहोगे?तुम उसे दुःख कह पाते हो अभी,क्योंकि तुम हाथ को नहीं देख रहे हो।जिसदिन तुम देख पाओगे सुख भी उसका दुःख भी उसका,सुख-दुःख दोनों का रूप खो जायेगा। न सुख सुख जैसा लगेगा, न दुःख,दुःख जैसा लगेगा।और जिसदिन सुख-दुःख एक हो जाते हैं उसी दिनआनन्द की घटना घटती है।जब तुम्हें सुख-दुःख का द्वैत नहीं रहा जाता तबअद्वैत उतरता है।तबआनन्द उतरता है। तब तुम आनन्दित  हो जाओगे। किसी को,पड़ोस में पति को, पत्नी को, मित्र को, भाई को, दोस्त को दुश्मन को दोषी मत ठहराना। सब दोषों का मालिक वह है। और जब खुशी आये, सफलता मिले, तो अपने अहंकार को मत भरना। सब सफलताओं सब स्वादिष्ट फलों का मालिक भी वही है। अगर तुम सब उसी पर छोड़ दो,तो सब खो जायेगा सिर्फआनन्द शेष रह जाता है।
उसके हुक्म से कोई ऊँचा कोई नीचा,हुक्म से सुख-दुःख की प्राप्ति,हुक्म से ही कोई प्रसाद को उपलब्ध होता हुक्म से ही कोई आवागमन में भटकता है। सभी कोई हुक्म के अन्दर हैं। हुक्म से बाहर कभी कोई नहीं। श्री गुरु नानकदेव जी कहते हैं जो उस हुक्म को समझ लेता है वह अहंकार से मुक्त हो जाते हैं। परम आनन्द को प्राप्त कर लेते हैं।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

15.01.2016 जिसके हम मालिक हैं, वह भी हमारा मालिक हो जाता है।


बाबा फरीद साहिब एक रास्ते से गुज़र रहे थे। अपने शिष्यों के साथ और एक आदमी एक गाय के गले में रस्सी बांध कर घसीटे ले जा रहा था। गाय घिसट रही थी, जा नहीं रही थी। परतंत्रता कौन चाहता है। बाबा फरीद ने घेर लिया उस आदमी को। गाय को। अपने शिष्यों से कहा, खड़े हो जाओ। एक पाठ ले लो। मैं तुमने एक सवाल पूछता हूँ, इस आदमी ने गाय को बांधा है कि गाय ने आदमी को बांधा है?'' वह आदमी जो गाय ले जा रहा था वह भी खड़ा हो गया- देखें मामला क्या है? यह तो बड़ा अजीब प्रश्न है। और फरीद जैसा ज्ञानी कर रहा है। शिष्यों ने कहा, "बात साफ है कि इस आदमी ने गाय को बांधा है। क्योंकि रस्सी इसके हाथ में है।' बाबा फरीद ने कहा, मैं दूसरा सवाल पूछता हूं, हम इस रस्सी को बीच से काट दें तो यह आदमी गाय के पीछे जाएगा कि गाय आदमी के पीछे जाएगी?' शिष्यों ने कहा,"तब ज़रा झंझट है। अगर रस्सी काट दी तो इतना तो पक्का है कि गाय तो भागने को तैयार ही खड़ी है। यह आदमी ही इसके पीछे जाएगा।' तो बाबा फरीद ने कहा, "ऊपर से दिखता है कि रस्सी गले में बंधी है गाय के, पीछे से गहरे में समझो तो आदमी के गले में बंधी है।'
     जिसके हम मालिक होते हैं, उसकी हम पर मालकियत हो जाती है। तुम धन के कारण धनी थोड़े ही होते हो, धन के गुलाम हो जाते हो। धन के कारण धनी हो जाओ तो धन में कुछ भी खराबी नहीं है, लेकिन धन के कारण कभी ही कोई धनी हो पाता है। धन के कारण तो लोग गुलाम हो जाते हैं। उनकी सारी ज़िंदगी एक ही काम में लग जाती है। जैसे तैसे तिजोरी की रक्षा। और धन को इकट्ठा करते जाना। जैसे वे इसीलिए पैदा हुए हैं।

14.01.2016 सेहत का राज


बादशाह ने बीरबल से पूछा-ये साहूकार किस चक्की का आटा खाते हैं? जो इतने मोटे-ताज़े होते हैं। बीरबल बोला-जहांपनाह! ये लोग जो खाते हैं, वह आप नहीं खा सकते। बादशाह ने फिर पूछा-बीरबल! बताओ तो सही ये क्या खाते हैं? बीरबल ने कहा-मौका आने पर बताऊँगा। एक दिन बादशाह और बीरबल हाथी पर बैठकर शहर में घूमने निकले। बाज़ार में पहुंचे, एक सेठ की दुकान पर भिखारियों की जमात मांगने के लिए आई। एक आने की भीख मांगी, सेठ बोला-एक पैसा दूंगा। भिखारियों ने कहा-एक आना लिए बिना हरगिज़ नहीं जाएंगे। सेठ ने सोचा, बादशाह की सवारी आ रही है। ये लोग मगज़पच्ची कर रहे हैं, यह सोचकर उसने बला टालते हुए कहा-लो एक आना, एक ढीठ भिखारी ने कहा, अब हम नहीं लेंगे, दो आना लेकर जाएंगे, बीरबल ने बादशाह को सेठ की दुकान पर हो रहे तमाशे की ओर संकेत किया। सेठ ने हालात की नज़ाकत को समझते हुए दो आने  दे दिए। इतने में तीसरा भिखारी चिल्लाया-आपने हमारा अमूल्य समय नष्ट किया। अब हम दो आना नहीं, चार आना लेंगे। सेठ ने देखा, बादशाह की सवारी बहुत नज़दीक आ गई। ये पागल लोग दुकान से हट नहीं रहे हैं, इसी खींचातानी व उधेड़बुन में सेठ दुःखी हो गया, आखिर मांगते-मांगते वे लोग एक रुपया लेकर रवाना हुए, जाते-जाते झल्लाते हुए एक भिखारी ने सेठ के मुंह पर थप्पड़ मारा, धक्का-मुक्की में सेठ की पगड़ी नीचे गिर पड़ी, बादशाह बिल्कुल नज़दीक पहुँच गए। सेठ जल्दी से अपनी पगड़ी बाँधकर दुकान पर बैठ गया। चेहरे पर तनिक भी विषाद की रेखा नहीं आने दी। वही मुस्कुराहट, वही उल्लास, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। बीरबल और बादशाह सब कुछ निहार रहे थे। सेठ ने सवारी को एकदम दुकान के पास देखा। मुस्कराते हुए बादशाह को सलाम किया। सवारी आगे बढ़ गई। बीरबल बोला, जहांपनाह, देखा आपने अनूठा तांडव, मांगने वाले रुपए भी ले गए और सेठ को थप्पड़ भी जमा गए। सेठ जी का इतना अपमान होते हुए भी उन्होने गुस्सा नहीं किया। कितनी खामोशी रखी। आपने पूछा कि यह साहूकार लोग क्या खाते हैं। हुज़ूर ये लोग गम खाते हैं, इसीलिए मोटे-ताज़े रहते हैं, क्या ऐसा गम आप खा सकते हैं? बादशाह बोला-बीरबल! ऐसा गम मैं नहीं खा सकता, थोड़े से अपमान पर भी मुझे क्रोध आ जाता है, बीरबल ने हँसते हुए जवाब दिया-इसीलिए आप दुबले-पतले हैं।

13.01.2016 प्रत्येक वस्तु नाशवान है

बौद्ध भिक्षु श्रोण को देखने-सुनने हज़ारों व्यक्ति नगर के बाहर एकत्र हुए थे। उनका चित्त निर्वात् स्थान में जलती दीपशिखा की भांति थिर था। उस समूह में एक धनी महिला कातियानी भी बैठी थी। संध्या हो चली तो उसने अपनी दासी से कहा,"तू जाकर घर में दीया जला दे। मैं तो यह अमृतोपम उपदेश छोड़कर उठूंगी नहीं।' दासी घर पहुंची तो वहां सेंध लगी हुई थी। अंदर चोर सामान उठा रहे थे और बाहर उनका सरदार रखवाली कर रहा था। दासी उल्टे पांव वापस लौटी। चोरों के सरदार ने भी उसका पीछा किया। दासी ने कातियानी के पास जाकर घबराए स्वर में कहा; "मालकिन, घर में चोर बैठे हैं।' किन्तु कातियानी ने कुछ ध्यान न दिया। वह किसी और ही ध्यान में थी। वह तो जो सुनती थी, सो सुनती रही। जहां देखती थी, वहां देखती रही, वह तो जहां थी, वहीं बनी रही। वह किसी और ही लोक में थी उसकी आँखों में आनंदाश्रु बहे जाते थे, दासी ने घबराकर उसे झकझोरा,"माँ! माँ! चोरों ने घर में सेंध लगाई है। वे समस्त स्वर्णाभूषण उठाए लिए जा रहे हैं।' कातियानी ने आँखें खोलीं और कहा,"पगली! चिन्ता न कर, जो उन्हें ले जाना है, ले जाने दे। वे स्वर्णाभूषण सब नकली हैं। मैं अज्ञान में थी। इसलिए वे असली थे। जिस दिन उनकी आँखें खुलेंगी, वे भी पायेंगे कि नकली हैं। आँखें खुलते ही वह स्वर्ण मिलता है, जो न चुराया जा सकता है,  न छीना ही जा सकता है। मैं उस स्वर्ण को ही देख रही हूँ। वह स्वर्ण स्वयं में ही है।' दासी तो कुछ भी न समझ सकी। वह तो हतप्रभ थी और अवाक् थी। उसकी स्वामिनी को यह क्या हो गया था? लेकिन चोरों के सरदार का ह्मदय  झंकृत हो उठा। उसके भीतर जैसे कोई बंद द्वार खुल गया। उसकी आत्मा में जैसे कोई अनजला दीप जल उठा। वह लौटा और अपने मित्रों से बोला," मित्रो! गठरियाँ यहीं छोड़ दो, यह स्वर्णाभूषण सब नकली हैं और आओ, हम भी उसी सम्पदा को खोजें जिसके कारण गृहस्वामिनी ने इन स्वर्णाभूषणों को नकली पाया है। मैं स्वयं भी उस स्वर्णराशि को देख रहा हूँ। वह दूर नहीं, निकट ही है। वह स्वयं में ही है।'

12.01.2016 अहंकार

एक छोटे से गाँव में रहने वाले मुर्गे को अपनी आवाज़ पर बड़ा नाज था। एक दिन एक चालाक लोमड़ी उसके पास आई और बोली, "मुर्गे महाशय! सुना है, आपकी आवाज़ बड़ी प्यारी और बुलंद है।' मुरगे ने गद्गद् होकर अपनी आँखें मीचीं और ऊँची आवाज़ में चिल्लाया-कु कुकुड़ूँ--कूँ! कु कुकुड़ूँ--कूँ! पर तभी लोमड़ी ने फुरती से उसे अपने मुँह में दबोच लिया और जंगल की तरफ भाग चली। गाँव वालों की नज़र उस पर पड़ी तो वे चिल्लाए,"पकड़ो, मारो! यह तो हमारा मुरगा दबोचे लिये जा रही है।' लोमड़ी ने उनकी चिल्लाहट पर ध्यान नहीं दिया। यह देखकर मुरगा बोला,"लोमड़ी बहन, ये गाँववाले चिल्ला रहे हैं कि मेरा मुरगा दबोचे लिये जा रही है। आप इन्हें जवाब क्यों नहीं दे देतीं कि यह मुर्गा आपका है, उनका नहीं?' लोमड़ी को मुरगे की बात जम गई। उसने फौरन मुँह खोला और गाँव वालों की ओर देखकर कहा,"भूल जाओ अपने मुरगे को। यह तो अब मेरा निवाला है।' पर यह कहने के साथ जैसे ही लोमड़ी का मुंह खुला, मुरगा उसके मुँह से छूट गया। वह सरपट भागा और गाँववालों के पास पहुँच गया।
      जब आदमी अपने अहंकार में फूला फिरता है और किसी के द्वारा प्रशंसा सुन कर फूल कर कुप्पा हो जाता है तो समझो वह काल के मुँह का निवाला बन जाता है। जैसे कि मुरगा अपनी प्रशंसा सुनकर फूला नहीं समाया और लोमड़ी के मुँह का निवाला बन बैठा। दूसरी शिक्षा इस दृष्टान्त से यह मिलती है कि अगर कोई अपनी भक्ति की कमाई को पाकर उसे छुपा कर नहीं रखता अर्थात् अपनी सिद्धियों का बखान करता है तो उसके हाथ में आई हुई भक्ति की सम्पदा छूट जाती है। जैसे लोमड़ी के मुंह आया हुआ मुरगा पाकर भी मौन न रह सकी, और अपने नि़वाले से हाथ धो बैठी।

11.01.2016 अपमान

एक सूफी फकीर एक गांव में गया। लोगों ने उसका अपमान करने के लिए जूतों की माला बनाकर पहना दी। वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने माला को बड़े आनंद से सम्भाल लिया। लोग बड़े हैरान हुए, क्योंकि वे आशा कर रहे थे कि वह नाराज़ होगा, गाली देगा, झगड़ा खड़ा करेगा, इच्छा ही यह थी कि झगड़ा खड़ा हो जाए। बड़े झुक-झुककर उसने नमस्कार किया। और जैसे कि फूलों की माला हो, गुलाब पहनाए हों। आखिर एक आदमी से न रहा गया। उसने पूछा, "मामला क्या है?' तुम्हें होश है? यह जूतों की माला है।' उस फकीर ने कहा,"माला है, यही क्या कम है? जूतों की फिक्र तुम करो, हम माला की फिक्र कर रहे हैं, और करोगे भी क्या तुम? फूल तुम लाओगे कहां से? यह कोई मालियों की बस्ती तो है नहीं; पहचान गए हम इस बस्ती को। मगर धन्यभाग कि तुम माला तो लाए। इसे सम्हाल कर रखूंगा। फूलों की तो बहुत मालाएं देखीं, और जल्दी मुरझा जाती हैं। यह अनूठी है। मुरझायेगी भी नहीं। तुमने अपने संबंध में सब-कुछ कह दिया।'
     तुम अगर अंहकार से भरे हुये नहीं हो, अहंकार की ग्रंथि भीतर नहीं, तो तुम्हारा कोई अपमान नहीं किया जा सकता। जूतों की माला मे भी माला दिखाई पड़ने लगेगी। अभी तो फूलों की माला में भी फूल दिखाई नहीं पड़ते।

10.01.2016 लगन


आदमी के दिल पर उस बात का भूत सवार होना चाहिए, उसकी प्राप्ति के बगैर और कुछ सूझना नहीं चाहिए, ना ही सोचना चाहिए।
     जंगल में अपनी कुटिया में रहने वाले गुरु को बहुत सारी सिद्धियां प्राप्त थीं। सुख समृद्धि और सफलता प्राप्ति करने के लिए उनके पास लोगों का तांता लगा रहता था। गुरु भी अपने शिष्यों को बड़ी लगन से पढ़ाते थे। एक बार एक नौजवान सफलता का राज़ जानने के लिए उनके पास पहुंचा, उसे लगा ऐसे सिद्धि प्राप्त गुरु से सुखी और समृद्ध जीवन का गुरुमंत्र मिलता है तो उसकी ज़िन्दगी सुधर जाएगी। उनसे दीक्षा लेकर रोज आने जाने लगा। एक उसने बड़ी नम्रता से गुरु जी से परमात्मा प्राप्ति की याचना की। उसकी तीव्र इच्छा देखकर गुरु ने उससे कहा कि वह ज़रुर उसे परमात्मा प्राप्ति का रहस्य बताएंगे पर आज नहीं, कल। कल वो नदी में सुबह नहाने जाने वाले हैं, वहां नदी किनारे आना।
     नौजवान बड़ी उम्मीद के साथ दूसरे दिन नदी किनारे जा पहुंचा। देखा तो गुरु जी बड़े मज़े से नदी में नहा रहे थे। जैसे ही गुरु की नज़र नौजवान पर पड़ी उन्होंने उसको पानी के अंदर उतरने के लिए कहा। गुरु की आज्ञा सुनते ही नौजवान आहिस्ता आहिस्ता पानी काटता हुआ गुरु के पास जाने लगा। हर बढ़ते कदम के साथ पानी का गहरापन महसूस हो रहा था। जब नौजवान गुरु के पास पहुंचा, तो पानी उसके गले तक पहुंच चुका था। गुरु ने बड़े प्यार से अपना सीधा हाथ नौजवान के सिर पर रखा। नौजवान को लगा जैसे गुरु उसे आशीर्वाद दे रहे है। वह बड़ा ही खुश हुआ। नौजवान जब खुशी के ख्यालो मेंं डूबा था, उसी वक्त गुरु ने हाथ का जोर बढ़ाते हुए नौजवान को पानी में दबोचा और डुबोया।
     इन अचानक घटना से नौजवान हक्का-बक्का रह गया। वह पानी के बाहर सिर निकालने के लिए तड़पने लगा। लेकिन जब भी नौजवान पानी से बाहर सिर निकालने की कोशिश करता, गुरु उसे फिर अंदर ढकेल देते। ऐसा थोड़ी देर चला। लेकिन जब गुरु को लगा कि जब नौजवान पानी के नीचे नहीं रह सकता तब उन्होने सिर पर का हाथ हल्के से निकाल लिया। नौजवान ने हड़बड़ाते हुए सिर पानी से बाहर निकाला। सिर बाहर निकलते ही सबसे पहले उसने गहरी सांस ली। डर के मारे उसका चेहरा नीला पीला पड़ गया था। अब वह गुस्से से लाल हो गया। चिल्लाकर उसने कहा, "शिक्षा देने का यह कौन-सा अजीब तरीका है? मैं तो शिक्षा लेने आया था। आपने तो मुझे सजा दे दी। मैं तो ज़िन्दगी बनाने आया था। आप तो मेरी ज़िन्दगी मिटाने को निकले थे। ये क्या मामला है?''
     गुरु ने नौजवान को बिना रोके-टोके उसकी सारी बातें सुनी और शांत स्वर में उसे कहा "बाकी बातें छोड़ दे। मुझे सिर्फ एक ही बात सच-सच बता दे। तू जब पानी के अंदर था, तब तुझे सबसे ज़्यादा किस बात की इच्छा हुई?' नौजवान ने बिना विलंब कहा," मेरे प्राण मुंह से निकलने को थे। मुझे प्राण-वायु चाहिए थी। सांस लेने के लिए मेरी जान तड़प रही थी। मैं बाकी सब भूल गया था। मैने सोचा शिक्षा गई जहन्नुम मे। जान बची तो लाखों पाए।
        गुरु ने कहा, "जितना तू सांस के लिए तड़पा, उतना ही प्रयास तू अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए करेगा, तो ज़िंदगी में जो चाहेगा वो पाएगा क्योंकि तीव्र इच्छा, दिल में लगी आग यानी प्रबल इच्छा ही सफलता का रहस्य है।' जब ऐसी ही तड़प तुम्हें परमात्मा को पाने की पैदा होगी तभी तुम उस परमात्मा को भी पा सकते हो। संकल्प पूर्ण हो, तो क्षण में भी ध्यान घटता है और संकल्पहीन चित्त जन्मों जन्मों तक भी भटक सकता है।

09.01.2016 भगवान बुद्ध


     एक दिन भगवान बुद्ध पांच सौ भिक्षुओं के साथ आलवी नगर आए। आलवी नगरवासियों ने भगवान को भोजन के लिए निंमत्रित किया। उस दिन आलवी नगर का एक निर्धन उपासक भी भगवान के आगमन को सुनकर धर्म-श्रवण के लिए मन किया। किंतु प्रातः ही उस गरीब के दो बैलों में से एक कहीं चला गया। सो उसे बैल को खोजने जाना पड़ा। बिना कुछ खाए-पीए ही दोपहर तक वह बैल को खोजता रहा। बैल के मिलते ही वह भूखा-प्यासा ही बुद्ध के दर्शन को पहुंच गया। उनके चरणों में झुककर धर्म-श्रवण के लिए आतुर हो पास ही बैठ गया। लेकिन बुद्ध ने पहले भोजन बुलाया। उसके बहुत मना करने पर भी पहले उन्होने जिद्द की और उसे भोजन कराया। फिर उपदेश की दो बातें कहीं। वह उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही रुाोतापत्ति-फल को उपलब्ध हो गया। भगवान के द्वारा किसी को भोजन कराने की यह घटना बिलकुल नई थी। ऐसा पहले कभी उन्होने किया न था और न फिर पीछे कभी किया। तो बिजली की भांति भिक्षु-संघ में चर्चा का विषय बन गई। अंततः भिक्षुओं ने भगवान से जिज्ञासा की। तो उन्होने कहा, भूखे पेट धर्म नही। भूखे पेट धर्म नहीं समझा जा सकता। भिक्षुओ, भूख के समान और कोई रोग नहीं है। और तब उन्होने यह गाथा कही-
""भूख सबसे बड़ा रोग है, संस्कार सबसे बड़े दुःख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है, वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।''
     भूख को सबसे बड़ा रोग कहा बुद्ध ने। क्यों? क्योंकि जब भूख प्रगाढ़ हो, पेट भरा न हो, तो सारी चेतना पेट के इर्द गिर्द ही घूमती है। जब शरीर भूखा हो तो चेतना-ऊंचाइयों पर उड़ ही नहीं सकती। शरीर के आसपास ही मंडराती है। एक सत्य तुमने देखा होगा, पैर में कांटा चुभ जाए तो फिर चेतना वहीं-वहीं घूमती है न! सिर में दर्द हो तो चेतना वहीं-वहीं घूमती है न! जहां पीड़ा हो, चेतना वहीं रुक जाती है।
     इसलिये हमारे पास जो शब्द है-वेदना, वह बहुत अद्भुत है। वेदना के दो अर्थ होते हैं, बोध और दुःख। वेदना बना है विद से, जिससे वेद बना है। इसलिए उसका एक अर्थ होता है, बोध, ज्ञान। और वेदना का दूसरा अर्थ होता है, दुःख, पीड़ा। एक ही शब्द के ये दो अर्थ और बड़े अजीब से। जिनका कोई तालमेल नहीं। लेकिन तालमेल है। जब दुःख होता है, तो वहीं सारा बोध संगृहीत हो जाता है। जहां दुःख है, वहीं बोध संगृहीत हो जाता है। फिर दुःख से हटना मुश्किल हो जाता है। अब जो आदमी भूखा है, उसके लिए शरीर ही शरीर दिखाई पड़ता है। कहां आत्मा की बातें। हम कहते हैं न! भूखे भजन न होहिं गोपाला। अब एक आदमी भूखा है, अगर भगवान की प्रार्थना भी करे, तो कुछ होगा नहीं। सारी प्रार्थना पर भूख छा जाएगी।
     इसलिए गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। ऐसा नहीं कि कोई गरीब व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। गरीब व्यक्ति चेष्टा करके अपवाद हो सकता है। लेकिन गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता है। ऐसा भी नहीं है कि समृद्ध समाज अनिवार्य रुप से धार्मिक हो जाएगा, लेकिन समृद्ध समाज की धार्मिक होने की संभावना है। ऐसा भी नहीं कि हर समृद्ध व्यक्ति धार्मिक हो जाएगा। लेकिन समृद्ध व्यक्ति की धर्म की तरफ उत्सुकता बढ़ने की ज्यादा संभावना है बजाय गरीब व्यक्ति के। जहां समृद्धि है, जहां पेट पूरी तरह भर गया है, वहीं आत्मा का खालीपन दिखाई पड़ने लगता है।
      हमारे भीतर तीन तल हैं-शरीर की ज़रुरते हैं, फिर मन की ज़रुरतें हैं, फिर आत्मा की ज़रुरतें हैं। शरीर की ज़रुरतें हैं-रोटी, रोज़ी, कपड़ा , मकान। फिर मन की ज़रुरतें हैं, संगीत, साहित्य, कला। अब जिसका शरीर भूख से व्याकुल है, वह शेक्सपियर पढ़ेगा? कैसे पढ़ेगा? कालिदास को समझेगा? कैसे समझेगा? शास्त्रीय संगीत सुन पाएगा? इधर पेट में भूख कचोटती होगी, शास्त्रीय संगीत नहीं समझ पाएगा, न सुन पाएगा। मन की ज़रुरतें। जब मन की ज़रुरते भी भर जाती हैं, शास्त्रीय संगीत में भी अब कुछ नहीं दिखाई पड़ता, वह संगीत भी चुक गया, अब किसी और बड़े संगीत की खोज शुरु होती है, तब ध्यान। एक ऐसे संगीत की खोज शुरु होती है जहां वाद्य की भी ज़रुरत नहीं रह जाती। एक ऐसे संगीत की खोज शुरु होती है जो भीतर बज ही रहा है, जिसको बजाना नहीं  पड़ता-अनाहत नाद-जो अपने से बज रहा है। ओंकार-तब आत्मा की ज़रुरतें शुरु होती हैं।
     तो महात्मा बुद्ध ने ठीक कहा कि ""भूख सबसे बड़ा रोग है। संस्कार सबसे बड़े दुःख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।'' उन्होंने उस भूखेआदमी को भोजन कराया। लेकिन यह बात एक ही दफा घटी है, यह भी ख्याल रखने जैसी बात है। ऐसा बुद्ध ने बार-बार नहीं किया। क्योंकि यह भूखा आदमी सिर्फ भूखा आदमी ही नहीं था, इस भूखे आदमी के भीतर बड़ी मुमुक्षा थी। यह बड़ी प्रगाढ़ता से आकांक्षा कर रहा था। परमात्मा के खोज की, सत्य के खोज की-या जो भी नाम दो। यह सिर्फ भूखा होता तो बुद्ध को इसमें कोई विशेष उत्सुकता नहीं थी। उत्सुकता इसलिए थी कि इसके भीतर एक और बड़ी भूख थी जो इस छोटी भूख के कारण दबी पड़ी थी। इसके भीतर एक भड़ी भूख का अंकुर फूट रहा था, जो नहीं फूट पा रहा था, क्योंकि यह छोटी भूख इसे खाए जा रही थी।
     यह सुबह ही से बुद्ध का ही स्मरण करता घूम रहा था। खोज रहा था बैल को, स्मरण कर रहा था बुद्ध का। इतनी जल्दी थी इसे कि घर से बिना खाए-पीए निकल पड़ा था कि जल्दी-जल्दी बैल को खोजकर बुद्ध के पास पहुँच जाऊं। फिर इतनी आतुरता थी कि बैल मिल गया तो उसे किसी तरह बांध-बूंधकर खेत-खलिहान में, भागा! घर नहीं गया कि दो रोटी खा ले। भागा! कि पहले बुद्ध को सुन लूं। इसकी धर्म की प्यास निश्चित प्रगाढ़ रही होगी।
     तुम तो छोटे-छोटे कारणों से चूक जाते हो। कभी ध्यान नहीं करते, क्योंकि कहते हो कि आज ज़रा शरीर स्वस्थ नहीं है। कभी कहते हो, आज ध्यान कैसे करें, घर में मेहमान आए हैं। कभी कहते हो, आज ध्यान कैसे करें, आज ज़रा दफ्तर में थक गए। आज कैसे ध्यान करें, आज कैसे ध्यान करें, तुम बहाने खोजते रहते हो। इस आदमी ने बहाना नहीं खोजा। इसके पास बहाने काफी थे-बैल खो गया, अब कहां बुद्ध के पास जाएं। बैल खोजें कि बुद्ध को खोजें। बात छोड़ देता। तुम होते तो बात ही छोड़ दिए होते। फिर बैल भी मिल गया होता तो कहता, अब दोपहरी भर थका-मांदा हूं, घर थोड़ा भोजन करुं, विश्राम करुं, फिर देख लेंगे, ऐसी जल्दी क्या है। और बुद्ध कोई भागे थोड़े ही जाते हैं।
     इसकी बड़ा प्रगाढ़ आकांक्षा रही होगी कि भूखा ही आ गया। इसका कुम्हलाया हुआ चेहरा, इसका भूखा पेट, यह थका-मांदा जब बुद्ध के चरणों में झुका होगा तो उन्होने देखा होगा-इसका शरीर ही भूखा नहीं है, इसकी आत्मा भी भूखी है। यह सच में ही---तो उन्होने बड़ी जिद्द की कि तू पहले भोजन कर। उसे भोजन कराया। भिक्षुओं में चर्चा की बात उठ ही गई होगी कि यह कौन विशिष्ट आदमी आ गया, एक गंवार सा किसान है बुद्ध इसमें क्या देख रहे हैं।
     जो कभी-कभी तुम्हें नहीं दिखाई  पड़ता, वह बुद्धों को दिखाई पड़ता है। क्योंकि तुम्हें तो हीरे तभी दिखाई  पड़ते हैं, जब जौहरी उन्हें साफ-सुथरा करके, निखारकर, पालिश करके रख देते हैं, तब दिखाई पड़ते हैं। बुद्धों को तो हीरे तब दिखाई पड़ जाते हैं जब वे पत्थर की तरह पड़े हैं। जब उनमें कोई चमक नहीं है। यह एक अनगढ़ हीरा था। यह चमक सकता था। यह पत्थर नहीं था।
     बुद्ध ने उसे भोजन कराया पहले, फिर उसे दो शब्द कहे, ज्यादा नहीं, और कथा कहती है कि उन दो शब्दों को, उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही वह रुाोतापत्ति-फल को उपलब्ध हो गया। रुाोतापत्ति-फल का अर्थ होता है, जो व्यक्ति बुद्ध की धारा में प्रविष्ट हो गया। जो बुद्ध की चेतना में प्रविष्ट हो गया। जो नदी में उतर गया। किनारे पर खड़ा था, उसने कहा, ठीक, अब मैं आता हूं, अब चलता हूं सागर की तरफ। रुाोतापत्ति। जो धारा में उतरा है वही तो सागर पहुँचेगा। वहां ऐसे लोग थे जो वर्षों से बुद्ध को सुन रहे थे और अभी रुाोतापत्ति-फल को उपलब्ध नहीं हुए थे। अभी किनारे ही पर खड़े सोच-विचारकर रहे थे, दुविधा में पड़े थे-करें कि न करें? जंचती भी है बात कुछ, नहीं भी जंचती है बात कुछ। इसने कुछ सोच-विचार न किया इसने तो बुद्ध के दो शब्द सुने और इसने कहा, बस काफी है। डूब गया। रुाोतापत्ति-फल का अर्थ होता है, डूब गया, डुबकी ले ली। बुद्धमय हो गया।

दूसरे के सुख में सुखी होना ही सुख है


आदमी अपने दुःख से उतना दुःखी नहीं होता। जितना दूसरे के सुख से दुःखी होता है। सच्चा मनुष्य वह है जो दूसरे के सुख में अपना सुख ढूँढ ले।
     यदि हम दूसरे के दुःख में दुःखी होते हैं और उसके सुख में भी सुख का अनुभव करते हैं, तो हम सच्चे मनुष्य हैं। इसके विपरीत यदि हम किसी के सुख पर दुःखी होते हैं, उससे ईष्र्या करते हैं और यह सोचते हैं कि जो सुख दूसरे को हासिल है, वह मुझे भी मिल जाए तो फिर हम दुःख के ही पात्र बनते हैं।
     अरब की एक मशहूर लोककथा है। दो अच्छे मित्र थे, उनमें एक अंधा था और एक लंगड़ा। चूँकि एक देख नहीं सकता था और दूसरा चलने में असमर्थ था। इसलिए दोनों एक-दूसरे की सहायता से भिक्षा मांगते और अपना गुजारा करते थे। दोनों में कई बार विवाद भी होता, लेकिन एक-दूसरे की ज़रूरत के कारण निपट जाता। एक दिन विवाद बहुत बढ़ गया और दोनों ने एक-दूसरे की पिटाई कर दी। कहते हैं दोनों की दशा देख भगवान को बड़ी पीड़ा हुई। भगवान ने सोचा, अंधे को आँखें और लंगड़े को पैर दे दिए जाएं तो दोनों सुखी हो जाएंगे। भगवान अंधे के समक्ष प्रकट हुए। यह सोचकर कि यह निश्चित रूप से अपने लिए आँखें मांगेगा, लेकिन जैसे ही भगवान ने पूछा- वत्स, कोई एक वर मांगो। इस पर अंधे ने कहा-भगवान, मेरे लंगड़े मित्र को अंधा भी कर दो। भगवान आश्चर्यचकित हो लंगड़े के पास पहुँचे, तो उसने कहा, हे भगवान! मेरे अंधे मित्र को लंगड़ा कर दो। घोर आश्चर्यचकित हो भगवान ने "तथास्तु' कहा और अंधा व्यक्ति लंगड़ा भी हो गया तथा लंगड़ा अंधा भी। दोनों पहले से भी दुःखी हो गए। इससे अच्छा होता कि अंधा अपने लिए आँखें और लंगड़ा अपने लिए पैर मांग लेता, तो इतना दुःख तो न होता।
  दरअसल, सांसारिक मनुष्य एक-दूसरे से घृणा, नफरत, ईष्र्या, करने में ही सारा जीवन बिता देते हैं, जबकि प्रेम, प्यार, शांति-सद्भाव से ज़िन्दगी को जीकर इस जीवन को सार्थक किया जा सकता है।

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

बाबा फरीद जी की गुरु भक्ति


        बाबा फरीद जी की माता ने उन्हें बचपन से ही परमात्मा की भक्ति में लगा दिया था। बहुत कम ऐसी माताएं संसार में हुई जिन्होंने अपने प्रिय बच्चों को इस त्यागमयी जीवन यानि प्रभु भक्ति में लगाया है उन माताओं में अधिकतर मदालसा, ध्रुव की माँ सुनीति, गोपीचन्द की माता एवं बाबा फरीद की माता का नाम लिया जाता है। रानी मदालसा सतयुग में हुर्इं। राजा मान्धाता की रानी थी। रानी मदालसा के चार पुत्र थे तीन को उसने सन्यासी बना दिया था। पलने में ही अपने बच्चों को जब लोरी देती थीं तो यह कहती थी कि तुम शरीर नहीं हो आत्मा हो। तुम्हारा संसार में आने का मकसद परमात्मा की प्राप्ति करना है। संसार नाशवान है। केवल परमात्मा का नाम सत्य है इत्यादि। इस प्रकार जब उसने एक एक करके तीनों पुत्रों को सन्यासी बना दिया तो राजा मान्धाता ने कहा कि ये क्या कर रही हो। ये राजपाट कौन सँभालेगा? कोई ऐसा भी तो होना चाहिये जो राजपाट सँभाले। तब मदालसा ने चौथे पुत्र को निष्काम कर्मयोग का पाठ पढ़ाया कि किस प्रकार संसार के कार्य व्यवहार करते हुये साथ साथ अपनी आत्मा को परमात्मा से भी मिलाना है। चौथे पुत्र का नाम अलर्क था जो बाद में निर्मोही राजा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोपी चन्द की माता ने भी अपने पुत्र को गुरु की शरण में भेज दिया था। ध्रुव की माता ने भी ध्रुव को जो केवल पाँच वर्ष का ही था, तो जंगल में तपस्या के लिये भेज दिया। इसी प्रकार ही बाबा फरीद की माता ने भी फरीद जी को बचपन से ही परमात्मा की भक्ति में लगा दिया। उन्हें नमाज़ पढ़ने के लिये प्रेरित करती और बाबा फरीद जी की चौकी के नीचे शक्कर रख देती कि अल्लाह की इबादत करने से अल्लाह खाने को शक्कर देता है। बाबा फरीद जी नमाज़ पढ़ने के पश्चात शक्कर पाकर प्रसन्न होते। एक दिन उन की माता शक्कर रखना भूल गई लेकिन बाबा फरीद जी को नमाज़ के बाद उस दिन शक्कर मिली और उस शक्कर का स्वाद कुछ अधिक था तो माता को भी चखाई कि आज की शक्कर तो बहुत स्वादिष्ट है। माता ने समझ लिया कि बच्चे में भक्ति के संस्कार प्रबल हैं। इसलिये उसने किशोर अवस्था में ही फरीद जी को परमात्मा की प्राप्ति के लिये भेज दिया। बाबा फरीद जी बारह वर्ष जंगली फल, पेड़ों के पत्ते आदि खाकर गुज़ारा करते रहे। बारह वर्ष बाद जब घर आये तो माता ने पूछा कि परमात्मा मिला? बाबा फरीद जी ने जवाब दिया कि नहीं। जंगली फल व पत्ते खाकर गुज़ारा किया लेकिन परमात्मा फिर भी नहीं मिला। माता ने फरीद जी के सिर में तेल लगाते समय उनका एक बाल खींचा तो फरीद जी को दर्द हुआ। माता ने पूछा कि जिस पेड़ के तुमने पत्ते तोड़े क्या उनको दर्द न होता होगा। जब किसी को तुम तकलीफ दोगे तो परमात्मा कैसे प्रसन्न हो सकता है। और तुम्हे कैसे मिल सकता है? इसलिये जाओ दोबारा तपस्या करो। फरीद जी फिर घोर तपस्या में लग गये। तपस्या करते करते एक दिन जिस वृक्ष के नीचे बैठे थे उस वृक्ष पर चिड़ियां शोर मचा रही थीं। अपने भजन में विघ्न समझ कर बाबा जी ने कहा क्यों मेरे भजन में विघ्न डाल रही हो जाओ मर जाओ। इतना कहना था कि चिड़ियां फड़ फड़ करके नीचे गिरीं और निष्प्राण हो गर्इं ये देखकर फरीद जी ने सोचा कि इन बेचारियों ने मेरा क्या बिगाड़ा था। नाहक इन्हें मार दिया और मां ने कहा था कि किसी को दुःख देने से परमात्मा नाराज़ होता है। इसलिये उन्होने कहा कि जाओ उड़ जाओ। इतना कहना था कि चिड़ियां फुर्र से उड़ गर्इं। यह देखकर फरीद जी ने समझ लिया कि मुझ में मारने और जिन्दा करने की शक्ति आ गई है। परमात्मा मुझ पर प्रसन्न है। मेरी तपस्या पूरी हो गई है। मैं पूर्णता को प्राप्त हो चुका हूँ।अपनी माता को बताने के विचार से घर की तरफ चल पड़े। रास्ते में उन्हें प्यास लगी, गाँव के एक कुएं पर गये जहाँ एक स्त्री जिसका नाम रंगरतड़ी था। कुएं में से पानी निकाल कर बाहर गिरा रही थी। बाबाजी ने उससे कहा कि दरवेश को प्यास लगी है, पानी पिलाओ। स्त्री ने बाबा जी की तरफ देखा, और कहा ज़रा ठहरो मैं अपना काम कर लूं, फिर आपको पानी पिलाती हूँ। फिर कूँए से पानी निकालकर बाहर गिराने लगी। फरीद जी ने कहा कि पानी निकाल कर गिराये जा रही हो और दरवेश खड़े हैं ज़रा भी ख्याल नहीं। दरवेश को पानी नहीं पिलाती। ये बात उन्होने ज़रा कड़े शब्दों में कही, तो वह स्त्री बोली सार्इं ये चिड़ियां नहीं हैं जिन्हें आप मार दोगे और जिन्दा कर दोगे। यदि आपके अन्दर इतनी शक्ति है तो देख लो मैं पानी क्यों बिखेर रही हूँ। फरीद जी सुन कर बड़े हैरान हुये कि यहां से लगभग बारह मील की दूरी पर मैने चिड़ियाँ मारी और जिन्दा की हैं उसे किसी ने देखा भी नहीं, इसे कैसे मालूम हो गया। जब वह स्त्री अपना काम कर चुकी तो उसने कहा सार्इं जी अब मेरा काम हो गया है। अब आप पानी पिओ, हाथ मुँह धोवो, और घर चलें भोजन तैयार है भोजन करके जाना। फरीद जी ने कहा बेटी कि अब मैं पानी बाद में पिऊँगा पहले मुझे ये बता कि तुझे कैसे पता चला कि मैनें चिड़ियां मारी और जिन्दा की हैं। और तेरा ऐसा कौन सा ज़रूरी काम था जो पानी निकालकर बाहर फैंक रही थी। उस औरत ने जवाब दिया कि मेरी बहन का घर यहाँ से बीस मील की दूरी पर है। उसके घर में आग लग गई है, और वह सत्संग सुनने के लिये गई हुई है, मैं उसके घर की आग को बुझा रही थी। अब वह बुझ चुकी है। बाबा फरीद जी ने कहा बेटी ये ताकत तुमने कैसे प्राप्त कर ली है, तेरे हाथों की मेंहदी भी अभी नहीं उतरी इतनी छोटी उम्र में तूने ये ताकत कहाँ से पाई है। रंगरतड़ी ने कहा आप दरवेश लोग हैं। धूनी रमा सकते हो, कठिन तपस्या कर सकते हा,े उल्टे लटक सकते हो, जंगली फल फूल खाकर गुज़ारा कर सकते हा,े लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकतीं। परमात्मा ने हमें पुरुषों की सेवा बख्शी है। मैं अपने पति को परमात्मा रूप समझकर उनकी सेवा करती हूँ। उसके प्यार में जीवित रहती हूँ। और वह श्रेष्ठ पुरुष मेरा पति भी हमेशा परमात्मा के भजन में लीन रहता है। उसकी निष्काम सेवा से मुझे ये शक्तियाँ सहज ही प्राप्त हो गई हैं। मैं पति वाली हूँ आपका कोई पति या मालिक नहीं है। एक बात मैं आप से पूछती हूँ कि घरबार छोड़ कर गये तो परमात्मा की प्राप्ति के लिये थे। पर शक्तियों के चक्र में फँस गये हो। मैं अपने पति के साथ अपने सतगुरु के दरबार में जाती हूँ, वहाँ सुनती हूँ कि करामात करना कुफ्र है, परमात्मा इससे नाराज़ होता है, करामात करने का फल दरगाह में भुगतना पड़ता है। आपने शक्तियों के चक्र में पड़कर समय बर्बाद कर दिया। बिना मुर्शिद के परमात्मा का पता नहीं चलता। उसका भेद नहीं मिलता। इसलिये अगर परमात्मा को पाना चाहते हो, तो कोई अल्लाह रूप मुर्शिद की तलाश करो उनसे मुहब्बत करो, उनकी खिदमत करो, जिससे तुम्हें अल्लाह से मिलाप हो जायेगा। मुर्शिद की कृपा से घट में अल्लाह का नूर प्रकट होगा। फरीद जी ने कहा जब तुम्हें इतना ज्ञान है तो मुझपर एक कृपा और कर, ये बता दे कि मेरा मुर्शिद मुझे कहाँ मिलेगा? कहते हैं तब उस रंगरतड़ी ने कहा कि आप अज़मेर शरीफ चले जाओ वहां कामिल मुर्शिद हज़रत मुईउद्दीन चिश्ती के अनन्य मुरीद हज़रत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी जी को अपना मुर्शिद बना लो। उन्हीं से तुम्हें अल्लाह का भेद मिलेगा। उसके मार्ग दर्शन से बाबा फरीद जी अज़मेर गये। मुर्शिद की शरण में गये उनसे नाम दीक्षा ली और नित्य प्रति अपने मुर्शिद को गर्म पानी से स्नान करवाया करते। अपने मुर्शिद की सेवा करते करते बारह वर्ष बीत गये परीक्षा की घड़ी भी आ गई। एक दिन बरसात बहुत अधिक होने के कारण जो आग उन्होने सँभाल कर रखी थी, वह बुझ गई। आजकल की तरह माचिस नहीं हुआ करती थी। आग को दबा कर रखा जाता था। उन्हें फिक्र हुई कि सुबह पानी कैसे गर्म होगा? आधी रात को ही उठे और नगर में आग लेने के लिये चलने को तैयार हुये। अपनी ऋद्धि सिद्धि से आग जला सकते थे, लेकिन ऋद्धि सिद्धि से परमात्मा नाराज़ होता है। उसकी नाराज़गी के कारण सिद्धि से आग न जलाई। सर्दी के दिन थे, बरसात हो रही है, सब नगर सो रहा है, क्या किया जाये। दूर किसी घर में दिया जलता नज़र आ रहा है जायें तो कैसे।  सोचने लगे।
                 जाये मिलाँ  तिनां  सजना  मेरा  टूटे नाही नेहु।
                 फरीदा गलियाँ चिक्कड़ घर दूर नाल प्यारे नेहु।।
                 चलाँ ताँ भिज्जे कम्बली रहाँ ताँ टूटे नेहु।
                 भिजो सिजो कम्बली अल्लाह बरसो मेहु।।
                 जाये मिलां तिना सज्जनां मेरा टुटे नाहिं नेहु।।
 कहने लगे गलियों में कीचड़ हो रहा है, बरसात हो रही है, सर्दी का मौसम आधी रात का समय अगर जाता हूँ, तो कम्बल भीगता है, ठन्ड लगती है, वृद्ध शरीर है, अगर नहीं जाता तो मुर्शिद से प्यार का नाता टूटता है। खड़े सोचते रहे आखिर फैंसला किया कि इस शरीर को रखकर क्या करेंगे। अगर मुर्शिद की राह में कुर्बान होता है तो होने दो एक न एक दिन तो इसे छोड़ना ही है। मेरी कम्बली भीगती है तो भीगने दो यदि शरीर जाता है तो जाये चाहे रहे। मुझे तो आग लाकर पानी गर्म करके अपने प्यारे मुर्शिद को स्नान कराना है। मेरा उनसे मुहब्बत का नाता नहीं टूटना चाहिये।आखिर चल दिये। एक मकान में दीपक जलता देखा तो आवाज़ लगाई कि अल्लाह के वास्ते मेरी बात सुनों में बहुत सन्ताप में हूँ मुझ पर रहम करो। आवाज़ सुनकर एक स्त्री ने अन्दर से ही कहा (वह घर वेश्या का था) उसने कहा, तू कौन है? इस समय सभी सोये पड़े हैं, तू क्या चाहता है? बाबा फरीद जी ने कहा कि मेरा नाम फरीद है। मैने अपने मुर्शिद को स्नान कराना है। मेरे पास जो आग थी वह बुझ चुकी है। मुझे थोड़ी सी आग दे दे। मुझ पर रहम कर तेरा एहसान मैं कभी नहीं भूलूँगा। खुदा तेरे पर बख्शिश करे। खुदा के वास्ते थोड़ी सी आग दे दे। वह बोली फरीदा यह घर पीरों-फकीरों मुरीदों के लिये नहीं है। यहाँ तो दोज़ख के टिकट बिकते हैं जिस घर के आगे तू खड़ा है आप पीर, मुरीद लोग इसे नफरत की निगाह से देखते हो, अति बुरा मानते हो, यहाँ सब कुछ मोल बिकता है। तू भी मोल दे के ले सकता है। आग मुफ्त नहीं मिलेगी तुझे उसके बदले में अपने शरीर का कोई अंग देना पड़ेगा। बाबा फरीद जी ने कहा
              ये तन गंदगी की कोठड़ी हरि हीरियों की खान।
              सिर  दित्यां  जे  हरि मिले ताँ भी सस्ता जान।।
यदि तू मेरा सिर भी माँगे तो मैं तेरे चरणों में रख दूँगा। पर मुझे आग दे दे। उस समय उस औरत ने कहा तू अपना सिर नहीं केवल अपनी एक आँख निकाल कर दे दे। और आग लेजा। बाबा फरीद जी ने कहा मुझे बहुत खुशी हुई कि तूने मुझपे रहम करके मेरा सिर नहीं माँगा। केवल एक आँख ही माँगी है। मैं तेरे हक में दुआ करता हूँ कि अल्लाह तुझे शान्ति बख्शे। और अपने प्यार मुहब्बत का एक कण तेरी झोली में भी डाल दे। बाबा फरीद जी ने अपनी आँख निकाल कर उसके हवाले कर दी अपनी पगड़ी फाड़ी और दर्द पीकर अपनी आँख पर बाँध ली। आग ले जाकर पानी गर्म किया। सुबह हुई जब मुर्शिद को स्नान कराने लगे तो मुर्शिद ने पूछा कि फरीद आँख पर पट्टी क्यो बाँध रखी है? फरीद जी ने कहा आँख आ गई है।(आँख आ गई का मतलब होता है दर्द करती है) तब मुर्शिद ने बड़ी प्रसन्नता के लहज़े में फरमाया कि आ गई है तो फिर बाँध क्यों रखी है? जब आ गई है तो आ ही गई है पट्टी खोल दे। पट्टी खोली तो आँख को पहले जैसी ठीक पाया। तब मुर्शिद ने अपने अंक में भर कर उऩ्हें ""अहम् ब्राहृ अस्मि'' बना दिया उनके ह्मदय में परमेश्वर ऐसे प्रकट हो गये जैसे अन्धेरी रात के बाद प्रकाश प्रकट होता है। परमात्मा का रूप उनके ह्मदय में झलकने लगा, वे मुर्शिद की कृपा से स्वयं परमात्म रूप हो गये।
   जो कुर्बानी देने से घबरा गया, भय खा गया, शरीर का जिसने मोह रखा। अपने आप को बचाने का जिसने प्रयास किया, वह तो मृत्यु को प्राप्त हो गया। आज उसका नाम पता भी नहीं मिलता। कई बार मरता जीता होगा। लेकिन जिसने शरीर का मोह त्यागकर सांसारिक कामनाओं को एक ताक पर रख कर, अपने सतगुरु की प्रसन्नता का, सच्चे नाम का सौदा कर लिया, सतगुरु की मुहब्बत में अपने जीवन को लगा दिया, वे अमर हो गये। अनेकों जीवों के अमर बनाने वाले बन गये। इसलिये कहा है कि--
      ये तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान।
      सीस दिये जो गुरु मिलें तो भी सस्ता जान।।

बुधवार, 6 जनवरी 2016

नारद जी का गुरु धारण करना
 
          निगुरा  हमको  न  मिले  पापी  मिलें हज़ार।।
          इक निगुरे के सीस पर लख पापियों का भार।।
     देवर्षि नारद जी के विषय में ऐसा प्रसिद्ध है कि अपने तप के प्रभाव से उन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि वे इस शरीर से ही वैकुण्ठ चले जाते थे। ऐसी शक्ति प्राप्त करके उनके ह्मदय में अहंकार प्रवेश कर गया था। एक बार देवर्षि नारद जी जब वैकुण्ठ गए तो भगवान विष्णु ने हमेशा की तरह उनका हार्दिक अभिनन्दन किया और उन्हें बैठने के लिये आसन दिया। भगवान विष्णु से कुछ देर वार्तालाप करने के उपरान्त जब नारद जी विदा हुए तो भगवान ने अपने अऩुचरों को बुलाया और जहाँ नारद जी बैठे थे, उस स्थान की ओर संकेत करते हुए कहा-नारद जी के बैठने से यह स्थान अपिवत्र हो गया है अतएव इस स्थान को अच्छी तरह धोकर पवित्र कर दो। अनुचर आज्ञा पालन में लग गए। इधर नारद जी को कोई बात याद आ गई। वे अभी दूर नहीं गए थे, अतः पुनः वापिस लौट आए, परन्तु अनुचरों को वह स्थान जहाँ वे बैठे थे, साफ करते देखकर विस्मय से खड़े रह गए। कुछ क्षण वे मौन खड़े रहे, फिर भगवान के चरणों में निवेदन किया-प्रभो! एक तरफ तो मेरा इतना सम्मान और दूसरी तरफ मेरा इतना अनादर कि जिस जगह पर मैं बैठा था उसे साफ कराया जा रहा है।
     भगवान ने कहा-नारद जी! यह ठीक है कि आप ज्ञानी, ध्यानी और वेदों-शास्त्रों के महान ज्ञाता हैं। यह भी ठीक है कि आप महान तपस्वी हैं और तपोबल से जब चाहें वैकुण्ठ आदि देवलोकों में आ-जा सकते हैं। आपको इसके लिए कोई  रोक-टोक नहीं है। परन्तु आपने  चूंकि अभी गुरू की शरण ग्रहण नहीं की, इसलिए हम आपको पवित्र नहीं मानते। यही कारण है कि जब आप यहाँ आकर बैठते हैं तो आपके जाने के बाद हम वह स्थान अपवित्र समझकर स्वच्छ एवं पवित्र करवाते हैं।
     नारदजी ने कहा-भगवन्! यह सत्य है कि मैने किसी को गुरु धारण नहीं किया, परन्तु तप साधना तो की है और उस तप-साधना द्वारा मैं आपको प्राप्त करने मे भी सफल हुआ हूँ। आपको प्राप्त करके क्या मैं पवित्र नहीं हो गया?
     भगवान ने कहा-नारद जी! यह ठीक है, कि तप साधना द्वारा वैकुण्ठ आने के आप अधिकारी हो गए हैं, परन्तु आपका यह कहना सरासर गलत है कि आप मुझे प्राप्त कर चुके हैं। आपकी साधना मनमति की साधना है, इसीलिए आपके अन्दर अहंता एवं अहंकार ने आसन जमा रखा है। इस अहंता-अहंकार के परदे ने अभी भी आपको मुझसे अलग कर रखा है। अहंता अहंकार के इस परदे को दूर करने के लिए ही गुरु की शरण में जाना आवश्यक होता है। नारद जी ने कहा-यदि गुरु की शरण में जाना इतना ही आवश्यक है तो फिर मैं आपको ही गुरु धारण कर लेता हूँ।
     भगवान ने कहा-मैं किसी प्रकार भी आपका गुरु नहीं हो सकता, क्योंकि मैं सूक्ष्म एवं निराकार हूँ, और आप स्थूल एवं साकार हैं। मनुष्य का गुरु जब भी होगा साकार ही होगा। साकार रूप गुरु से ही मनुष्य को परमार्थ का लाभ प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वह सेवक को अपने सान्निध्य में रखकर उसे भक्ति के भेद से परिचित करा सकता है। सूक्ष्म एवं निराकार भला मनुष्य को यह भेद कैसे समझा सकता है? इसीलिए सभी ऋषियों मुनियों ने साकार रुप गुरु की शरण ग्रहण करने और गुरु की भक्ति करने पर बल दिया है। इसके बिना न कोई मुझे प्राप्त कर सकता है और न ही किसी का परमार्थ सिद्ध हो सकता है। नारद जी ने निवेदन किया कि मैं किसको अपना गुरु बनाऊँ।
     भगवान ने कहा-आप कल प्रातःकाल गंगा जी के किनारे चले जाएं और जो मनुष्य सबसे पहले मिले, उसे ही अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा ले लें। इसीमें आपकी भलाई है। भगवान की आज्ञा लेकर नारद जी विदा हुए और मत्र्यलोक में आए। उनके मस्तिष्क में सारी रात भगवान विष्णु की बातें ही गूँजती रहीं। प्रातः होते ही वे गंगा जी की ओर चल पड़े। गंगा जी के निकट पहुँच कर क्या देखते हैं कि एक धीवर (मछुआरा) कन्धे पर जाल रखे सामने से आ रहा है। उसे देखते ही नारद जी ने अपने माथे पर हाथ मारा और मुँह में बड़बड़ाते हुए कहा-यह कैसा अपशकुन हुआ! भगवान ने तो कहा था कि सबसे पहले जो मनुष्य मिले, उसे ही गुरु धारण कर लेना, परन्तु सबसे पहले तो यह धीवर ही मिला, तो क्या इसे ही गुरु बनाना पड़ेगा? यह अपढ़, गंवार धीवर मुझ जैसे ज्ञानी, ध्यानी का गुरु कैसे हो सकता है? यह भला मुझे क्या ज्ञान देगा? यह सोचकर वे उलटे पाँव लौट चले। जैसे ही वे वापिस मुड़े कि पीछे से आवाज़ आई -यह नारद भी कैसा नासमझ और अज्ञानी है, क्योंकि इसे भगवान की बात पर भी विश्वास नहीं। भगवान के समझाने पर आया था गुरु धारण करने, परन्तु इसमें तो अहंता-अहंकार कूट-कूटकर भरा हुआ है। कानों में ये शब्द पड़ते ही नारद जी ठिठक गए। कुछ पल इन शब्दों पर विचार करते रहे फिर लौटकर निवेदन किया-गुरुदेव। मुझे क्षमा करें और अपनी शरण में लीजिए। धीवर ने उसे गुरु-दीक्षा देकर विदा  किया। नारद जी सीधे वैकुण्ठ पहुँचे। उन्हें देखकर भगवान विष्णु बोले। नारद जी! गुरु मिले? नारद जी ने उत्तर दिया-प्रभो! मिले तो सही पर--। भगवान ने उनकी बातबीच में ही काटते हुए कहा-""पर'' शब्द कहने का अर्थ है कि आपने मेरे कहने से गुरु धारण किया, परन्तु आपकी अपने गुरु में श्रद्धा एवं निष्ठा नहीं है। श्रद्धा रहित मनुष्य के लिए परमार्थ की दृष्टि से आपका सब किया-कराया व्यर्थ हो गया। अब तो आपको चौरासी अवश्य भुगतनी पड़ेगी। नारद जी से थोड़ी सी भूल हो गई जो गुरुदेव जी के सन्दर्भ में उन्होने "पर' शब्द लगा दिया-इस पर भगवान बोले कि ऐ नारद! तुमने गुरु के प्रसंग में "पर' शब्द का प्रयोग गिया है। इसलिये तुम्हें चौरासी भुगतनी होगी। नारद् जी ने प्रार्थना की भगवन! इस दुःख से छूटने का उपाय क्या होगा? श्री भगवान ने कथन किया कि ""चौरासी देना तो मेरा काम है और उससे छुटकारा दिलाना केवल सद्गुरु का काम है।''
     कहु नानक प्रभ इहै जनाई। बिन गुरू मुकति न पाइये भाई।।
इसलिये तुम श्रद्धा और नम्रतापूर्वक सद्गुरुदेव जी की शरण में जाओ और वे जैसे कहें उनके वचन का अक्षरशः पालन करो। तब चौरासी की यातना से निस्तार हो सकता है अन्य कोई उपाय नहीं है। नारद जी बुद्धिमान थे। मन की तुला पर लगे तोलने-एक तरफ रखा चौरासी भोगने का दुःख और दूसरी तरफ रखा सद्गुरुदेव जी की आज्ञा में रहने के नियम को। और समझ लिया कि यह तो अपार लाभ का व्यापार है। मैं श्री गुरुदेव जी की आज्ञा के परिपालन से काल की जन्म जन्मान्तरों तक की पाबन्दी के दुःखों से छूट जाऊँगा। यह विचार कर अत्यन्त श्रद्धा भाव से श्री गुरुदेव जी के समीप गये। उनके चरण कमलों में पहुँच कर उन्हें साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और श्री गुरुदेव जी का हुक्मनामा पाकर उठे और विनय की कि मैं भूलनहार हूँ, आप क्षमाशील हैं, मेरी भूलचूक के लिये क्षमा करें। मुझसे जो अपराध हुआ है उसके बदले भगवान ने मुझे चौरासी भोगने का दण्ड दिया है। आप ही उससे छुड़ाने में समर्थ हो। आप ही युक्ति से मुक्ति दे सकते हो।
विशेषः- जब नारद जी श्री गुरुदेव जी के निकट जा रहे थे तो उनके गुरुमहाराज जो धीवर थे उन्हें मार्ग में मिल गये और नारद जी ने उसी जगह ही जहां धूलि बिछी थी दण्डवत् प्रणाम कर दिया। दैववश वहां एक फैशनेबल सज्जन खड़े थे उन्होने नारद जी से कहा कि भूमि पर धूलि में लेट जाना कौन सी सयानप है? नारद जी ने उससे कहा कि तुम ही बताओ कि सतगुरुदेव भगवन जी के पवित्र चरण कमलों में दण्डवत् करने से काल के आगे बार बार जन्मों तक नाक रगड़ने से जीवन बच जाता है। थोड़ी सी नम्रता दिखलाने से महान कष्ट कट जाये तो कौन सी बुरी बात है? तब वह पुरूष क्षमा मांगने लगा और  कहने लगा कि भक्तों और सन्तों से अधिक बुद्धिमान तीनों लोकों के अन्दर और कोई नहीं क्योंकि वे ही लाभ-हानि को पूरी तरह पहचानते हैं।
     श्री गुरुदेव जी ने नारद जी की श्रद्धा व नम्रता को देखकर बड़ी प्रसन्नता पूर्वक कहा कि नारद! गुरुदेव ने हँसते हुए कहा-तुम फिर विष्णुलोक जाओ और भगवान से कहो कि जो चौरासी मैने भोगनी है, उसका नक्शा बना कर दिखला दो जब वे नक्शा तैयार कर दें तो तुम उस पर लोट-पोट हो जाना। जब भगवान ऐसा करने का कारण पूछें तो उत्तर देना चौरासी भोग रहा हूँ, क्योंकि वह चौरासी भी आपकी बनाई हुई है और यह भी आपने ही बनाई है। भगवान की कृपा से तुम्हारी चौरासी एक पल में ही कट जायेगी। यह हमारा आशीर्वाद है। श्री गुरुदेव का आशीर्वाद पाकर नारद जी श्री भगवान जी के पास पहुँचे और आज्ञानुसार श्री भगवान से चौरासी का नक्शा बना कर दिखाने की विनय की जब वह मानचित्र पूर्ण हुआ तो नारद जी उसमें लेटनी लगाने लगे। श्री भगवान जी ने पूछा-नारद! तुम यह क्या कर रहे हो? धूलि में क्यों लेट रहे हो? नारद जी ने उत्तर दिया कि मैं गुरूदेव जी की आज्ञा मानकर थोड़ी देर मिट्टी में लेटने से यदि चौरासी कट जाये तो यह बड़े लाभ का सौदा है। श्री गुरुदेव जी ने आशीर्वाद देकर कहा है कि ऐसा करने से श्री भगवान तुम्हारी चौरासी क्षमा कर देंगे-अतएव मैं चौरासी भुगत रहा हूँ। श्री भगवान ने कथन किया कि श्री सद्गुरुदेव जी के वरदान को तो हम भी नहीं मिटा सकते। ये अधिकार तो उनको हैं जो शरण में आए हुए किसी के भी जन्म जन्मान्तर के दुःख एक पल में काट देते हैं।
     गुरु की टेक रहहु दिन रात। जाकी कोई न मेटे दात।
इसलिये हे नारद जी तुम बड़े भाग्यवान हो जो गुरु भक्ति की सरल राह को अपना कर अऩेक जीवों के लिये मार्ग बना रहे हो इस पथ पर जो चलेगा उसको इस लोक में भी सुख मिलेगा। और उसका परलोक भी सँवर जायेगा।
     इह लोक सुखी परलोक सुहेले। नानक हर प्रभ आपहि मेले।
तब भगवान बोले-नारद जी! आपने देखा कि गुरु ने कितनी सुगमता से आपकी चौरासी भोगने से बचा लिया। अब की बार नारद जी गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए तो उनके दिल की अवस्था बदल चुकी थी। अब उनके दिल में गुरुदेव के प्रति पूर्ण श्रद्धा थी। उन्होने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक गुरुदेव के चरणों में दण्डवत्-प्रणाम किया। गुरुदेव ने उसके ह्मदय की अवस्था को जानकर कहा-अब तुम वास्तव में ही गुरुमुख बन गए हो और तुम्हारे दिल में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा उत्पन्न हो गई है। अब बैठ जाओ और आँखें बन्द करके अपने अन्दर गुरु का ध्यान करो।
    नारद जी ने आँखें बन्द करके गुरु का ध्यान किया तो अहंता-अहंकार के सब आवरण छिन्न-भिन्न हो गए और घट में निर्मल प्रकाश फैल गया। उस प्रकाश में नारद जी को गुरुदेव के ज्योतिर्मय स्वरुप के दर्शन हुए। गुरुदेव के इस अलौकिक स्वरूप के दर्शन कर वे आत्म विभोर हो गये। तभी अपने अन्दर उन्हें गुरुदेव कीआवाज़ सुनाई दी-नारद! तुम गुरु को अपढ़ समझ रहे थे, परन्तु स्मरण रखो कि गुरु परमपुरुष अथवा परमतत्त्व है। यही गुरु का वास्तविक स्वरुप है, इसलिये गुरु के अस्तित्व में तनिक भी सन्देह करना अथवा अश्रद्धा रखना कदापि उचित नहीं। अब तुमने गुरु के वास्तविक स्वरुप को जान लिया, इसलिये अब तुम निगुरे नहीं रहे, अपितु गुरुमुख बन गए हो। अब तुम जहाँ बैठोगे, वह स्थान पवित्र समझा जाएगा। नारद जी ने आँखें खोलीं। गुरुदेव को सम्मुख देखकर उन्होंने दण्डवत-वन्दना की, तत्पश्चात हाथ जोड़कर निवेदन किया गुरुदेव! मुझपर अपनी कृपा दृष्टि सदा बनाये रखें। तब गुरुदेव ने नारद जी को भक्ति के गहन रहस्य विस्तार से समझाये। भक्ति का वास्तविक भेद प्राप्त करके उनका जीवन धन्य हो गया। तत्पश्चात उन्होंने ""भक्ति सूत्र'' की रचना की जिसमें भक्ति-तत्त्व पर बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला गया है। अभिप्राय यह कि भक्ति-मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु पुरुष के लिए सद्गुरु की शरण ग्रहण करना परमावश्यक है। श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ सद्गुरु के वचनों पर आचरण करके ही मनुष्य इस मार्ग पर सफलता प्राप्त कर सकता और अपना जीवन धन्य बना सकता है।

सोमवार, 4 जनवरी 2016

जीवन निर्माण के सूत्र

जो निजी स्वार्थ के लिए कार्य करता है वह अकेला रहता है उसे कोई साथ नहीं देता। जो अन्य के लिये कार्य करता है उसकी मदद के लिए भगवान की शक्तियां साथ हो जाती हैं और जो परमार्थ के लिए कार्य करता है उसकी मदद के लिए स्वयं भगवान आ जाते हैं।