रविवार, 28 फ़रवरी 2016

धीरज


          धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
          माली सींचै केवड़ा,ऋतु आये फल होय।।
ये वचन परमसन्त श्री कबीर साहिब जी के हैं जो सत्य हैं उनका कथन है किः- ऐ मन!धैर्य धारण कर। धैर्य से ही सब कार्य सिद्ध हो जायेगा। माली यदि पौधे को पानी की जगह केवड़े से भी सींचे इस आशा से कि पेड़ अधिक प्रसन्न हो जायेगा और फल जल्दी दे देगा अथवा उचित जल न देकर सैंकड़ों घड़े पानी दे डाले-परन्तु विधि के विधान केअऩुसार उस वृक्ष पर फल तो नियत ऋतु में ही आएँगे पहले नहीं। सन्त मत का सिद्धान्त है कि दयालु भगवान ने यह कर्तव्य दैव पर छोड़ दिया है। हर एक व्यक्ति का भाग्य उसी की झोली में डाल देवे। विधि तो भूल नहीं करता। किन्तुअशान्त और अधीर लोग धैर्य नहीं करते और शीघ्र अति शीघ्र फल की याचना करते हैं।आप कोई भी उदाहरण ले लो जल्दी का फल नीरस ही निकलता है।आम को ही समय से पूर्व तोड़कर देख लो वह मीठे की जगह खट्टा ही मिलेगा।इसलिये सब कार्यों में धैर्य और विधि-विधान को छोड़ कर जो शीघ्रता करता है वह अपने लिये अशान्ति मोल लेता है। सन्त इन उदाहरणों से समझाते हैं कि धैर्य का फल मधुर होता है। किस काम के करने मे अधीर नहीं होना चाहिये। उतावला सो बावला। यह कहावत ठीक है इसी तथ्य की पुष्टि निम्नलिखित दिए हुए दोनों उदाहरणों से मिलती है।
     एक मनुष्य भवन बना रहा था।जब उसकी छत पड़ने का समय आया तो सैंटरिंग होने के बाद लिंटल पड़ गया। वास्तुकार ने कहा कि इसे ग्यारह दिन के बाद खोलना।एक उतावले व्यक्ति ने उसे तीन दिन के बाद ही खोल दिया।फल यह हुआ कि उस मकान की छत नीचेआ पड़ी। परिणाम यह निकला कि वह जितनी जल्दी सुखी होना चाहता था उतनी ही देर के लिये सुख उससे दूर हो गया। जिससे वह पुरुष महीनों तक दिन भर में भी धूप में ही जलता रहा।छाया तो उसे क्या ही मिलनी थी।
     एक कुम्हार किसी गाँव में कोयला खरीदने गया था। एक अतिथि उसके घर पर आयाऔर उसकी पत्नी से पूछा कि वह सज्जन कहां गया है और कब आवेगा?वह क्योंकि बड़ी भक्तिमति थी। धैर्य और अधैर्य के परिणाम को समझती थी। उसने उत्तर दिया यदि वह धीरता से आया तो आज सायं तक आ जायेगा यदि उतावली करेगा वह देर से लौटेगा।वह अतिथि ठहर गया सन्ध्या हो गई। रात्री भी आ गई किन्तु गृह स्वामी न लौटा। अतिथि वहीं रुका रहा। कई दिनों के बाद जब वह घर आया तो अतिथि ने पूछा कि,इतने दिन कहां लगाये? उसने प्रत्युत्तर दिया कि हमें कोयलों की आवश्यकता थी।उसके लिये एक जंगल में जाकर लकड़ियाँ मोल लीं।उन्हें कटवायाऔर भट्ठी में जलाकर उनका कोयला बनवाया। भूल हमसे यह हो गई किअभी वह कोयला पूरा बुझ भी न पाया था कि उसे गाड़ियों में तुरन्त ही भरवा दियाऔर घर की ओर चल पड़े।परिणाम यह हुआ कि क्योंकि वह कोयले अभी अध जले थे वे धीरे धीरे सुलगने लगे। हम सबऔर हमारे श्रमिक लोग भी थके मांदे थे। हमारीआँख लग गई-जब जागे तो क्या देखा कि बोरियों में तो प्रचण्ड अग्नि लग गई है-तत्काल उठे गाड़ियाँ खाली कींऔर महाकठिनाई के साथ आग को शान्त किया-उन कोयलों को पुनः पूरी तरह ठंडा किया कि कहीं आग दोबारा न जल उठे। इसलिये हमें इतना विलम्ब हो गया। यदि हम उतावली न करते तो एक सप्ताह पहले घर पहुँच जाते।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

मेरी आँखों ने मेरी पोल खोल दी


एक बार सन्त बुल्लेशाह किसी ऐसी सभा में बैठे थे। जहां भगवच्चर्चा हो रही थी। अकस्मात उनके मुख से यह बात निकली कि यदि कहीं से पारमार्थिक भेद मेरे हाथ लग जाय,तो उसे कभी प्रकट न होने दूँ। किन्तु जब उन्हें प्रभु-कृपा से सन्त इनायतशाह साहिब की शुभ संगति प्राप्त हुई तो उनपर प्रभु-प्रेम का ऐसा गहरा रंगचढ़ा कि उनके रोम-रोम सेमालिक के नाम के स्वर गुँजरित होने लगे। एकदिन आपकी मुलाकात उसी प्रेमी से हो गई,जिससे आपने ये शब्द कहे थे कि ,""यदि मैं पारमार्थिक भेद अथवा प्रभु-प्रेम की निधि पा जाऊं तो उसे कभी प्रकट न होने दूँ।'' आपने उससे हीभगवच्चर्चा आरम्भ कर दी और खूब मस्ती में आकर प्रेमाश्रु बहाते हुये मालिक की महिमा गायन करने लगे। जब काफी समय बीत गया तो एकान्त पाकर उस व्यक्ति ने  बुल्लेशाह  को उनके शब्द स्मरण कराते हुए कहा कि आप तो कहते थे की पारमार्थिक भेद को प्रकट न होने देंगे और उसे आम लोगों से छुपा कर रखेंगे, परन्तु अब तो आप मुनादी देते फिर रहे हैं। बुल्लेशाह ने मुस्कराकर उत्तर दिया-भाई! क्या करूँ! मेरे दो शत्रुओं ने मेरी पोल खो दी ही। एक मेरी आँखों के अश्रुओं ने और दूसरे मेरी जिह्वा ने। इन दोनों ने मेरे अन्दर के आत्मिक धन की मुनादी देना आरम्भ कर दी है। अब प्रयत्न करने पर भी मैं आत्मिक धन के रत्न-जवाहर छुपा कर नहीं रख सकता। सतपुरुषों का फरमान हैः-
      ऐसा नामु रतनु निरमोलकु पुँनि पदारथ पाइआ।।
      अनक जतन करि हिरदै राखिआ रतनु न छपै छपाइआ।।

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

प्रत्येक अवस्था में भजन आवश्यक


      राम भगति  एहि तन  उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी।।
      तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु वेद भजन नहिं बरना।।
अर्थः-चूंकि मुझे इसी प्रकार शरीर से मेरे ह्मदय में मालिक की भक्ति उत्पन्न हुई, इसी से हे स्वामी!यह मुझे परम प्रिय है। मेरा मरण अपनी इच्छा पर है, परन्तु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता, क्योंकि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं होता।
     तीसरी पादशाही श्री गुरुअमरदास जी को वृद्धावस्था में गुरु-गद्दी मिली। एक बार मुसलमान दरवेश उनके दर्शनों को आये,देखा तो वे भजनाभ्यास में लीन थे, फकीर जी प्रतीक्षा में बैठ गये कि जब वे भजन से उठेंगे तो वार्तालाप करेंगे।कुछ देर के पश्चात जब श्री गुरु अमरदास जी भजन से उठे उन मुसलमान दरवेश ने प्रश्न किया-महाराज! अब तो आप पदवी के मालिक हैं,अबआपको भजन करने की क्या आवश्यकता है? श्री गुरु अमरदास जी ने एक प्रमाण देकर समझाया कि एक गरीब मनुष्य को मिट्टी छानने की आदत थी। वह किसी न किसी मार्ग पर बैठ कर प्रतिदिन मिट्टी छाना करता था। एक दिन उसको मिट्टी में से लाल मिल गया,जो लाखों के मूल्य का था।लाल को पाकर वह धनवान तो बन गया,परन्तु मिट्टी छानने के काम को उसने फिर भी न छोड़ा। किसी ने पूछा-भाई! अब तो तुम सेठ बन गये हो, अब मिट्टी किसलिये छानते हो? उत्तर मिला कि मिट्टी से मुझे लाल मिला है, इसलिये मेरा  इसके साथ प्यार है।यह उदाहरण देकर श्रीगुरुअमरदास जी ने फरमाया-फकीर सार्इं!मुझपर जोअपने सद्गुरुदेवजी की कृपा हुई है,वह इसी सेवा भजन के कारण ही हुई है।और आपको यह भी ज्ञात हो कि सतपुरुषों की सेवा भी दो प्रकार की है-एक सूक्ष्म और दूसरी स्थूल। स्थूल सेवा तो वह है जो आज्ञा और मौज अनुसार शरीर द्वारा की जाती है और सूक्ष्म सेवा वह है जो उनके पवित्र आदेशानुसार हर समय सुरत-साधना का अभ्यास किया करते हैं। इससे हमें उनकी दैवी प्रसन्नता प्राप्त होती रहती है। यही कारण है कि हमेंभजनाभ्यास से प्यार है।यह सुनकर उस दरेवश ने श्रीगुरुमहाराज जी के चरणों में सिर झुकाकर नमस्कार किया।

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

सतसंगत आधी घड़ी, तप के बरस हज़ार।


          सतसंगत आधी घड़ी, तप के बरस हज़ार।
          तो भी नहीं बराबरी, कह्रो सुकदेव विचार।।
     गर्भयोगीश्वर महामुनी शुकदेव जी भलीभाँति विचार कर जीवों के कल्याण के लिये कथन करते हैं कि यदि एक पलड़े में आधी घड़ी के सतसंग का पुण्य और दूसरीओर सहरुा वर्षों के तप का पुण्य रखा जाये, तो भी सतसंग का पलड़ा ही भारी रहेगा। अर्थात् सहरुा वर्ष का तप भी आधी घड़ी के सत्संग की तुलना नहीं कर सकता।सत्संग की इतनी बड़ी महिमा है।
      एक बार महर्षि वसिष्ठ जी भ्रमण करते हुए महर्षि विश्वामित्र जी के आश्रम पर पधारे। महर्षि विश्वामित्र जी ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और आतिथ्य में अपने एक सहरुा वर्ष के तप का फल उन्हेंअर्पित किया। कुछ दिनों के उपरांत महर्षि विश्वामित्र जी वसिष्ठ जी के आश्रम पर गये। महर्षि वसिष्ठ जी ने भी उनका बड़ा आदर सत्कार किया और आतिथ्य में उन्हें आधी घड़ी के सतसंग का पुण्य अर्पित किया। महर्षि विश्वामित्र जी को तो अपने तप का बड़ा अहंकार था। तप की तुलना में सत्संग को तो वे कोई महत्व ही नहीं देते थे,अतः वसिष्ठ जी केव्यवहार से उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने मन ही मन विचार किया कि मैने तो इऩ्हें एक सहरुा वर्ष के तप का पुण्य अर्पित किया था और यह मुझे सतसंग का पुण्य दे रहे हैं, वह भी आधी घड़ी के सत्संग का। क्या इनका ऐसा करना उचित हैं?
     यद्यपि मुख से उन्होने इस विषय में कुछ न कहा, परन्तु मनुष्य का चेहरा तो ह्मदय का दर्पण होता है।मनुष्य लाखअपने भावों को छिपाने का प्रयत्न करे, उसका चेहरा सब कुछ प्रकट कर देता है। महर्षि विश्वामित्र जी के ह्मदय के भाव भी छिपे न रह सके, उनके चेहरे पर रोष के चिन्ह झलक उठे।महर्षि वसिष्ठ जी को समझते देर न लगी कि विश्वामित्र जी के चेहरे पर ऐसे भाव क्यों उभरें हैं?अतएव उन्हें शान्त करने के लिए महर्षिवसिष्ठ जी ने सत्संग की महिमा बखान कीऔरअनेकों प्रमाण देकर उसे तप से श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न किया। किन्तु महर्षि विश्वामित्र उनके विचारों से तनिक भी सहमत न हुए। उन्होंने कहा-तप की तुलना में सतसंग का कोई मूल्य नहीं। तप ही श्रेष्ठ है।
     इस प्रकार काफी समय तक दोनों महर्षि दलीलों द्वारा अपने अपने पक्ष को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे। जब काफी देर वाद-विवाद हो चुकाऔर दोनों किसी परिणाम पर न पहुँचे तब महर्षि वसिष्ठ जी ने कहा-मैने जो आधी घड़ी के सत्संग का फल आपको अर्पित किया है, मेरी दृष्टि में यद्यपि वह  सहरुा वर्ष के तप से बढ़कर है, परन्तु आप ऐसा नहीं समझते।वाद-विवाद से तो यह मसला हल होने से रहा,क्यों न किसीअन्य से इसका निर्णय करा लियाजाये?आपस में वाद-विवाद करने से क्या लाभ?महर्षि विश्वामित्र इस बात पर सहमत हो गये। ऋषियों मुनियों की सभा बुलाई गई, परन्तु ब्राहृर्षियों के विवाद का निर्णय ऋषि-मुनि करें,यह कहाँ सम्भव था? जब वहाँ निर्णय न हुआ तो दोनों ने ब्राहृा जी के पास जाने का निश्चय किया। दोनों ब्राहृलोक पहुँचे और पूरी बात बतला कर इस विषय में ब्राहृा जी से अपना निर्णय देने के लिये कहा। ब्राहृा जी ने मन में सोचा कि ये दोनों ही ब्राहृर्षि हैं।मैं जिसके पक्ष में निर्णय दूँगा वह तो प्रसन्न हो जायेगा, परन्तु जिसके विपरीत निर्णय होगा, उसके कोप का भाजन तो मुझे ही बनना पड़ेगा।इसलिये इनके विवाद में पड़ने की अपेक्षा उन्हें किसी अन्य के पास भेज देना ही उचित है। यह सोचकर उन्होने कहा-सृष्टि के कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण सतसंग तथा तप आदि विषयों की गहनता पर विचार करने का कभी मुझे अवसर ही नहीं मिला,इसलिये इस विषय में किसी प्रकार का निर्णय देने में मैं पूर्णतया असमर्थ हूँ। आप लोग शिवजी के पास जायें। वे तपीश्वर हैं, अतः वे ही इसका निर्णय भली प्रकार कर सकते हैं।
     दोनों महर्षि कैलाश पर्वत पर शिवजी के पास पहुँचेऔर उन्हें सारी बात बताई। शिवजी ने भी उनके झगड़े में पड़ने की अपेक्षा उन्हें टालना ही उचित समझा,अतः उन्होने कहा- जब से मैने हलाहल का पान किया है, तब से मेरा चित्त स्थिर नहीं है। जब तक चित्त स्थिर न हो, तब तक किसी विषय पर निर्णय देना कठिन ही नहीं असम्भव है। इसलिये आप लोग भगवान विष्णु से अपने विवाद का निर्णय करायें, वही इसका सही
निर्णय कर सकते हैं। महर्षि वसिष्ठ तथा महर्षि विश्वामित्र वहां से चल कर विष्णु लोग पहुँचेऔर अपना विवाद उनके समक्ष प्रस्तुत कर निर्णय देने के लिये कहा। भगवान विष्णु नेत्र मूँदकर कुछ देर न जाने क्या सोचते रहे, फिर प्रकट में बोले-सतसंग और तप का महात्मय वही जान सकता हैऔर इन दोनों में कौनसा साधन श्रेष्ठ है,इस बात का निर्णय भी वही कर सकता है, जो स्वयं इन साधनों में लगा हुआ हो। मेरा तो इनसे परिचय ही नहीं है, फिर भला इनका निर्णय मैं कैसे कर सकता हूँ। मेरे विचार में इनका निर्णय करने में शेष जी ही समर्थ हैं। वे मस्तक पर पृथ्वी उठाये निरन्तर तप करते रहते और अपने सहरुा मुखों से सत्संग करते रहते हैं। इसलिये आप दोनों उन्हीं के पास जायें तो ठीक रहेगा। दोनों महर्षि शेष जी के पास पाताल जा पहुँचे।उनका विवाद सुनकर शेष जी बोले-आप दोनों महानुभाव देख ही रहे हैं कि सम्पूर्ण पृथ्वी का बोझ मेरे मस्तक पर है। इस बोझ के होते हुये किसी विषय पर विचार करना और फिर उसपर अपना सही निर्णय देना मेरे  लिये असम्भव है।आपमें से कई अपने प्रभाव से इस पृथ्वी को कुछक्षण के लिये अधर में रोक ले जिससे कि मैं स्वस्थ चित्त होकर इस समस्या पर कुछ विचार कर सकूं।
     महर्षि विश्वामित्र को अपने तप का अभिमान तो था ही और उन्हें विश्वास भी था कि इस विवाद में विजय उन्हीं की होगी, अतः उन्होने तुरन्त अंजलि में जल लेकर संकल्प करते हुये कहा-मैं अपने एक सहरुा वर्ष के तप का फल अर्पित करता हूँ,पृथ्वी कुछ समय के लिये आकाश में स्थिर रहे।किन्तु पृथ्वी अपने स्थान से टस से मस न हुई।तब शेष जी ने महर्षि वशिष्ठ जी की ओर देखकर कहा-आप ही इस पृथ्वी को अधर में स्थिर करें ताकि मैं स्वस्थ चित्त होकरआपकी समस्या पर विचार कर सकूँ।ब्राहृर्षि जी अंजलि में जल लेकर संकल्प  करते हुये बोले-मैं आधी घड़ी के अपने सत्संग का पुण्य अर्पित कर निवेदन करता हूँ, पृथ्वी देवी कुछ क्षणअधर में टिकी रहें।उनके ऐसा कहते ही पृथ्वी शेष जी के फणों से ऊपर उठकर निराधार स्थित हो गई। आधी घड़ी का सत्संग श्रेष्ठ है अथवा सहरुावर्ष का तप-इसका निर्णय अपनेआप ही हो गया,शेषजी को कुछ कहने कीआवश्यकता ही नहीं पड़ी।सत्संग का स्पष्ट प्रताप देखकर विश्वामित्र जी वसिष्ठ जी के चरणों में नतमस्तक हो गये। उन्होंने सत्संग की महानता स्वीकार कर ली।
     ऐसा महान प्रताप है सतसंग का। यही कारण है कि सभी सद्ग्रन्थों एवं सन्तों सत्पुरुषों ने सतसंग की मुक्त कंठ से महिमा गायन की है और इसकी प्राप्ति को सौभाग्य का चिन्ह बतलाया है।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

संत हृदय नवनीत समाना..

गन्ने मारने वाले पर भी उपकार किया
छत्रपति शिवाजी के गुरुदेव समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी समय के पूर्ण सन्त महापुरुष थे और शिवाजी की उनके चरणों में अटूट श्रद्धा एवं अचल निष्ठा थी।एक बार समर्थ स्वामी श्री गुरु रामदास जी अपने कुछ शिष्यों केसाथ शिवाजी से मिलने के लिये जा रहे थे कि मार्ग में गन्ने का खेत आ गया जिसमें रस से भरे खूब लम्बेऔर मोटे गन्ने खड़े थे। समर्थ जी के शिष्यों को भूख और प्यास तो सता ही रही थी,क्योंकि दोपहर का समय हो गया थाऔर सुबह से उऩ्होने कुछ भी खाया-पिया नहीं था,अतः गन्नों को देखकर वह रह न सके। और खेत में घुस गए और गन्ने तोड़ तोड़ कर खाने लगे। समर्थ स्वामी श्री रामदास जी ने पहले तो उन्हें रोकना चाहा,परन्तु फिर कुछ सोचकर वे मौन रह गये। किसान उस समय वहाँ मौजूद नहीं था,परन्तु थोड़ी देर बाद जब वह वापिस आया तो वहाँ की हालत देखकर उसे क्रोध आ गया। लाठी तो उसके हाथ में थी ही, अतः उसने ताबड़तोड़ शिष्यों पर बरसानी शुरु कर दी। दो-तीन लाठियाँ उसने समर्थ स्वामी श्री रामदास जी की पीठ पर भी धर दीं। यह देखकर शिष्यों को क्रोध तो बहुत आया, परन्तु स्वामी जी ने हाथ के संकेत से उन्हें शान्त रहने को कहा। तत्पश्चात वे चुपचाप वहाँ से उठे और शिवाजी के महल की ओर चल पड़े।
     छत्रपति शिवाजी का यह नियम था कि जितने दिन समर्थ स्वामी श्री रामदास जी उनके पास रहते थे, तो गुरुदेव के स्नान की सेवा वे स्वयं किया करते थे। दूसरे दिन प्रातःकाल जब नित्यनियम के अनुसार शिवाजी अपने गुरुदेव को स्नान कराने लगे तो क्या देखते हैं कि गुरुदेव की सुकोमल पीठ पर नीले निशान पड़े हैं।यह देखकर उनकी आँखों में अश्रु छलक आए और वे क्रोध से तिलमिला उठे। उन्होने गुरुदेव से
पूछा-""गुरुदेव!ऐसी धृष्टता किस नराधम ने की है?''समर्थ स्वामी जी ने शिवाजी की बात को टालते हुए कहा-"'शिवा! तुम स्नान कराओ,देर हो रही है।'' यद्यपि शिवाजी ने कई बार अपना प्रश्न दोहराया, परन्तु गुरुदेव ने हर बार हँसकर टाल दिया। किन्तु शिवाजी को चैन कहाँ था?स्नान के उपरान्त शिवाजी ने अन्य शिष्यों से पूछकर सारा वृतान्त जान लिया और दूसरे दिन राजदरबार में उपस्थित होने के लिये उस किसान को आदेश भिजवा दिया।
     सैनिक किसान का पता लगाकर उसके घर पहुँचा और छत्रपति शिवाजी का आदेश उसे सुना दिया। शिवाजी का आदेश सुनकर किसान काँप उठा।भय के मारे उसे रात भर नींद न आई।सारी रात यही सोचता रहा कि न जाने मुझसे क्याअपराध हो गया है जो राजदरबार में उपस्थित होने के लिए आदेश मिला है।दूसरे दिन दरबार लगा।एक ऊँचे सिंहासन पर गुरुदेव समर्थ स्वामी जी विराजमान हुए तथा उनके चरणों के निकट ही न्यायाधीश की कुर्सी पर आज शिवाजी स्वयं बैठे।उनकेआदेश से किसान को राजदरबार में लाया गया। दरबार में प्रवेश करने पर उसकी दृष्टि जैसे ही ऊँचे सिंहासन पर विराजमान समर्थ जी पर पड़ी,उसके पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। वह समझ गया कि उसने कल जो व्यवहार इनके साथ किया है, उसके फलस्वरूप उसे अब कठोर दण्ड भुगतना पड़ेगा। उस बेचारे को क्या पता था कि ये शिवाजी के गुरुदेव हैं, वह तो इन्हें कोई साधारण साधू समझा था।
     शिवाजी ने उस किसान को सम्बोधित करते हुए कहा-""पूज्यनीय गुरुदेव के प्रति तुमने जो कल घोर अपराध किया है, उसका दण्ड तुम्हें भुगतना पड़ेगा।इससे तुम बच नहीं सकते।''तत्पश्चात् उन्होने गुरुदेव के चरणों में विनय की-""देव!इसअधमअपराधी के लिएआप किस दण्ड का आदेश देते हैं?''समर्थ स्वामी जी ने मुस्कराते हुए शिवाजी कीओर देखा और बोले, शिवा!जो हम कहेंगे,क्या वही दण्ड इसे दोगे?'' ""क्यों नहीं गुरुदेव!आपकीआज्ञा काअक्षरशः पालन किया जाएगा।''शिवाजी ने हाथ जोड़कर विनय की। गुरुदेव ने वचन किये,"'तो फिर शिवा!इसे वह गन्ने का खेत और उसके साथ लगती हुई सारी भूमि दान कर दो। दो तीन गांव और भी इस के नाम पर कर दो जिससे कि यह अपना जीवन निर्वाह सुखपूर्वक कर सके।'' शिवाजी सहित सारा दरबार समर्थ स्वामी जी के ये वचन सुनकर स्तब्ध रह गया।कैसा अनोखा न्याय है।सन्त जन किस प्रकार दूसरों के अपराधों को क्षमा कर देते हैं, यह सोचकर वह किसान समर्थ स्वामी जी के चरणों में लोटपोट हो गया। स्वामी जी के इस व्यवहार ने उस किसान की काया-पलट कर दी। वह उनका अनन्य शिष्य बन गया।
       साधु चरित सुभ चरित कपासु।निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
       जो सहि दुख  परछिद्र  दुरावा। वंदनीय  जेहि जग जस  पावा।।
अर्थात सन्तसत्पुरुषों की करनी कपास के समान होती है। कपास को चखकर यदि देखें तो उसमें रस नहीं होता,परन्तु वह होती बड़ी श्वेत है। उसमें से फिर सूत खींचा जाता है।वह कपास ओटे जाने,काते जाने और बुने जाने के कष्टों को झेलकर और फिर वस्त्र बनकर लोगों के शरीरों को ढाँप देती है।सन्त सत्पुरुष भी इसी तरह स्वार्थ से रहित और विमल चरित्र होते हैं।अपने ऊपर दुःख कष्ट सहकर भी दूसरों के दोषों को,
दूसरों के अपराधों को क्षमा कर देते हैं। तभी तो यह संसार उनकी वन्दना करता और उन का यश गाता है।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

सत्संग का प्रभाव


          संतन मो कउ पूँजी सउपी तउ उतरिआ मन का धोखा।
          धरमराइ अब कहा करैगो जउ फाटिओ सगलो लेखा।।
     कथा है-एक सेठ नगर में किसी काम से गया। कुछ समय पश्चात् उसे घर से सन्देश आया कि तत्काल घर लौट आओ।पत्र पढ़ते ही वह तैयार हो गया।चूँकि रात का समय था,मार्ग में वन और नदी-नाले पड़ते थे,अकेला जाने में प्राण जाने का भय था,जाना भी आवश्यक था,अतएव मज़दूर की खोज की गई,परन्तु कोई साथ चलने को तैयार न हुआ। सेठ को घर पहुँचने की शीघ्रता थी।अन्त में एक धर्मात्मा जो सन्त सत्पुरुषों का शिष्य और बहुत अभ्यासी था और साथ ही परोपकारी भी था,साथ चलने को तैयार हो गया। उसका सिद्धान्त था कि जिसका काम करता, उससे चार टके मज़दूरी लेने के अतिरिक्त एक घड़ी सत्संग सुनाया करता। इसी बहाने से वह लोगों का भला किया करता था। जब उसने सत्संग सुनने अथवा सुनाने की शर्त रखी, तो सेठ जी ने उत्तर दिया कि मैने तो आज तक सतसंग का नाम ही नहीं सुना,सम्पूर्ण आयु सांसारिक धन्धों में ही व्यस्त रहा। हाँ!आज यदि आप मुझे सत्संग सुना देंगे तो अवश्य ही सुन लूँगा।भक्त मज़दूर ने सेठ का सामान सिर पर उठा लिया औरअपनी जान जोखिम में डाल कर सेठ के साथ हो लिया तकि किसी बहाने से उसे सत्संग का लाभ प्राप्त हो जाये। इसका नाम है परोपकार।
         मार्ग में सत्संग वार्ता आरम्भ हुई और सत्संग करते करते दोनों सेठ जी के घर जा पहुँचे। घर पहुँच कर सेठ जी ने मज़दूरी देने के अतिरिक्त श्रद्धा-भावना से उऩ्हें भोजन भी करवाया। उस गुरुमुख मज़दूर ने देखा कि सेठ की आयु केवल सात दिन शेष है,अतएव कोई ऐसी युक्ति निकाली जाये जिससे इस बेचारे का उद्धार हो जाये।यह सोचकर उस सेठ को अलग बुला कर समझाया कि सेठ जी! तुम ने आज से सातवें दिन मर जाना है। मरणोंपरान्त तुमको धर्मराज के न्यायालय में उपस्थित होना होगा।वहाँतुम्हारा कर्म-विवरण देखकर तुमसे पूछा जायेगा कि सारी आयु पापकर्म करने के फलस्वरूप तुम्हें काफी समय तक नरकों मे रहना होगा,परन्तु तुमने जो एक घड़ी सत्संग किया है,उसका फल तुम्हें चार घड़ी बैकुँठ मिलेगा। बोलो! पहले कौन सा फल लेना है? सत्संग का या पापकर्मों के दण्ड भोगने का? उस समय तुम एक घड़ी सतसंग का फल पहले मांग लेना। इस बात को भली प्रकार स्मरण कर लो। सातवें दिन सेठ का देहान्त हो गया। धर्मराज के न्यायालय में उपस्थित होने और पूछने पर वह बात उसे याद आ गई। उसने सत्संग का फल पहले मांग लिया। तब यमदूतों को आदेश हुआ कि इसे चार घड़ी के लिये बैकुण्ठ भेज दो, परन्तु तुम लोगों को अऩ्दर जाने की आज्ञा नहीं है।सेठ जी चार घड़ी के लिये बैकुण्ठ में प्रविष्ट हुये,तो क्या देखते हैं कि वही सन्त जिन्होंने मज़दूर बनकर उसका सामान उठाया था,वहाँ विराजमान हैं। सेठ जी दौड़ कर उनके चरणों से लिपट गया। जब समय पूरा हो गया तो सेठ जी उठकर चलने लगे। तब सन्तों ने उससे कहा-कहां जाते हो? सेठ जी बोले-मेरा समय हो गया है और द्वार पर खड़े यमदूत मुझे घूर रहे हैं। देरी से जाऊँगा तो बहुत कष्ट देंगे। सन्तों ने आश्वासन देते हुये फरमाया-तुम भयभीत मत हो। वे तम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। यहाँ आने की उन्हें आज्ञा नहीं है। तुम यहाँ से मत जाओ।वे प्रतीक्षा करते करते थककर लौट जायेंगे।वचन मानकर सेठ जी वहां बैठे रहे। बेचारे यमदूत परेशान होकर धर्मराज के पास गये और सब वृतान्त कह सुनाया। धर्मराज ने उत्तर दिया कि मैं इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। प्रकृती की ओर से सन्त सत्पुरुषों को पूरा अधिकार है, वे जो चाहें कर सकते हैं। और जिस पर दयाल हो जायें, उसका लेखा फाड़ सकते हैं। अब उनको वहीं रहने दो।

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

फकीर सारी रात जागता था


         रात  कथूरी वंडिये  सुतियाँ  मिले न भाव।।
         जिन्हा नैन निंद्रावले तिन्हां मिलन को आव।।
एक फकीर हुआ जापान में। नाम था बोकोजू। पुराने जमाने की बात है नगर में क्या हो रहा है देखने के लिये छदमवेष में सम्राट घोड़े पर निकलता था।सारा नगर सोया रहता लेकिन यह फकीर वृक्ष के नीचे जागता रहता।अकसर तो खड़ा रहता। बैठता भी तो आँख खुली रखता। आखिर सम्राट की उत्सुकता बढ़ी। पूरी रात किसी भी समय जाता मगर इसको जागा हुआ पाता। कभी टहलता,कभी बैठता,कभी खड़ा होता लेकिन जागा होता।सम्राट उसे सोया हुआ कभी न पा सका। महीने बीत गये आखिर एक दिन उससे रहा न गया वह रूकाऔर कहा कि फकीर, एक उत्सुकता है।अनधिकार है कोई हक मुझे पूछने का नहीं लेकिन उत्सुकता घनी हो गई हैऔर अब पूछे बिना नहीं रह सकता।किसलिये जागते रहते हो रात भर? फकीर ने कहा कि सम्पदा है उसकी सुरक्षा के लिये। सम्राट और हैरान हुआ। उसने कहा, सम्पदा कहीं दिखाई नही पड़ती। ये टूटे फूटे ठीकरे पड़े हैं। तुम्हारा भिक्षा पात्र,ये तुम्हारे चीथड़े। इनको तुम सम्पदा कहते हो। दिमाग ठीक है?और इनको चुरा कौन ले जायेगा। उस फकीर ने कहा जिस सम्पदा की बात मैं कर रहा हूँ वह तुम्हारी समझ में न आ सकेगी। तुम्हें ठीकरे ही,गन्दे वस्त्र ही दिखाई पड़ सकते हैंऔर वस्त्र गंदे हों कि सुन्दर क्या फर्क पड़ता है?वस्त्र ही हैऔर ठीकरे टूटे फूटे हों कि स्वर्ण पात्र हों ठीकरे ही हैं इनकी बात ही कौन कर रहा है?एक और सम्पदा है जिसकी रक्षा करनी है।पर सम्राट ने कहा सम्पदा मेंरे पास भी कुछ कम नहीं मैं भी सोता हूँ। उस फकीर ने कहा तुम्हारे पास जो सम्पदा है तुम मज़े से सो सकते हो। वह खो भी जाए तो कुछ खोयेगा नहीं। मेरे पास जो है वह अगर खो गया तो सब खो जायेगा। और पहुँचने के बिल्कुल करीब हूँ। हाथ में आई आई की बात है चूक गया तो पता नहीं कितने जन्म लगेंगे।
     महापुरुष उस सम्पदा की बात करते हैं उसके लिये बड़ा जतन चाहिये,रातें जाग के बितानी पड़ती हैं, दिन होश में बिताना पड़ता है, एक एक कदम एक एक स्वांस जतन से लाना पड़ेगा।साधु का अर्थ है जो जतन से जी रहा है,जो भी कर रहा हैं होश पूर्वक कर रहा है सुरती से जी रहा है स्मरण पूर्वक जी रहा है।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

गुरु-शिष्य के झोंपड़े को आँधी ने उड़ा दिया


     दो फकीर थे। दोनों वर्षाकाल के लिए अपने झोंपड़े पर वापिस लौट रहे थे। आठ महीने घूमते थे,भटकते थे गाँव-गाँव,उस परमात्मा का गीत गाते थे। वर्षाकाल में अपने झोंपड़े पर लौट आते थे।गुरु बूढ़ा था। जवान शिष्य था। जैसे ही वे करीब पहुँचे झील के किनारे अपने झोंपड़े के,देखा कि छप्पर ज़मीन पर पड़ा है।ज़ोर की आँधीआयी थी रात,आधा छप्पर उड़ गया है।छोटा सा झोंपड़ा।उसका भी आधा छप्पर उड़ गया है। वर्षा सिर पर है। अब कुछ करना भी मुश्किल होगा। दूर जंगल में निवास है। युवा सन्यासी शिष्य ने कहा,देखो,हम प्रार्थना कर करके मरेजाते हैं,और उसकी तरफ से यह फल।इसलिए तो मैं कहता हूँ कि कुछ सार नहीं है। प्रार्थना,पूजा मिलता क्या है?दुष्टों के महल साबित है, हम गरीब फकीरों की झोंपड़ी गिरा गई आँधी। यह आँधी उसी की है। जब वह क्रोध से बातें कह रहा था, तभी उसने देखा कि उसका गुरु घुटने टेक कर,बड़े आनन्दभाव सेआकाश की तरफ हाथ जोड़े बैठा है। उसकी आँखों से परम संतोष के आँसू बह रहे हैं। और वह गुनगुना कर कह रहा है,कि परमात्मा तेरी कृपा।आँधी का क्या भरोसा। पूरा ही छप्पर ले जाती। ज़रूर तूने बीच में रोका होगा, ज़रूर तूने बाधा डाली होगी।और आधा बचाया। आधा छप्पर अभी भी ऊपर है।
    फिर वे दोनों गये।एक ही झोंपड़े में वे प्रवेश कर रहे हैं लेकिन दो भिन्न तरह के लोग है। एक असंतुष्ट था,एक सन्तुष्ट। स्थिति एक है, लेकिन दोनों के भाव अलग हैं। इसलिए दोनों अलग झोंपड़ों में जा रहे हैं। ऊपर से तो दिखायी पड़ता है, कि एक ही झोंपड़े में जा रहे हैं। रात दोनों सोये। जो असंतुष्ट था,वह तो सो ही न सका। उसने नेक करवटें बदली और बार बार कहा कि क्या भरोसा कब वर्षा आ जाए।अभी वर्षा आयी नहीं। लेकिन वह चिंतित और परेशान है उसने कहा, नींद नहीं आती। नींदआ कैसे सकती है?यह कोई रहने की जगह है? लेकिन गुरु रात बड़ी गहरी नींद सोया। जब चार बजे उठा तो उसने एक गीत लिखा। क्योंकि आधे झोंपड़े में से चाँद दिखायी पड़ रहा था। और उसने लिखा कि परमात्मा अगर हमें पहले  से पता होता, तो हम तेरी आँधी को भी इतना कष्ट न देते कि आधा छप्पर अलग कर देते। हम खुद ही अलग कर देते। अब तक हम नासमझी में रहे। सो भी सकते हैं, चाँद भी देख सकते हैं। आधा छप्पर दूर जो हो गया। तेरा आकाश इतने निकट और हम उसे छप्पर से रोके रहे। तेरा चाँद इतने निकट कितनी बार आया और गया, और हम उसे छप्पर में रोके रहे। हमें पता ही न था तू माफ करना।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

कारूँ बादशाह


कारूँ बादशाह ने चालीस गंज खज़ाना एकत्र किया था वह भी सारा छोड़ कर चला गया। उस कारूँ बादशाह ने एक बार अपने वज़ीर से कहा कि हमारे पास कितना खज़ाना है हिसाब लगाकर बताओ तो वज़ीर ने हिसाब लगा कर बताया कि बादशाह सलामतआपके पास इतना धन है कि आपकी बीस पीढ़ीयाँ भी बैठ कर खाती रहें तो आपका धन खत्म न होगा। यह सुनकर राजा का चेहरा उदास हो गया।वज़ीर बादशाह का चेहरा मायूस देखकर कहने लगा इतना धन सुनकर तो आपको प्रसन्न होना चाहिये था किन्तु इसके विपरीत मैं आपके चेहरे पर दुःख और मलाल देख रहा हूँ। बादशाह ने कहा हमारी बीस पीढ़ीयों के लिये तो धन हमारे पास है लेकिन मुझे चिन्ता इस बात की है कि हमारी इक्कीसवीं पीढ़ी क्या खायेगी?वह इतना लोभी था कि कहते हैं फिर उसने नगर में मुनादी करा दी कि जिसके पास जितना भी धन है सब राजकोष में जमा करवा दे अगर किसी ने एक रूपया भी रखा तो उसे सजा दी जायेगी। राजा के भय से सभी ने अपना सारा धन राजकोष में जमा करवा दिया। राजा ने ये परखने के लिये कि कहीं किसी ने धन छुपाकर तो नहीं रख लिया एक मुनादी करा दी कि कोई एक रूपया मेरे पास लेकर आयेगा उसे आधा राज्य दिया जायेगा।एक  नव युवक नेअपनी माँ से रूपये के लिये कहा तो मां ने कहा राजा की ये चाल है राजपाट कुछ नहीं मिलेगा।जब लड़का न माना तो माँ ने कहा मेरे पास तो रूपया नहीं है तेरे पिता को दफनाते समय कब्रा में एक चाँदी का रूपया रखा गया था कब्रा खोद कर वह रूपया निकाल सकता है उस नवयुवक ने कब्रा खोद कर रूपया निकाला और राजा के पास ले गया जब राजा को
मालूम हुआ कि हमारे देश में कब्राों में बहुत सा धन, गढ़ा हुआ है तो उसने
सब कब्रों खुदवा कर चाँदीसोने के सिक्के सब निकलवा लिये इतना लोभी था उसने चालीस गँज खज़ाना इकट्ठा किया था आखिर वो भी छेकड़ गया चारे पल्लू झाड़ ऐत्थे।रावण रत चोई ऋषियाँ साधुआं दी आखिर गया लंक उजाड़ एत्थे। रावण की लंका ही सोने की थी उसकी लंका का गढ़ सारा सोने का था वह धन के लोभ में ऋषियों से कर लेने से भी न चूकालेकिन महापुरुष फरमाते हैं उसे क्या मिला आखिर अपनी सब प्रजा को मरवाकर सारी लंका भी उजाड़ गया।लंका का गढ़ सोने का भया मूर्ख रावण क्या ले गया? विश्वविजय का स्वपन देखने वाला सिकन्दर जब मरने लगा अन्तिम समय में उसने अपनी प्रजा से कहा कि मेरे दोनों हाथ जनाजे से बाहर रखना और मेरा जनाजा गली गली कूचे कूचे में फिरे ताकि लोगों को नसीहत मिल जाये कि विश्वविजेता सिकन्दर धनवानऔर बलवान होते हुये भी दोनों हाथ खाली गया है।यहाँ का धन एकत्र करने की बजाय साथ ले जाने वाला धन एकत्र करें। मुझे मालूम होता कि ये धन साथ नहीं जाता तो मैं वो धन एकत्र करता जो साथ जाता मगर अफसोस कि अब क्या हो सकता है।
इस कदर धन जमा कर लेने के बाद भी कारूँ की तृष्णा न पूरी हुई। परन्तु ऐसा पापपूर्ण मार्ग अपना कर धन एकत्र करने वाले कारूँ का परिणाम क्या हुआ।
          कारूँ हलाक शुद कि चिहलखाना गंज दाश्त।।
          नौशेरवां  न  मुर्द  कि  नामे-निको  गुज़ाश्त।।
अर्थः-कारूँ बादशाह जो धन के चालीस भण्डारों का मालिक था,बुरी तरह मारा गया।अन्ततः मरते समय रोया और पछताया। दूसरी ओर नेक बादशाह नौशेरवाँ हुआ है,जिसने प्रभु की भक्ति और दूसरों की भलाई के शुभ कर्म किए। मौत उसे भी आई, परन्तु  उसकी नेकी और सच्चाई के प्रताप से उसका नाम आज तक अमर है। ऐसे लोग मरकर भी जीवित रहते हैं।     

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

शिष्य ने पूछा चांद में दाग क्यों


एक बार सुकरात अपने शिष्यों को ज्ञान दे रहे थेऔर उनकी जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे थे। जब वेअपनी बात समाप्त कर चुके तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा यदि किसी के मन में अब भी कोई संशय या प्रश्न शेष हो तो वह पूछ सकता है। यह सुनकर एक शिष्य ने जो उनके पास काफी समय से रह रहा था और अपने आप को ज्ञानवान समझने लग गया था। उसने कहा गुरुदेवआप मुझे बताईये कि चाँद में धब्बा क्यों है? और मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि दीपक के तलेअंधेरा क्यों होता है? जब सुकरात ने इन दोनों प्रश्नो को सुना तो बहुत व्यथित हुये।दुःखी मन से कहा तुम्हें मेरे पास रहते हुए इतना समय हो गया लेकिन अभी भी तुम ज्ञान की पहली सीढ़ी पर अटके हुये हो। यह सुनकर शिष्य अत्यन्त दुःखी हुआ। उसे ऐसी किसी टिप्पणी की अपेक्षा नहीं थी। वह अपनेआपको काफी ज्ञानवान समझता था। अतः उसके अहं को ठेस पहुंची। उसने सुकरात से कहा मैं इतनेअर्से से आपसे ज्ञानअर्जित कर रहा हूँ फिर भी आपने ऐसा क्यों कहा? सुकरात ने कहा तुम्हारे सवाल से मुझे बहुत दुःख हुआ है काश कि तुमने पूछा होता कि चाँद में चाँदनी क्यों है? दीपक में इतनी रोशनी क्यों है? फिर मैं तुम्हें जीवन के अनन्त रहस्यों में से कुछ मोती चुनकर देता। फिर मैं तुम्हें बताता कि जीवन क्या होता है। जीवन का अर्थ क्या है। क्योंकि जब तुम किसी की बुराईयों पर ध्यान देते हो, बुराईयों पर चिन्तन करते हो तो जानेअन्जाने में ही उन बुराईयों के कुछ अंश अपने अन्दर उतार लेते हो।और फलस्वरूप तुम्हारेअन्दर बुराईयाँ बढ़ती जाती हैंऔर जब तुम किसी की अच्छाईयों पर ध्यान देते हो, अच्छाईयों का चिन्तन करते हो तो फिर तुम्हारे अन्दर भी अच्छाईयों में वृद्धि होने लगती है।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

सेवक को सजा कि आराम करने दो


एक बार श्री सतगुरुदेव जी महाराज पिपल भुट्टा(झंग) में विराजमान थे और कुछ गुरुमुखों से श्री वचन फरमा रहे थे। उसी समय एक भक्त जी श्री चरणों में उपस्थित हुए और दण्डवत कर क्षमा मांगने लगे। उन्होंने नियम के विरूद्ध कोई कार्य किया था।वेअपनी भूल पर लज्जित थे और क्षमा याचना कर रहे थे।वहाँ उपस्थित भक्तों को जब यह विदित हुआकि इसने श्रीमौज तथा नियम के विरूद्धकोई कार्य किया है,इसीलिये ही क्षमा याचना कर रहा है,तो उनमें से कुछ भक्तों ने श्रीसतगुरुदेव महाराज जी के चरणों में विनय की। प्रभो! चूँकि इसने नियम के विरुद्ध कार्य किया है, इसलिये कोई न कोई दण्ड इसे अवश्य ही मिलना चाहिए जिस से कि दूसरों को शिक्षा मिले और भविष्य में कोई भी नियम के विरुद्ध कार्य न करे। करुणा के आगार श्री सतगुरुदेव महाराज जी कुछ क्षण तो मौन रहे, फिर उन भक्तों से पूछा-आप लोगों के विचार में इसे कौन सा दण्ड देना चाहिए?एक भक्त ने विनय की-प्रभो! दो दिन यह अपनी सेवा के अतिरिक्त लंगर के सब बर्तन भी साफ करे। दूसरे ने कहा-दीन दयालु जी बगीचे को पानी देने के लिए इससे सारा दिन नल चलवाया जाए। तीसरे भक्त ने विनय की-कृपासागर!इससे सारे आश्रम की सफाई करवाई जाए।
     इस प्रकार वहाँ उपस्थित आठ भक्तों ने क्रम से अपनी अपनी बुद्धि अनुसार उसके लिए दण्ड बताया। भक्तवत्सल, कृपासिन्धु श्री सदगुरुदेव महाराज जी ने उन आठों भक्तों को एकओर खड़ा करके उन्हें सम्बोधित कर फरमाया-तुम सबने अपने अपने विचार के अनुसार इस भक्त के लिए दंड निर्धारित किया। अब केवल इतना बताओ कि इस ऊँचे और सच्चे दरबार की सेवा, जो बड़े ही पुण्य प्रताप से और भाग्योदय होने पर ही मनुष्य को प्राप्त होती हैऔर जिसके लिए देवी-देवता भी तरसते हैं,क्या तुम लोगों की दृष्टि में वह सेवा दण्ड है?बस! आप सबकी बुद्धि इसी परिधि में ही सीमित है कि दरबार की सेवा को दण्डसमझ रहे हो। सदगुरु दरबार की सेवा तो अमुल्य देन होती है। इस भक्त को यदि और अधिक सेवा दी गयी, तो फिर इसे दण्ड किस बात का मिला?अधिक सेवा प्राप्त करके तो यह भक्ति के सच्चे धन से मालामाल हो जाएगा।
   श्री प्रभु कुछ पल मौन रहकर उनकी ओर निहारते रहे,पुनः फरमाया वह तो अपनी भूल पर लज्जित होकर पश्चाताप करते हुए क्षमा याचना कर रहा है। सतपुरुष तो दयाल का अवतार होते हैं। वे जीव को दण्ड देने के लिए नहीं, प्रत्युत् उसे क्षमा करने के लिए आते हैं। जो नम्रता धारणकर अपनी भूल पर पश्चाताप करते हुए क्षमा-प्रार्थी होता है, सतगुरु, उस की गलतियों की ओर ध्यान न देकर उसे क्षमा कर देते हैं। यह भक्त भी चूँकि अपनी गलती पर पश्चाताप कर रहा है, इसलिए इसे क्षमा किया जाता है। इसके स्थान पर आप सबको दण्ड दिया जाता है और जिसे सतपुरुषों के दरबार में वास्तव में ही दण्ड कहा जाता है कि आप में से प्रत्येक ने जितने समय के लिए इसे दण्ड देने का विचार प्रकट किया, वह उतने समय तक दरबार की किसी भी सेवा को हाथ न लगाये। भोजन उसे बैठे बिठाये मिल जाएगा।
     ये श्री वचन सुनते ही सबके सब श्री चरणों में गिर पड़े औरअपनी भूल के लिए क्षमा याचना  करने लगे। श्री सदगुरुदेव  महाराज  जी ने फरमाया-किसी को यदि दण्ड देना ही हो तो सतपुरुषों की दृष्टि में दण्ड वस्तुतः यही है कि उसे दरबार की सेवा से वंचित कर दिया जाए न कि उसे और अधिक सेवा प्रदान की जाए।अधिक सेवा पाकर तो वह सच्चे धन से मालामाल हो जाएगा। फिर सेवा से ही मालिक प्रसन्न होते हैं।अधिक सेवा द्वारा मालिक को प्रसन्न करके न जाने वह कितना धनाढ¬ बन जायेगा।          

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

यह मन भूत समान है


भगवान श्री कृष्ण जी नेअपने प्रिय सखाअर्जुन को मन को वश में करने के दो साधन बताये हैं।एक अभ्यास और दूसरा बैराग्य। जब मन चंचल होकर इधर-उधर दौड़ने लगे तो उसे वैराग्य के द्वारा समझा बुझाकर पुनः अभ्यास में लगा देना चाहिये। युक्ति से मुक्ति मिलती है-ऐसा लोक प्रसिद्ध है।इसी तरह युक्ति से ही इस मन को जो भूत की भान्ति महा- चंचल और पवन से भी वेगवान है-रोकने के लिये सदगुरु के शब्द नामका जाप ही उपयुक्त साधन है।मन रूपी भूत फिर चैन के साथ अभ्यास में स्थिर होने लगता है। इस पर एक प्राचीन दृष्टान्त है।
     एक मनुष्य भूत-विद्या में अतिदक्ष था। उसने ह्मष्ट पुष्ट भूत पकड़ा और उसे नगर में बेचने चला। संयोगवश उसकी एक प्रतिष्ठित सेठ से भेंट हो गई।सेठ ने पूछ ही लिया किः-बाबा!यह काली कलूटी बला कौन सी है? इसे आप कहाँ ले जा रहे हैं? उसने उत्तर दिया यह एक भूत है। इसमें असीम बल है। कितना भी भारी से भारी कार्य क्यों न हो यह उसे पल भर में निपटा देता है।यह पवन सेअधिक द्रुतगति,बिजली से बढ़कर शक्तिमान और वज्र से भी दारूणतर और जल से भी कोमल है। इसमें असंख्य गुण हैं। यह अनेक वर्षों के कामों को मिनटों में और सहरुाशः लोगों के कामों को अकेला ही कर लेता है। जहाँ पवन का प्रवेश नहीं, यह वहाँ भी अनायास पहुँच जाता है। इस भूत की तुलना मन पर ठीक बैठती है।
          कबहूँ मन गगना चढ़ै, कबहूँ गिरै पाताल।।
          कबहूँ मन उनमुनि लगै, कबहूँ जावै चाल।।
भूत की भूरि प्रशंसा सुनकर सेठ जी ललचा उठे।उसेअपने लिये उपयोगी समझ कर दाम पूछे। स्वामी ने भूत के  दाम पाँच सौ रुपये कह दिया। दाम सुनकर सेठ बड़ा विस्मित हुआ कि इतना गुणी होने परभी मोल तो उसका कुछभी नहीं। जब यह एकदिन में ही पाँच सौआदमियों के बराबर कार्य कर सकता है फिर यह बात क्या है?भूत बेचने वाले ने कहा,भाई! जहाँ इसमें असंख्य गुण हैं वहाँ एक प्रबल दोष भी है। जब इसे काम न मिले तो स्वामी को ही खाने के लिये भागता है। यह सुनकर पहले तो सेठ एकदम भयभीत हुआ। परन्तु फिर उसे  विचार  आया  कि मेरी तो नगर नगर में सैंकड़ों कौठियाँ हैं। विलायत तक मेरा कारोबार है। मेरे तो हज़ारों ही धन्धे हैं। जो  प्रतिदिन अपूर्ण पड़े रहते हैं। फिर यह भूत निष्क्रिय क्योंकर रहेगा। यदि यह मेरे दैनिक कार्य ही पूरे कर दिया करे तो भी भाग्यों की बलिहारी है। यह सोच कर भूत को खरीद लिया।
     भूत तो भूत ही था।उसने मुँह फैलाकर सेठ से काम माँगा। कई दिनों तक तो सेठ ने उसे काम में लगाये रखा।परन्तु वह भूत तो महीनों का काम क्षण-भर में कर लाता।अभी मिनट भी पूरा नहीं हुआ होता कि वह भूतआ सिर पर सवार होता।और नया काम माँगताअन्यथा खाने को मुँह फाड़ देता। इससे सेठ तो उस भूत के हाथों तंग आ गया।उसका मस्तिष्क चकरा गया कि इतनी क्षिप्रता में उसके लिये नया काम सोचा नहीं जा सकता। कँपकँपीआरम्भ हो गई।
     दैवात् एक महात्मा उधर आ निकले। सेठ को उद्विग्न देखकर उन्हें दया होआई।प्रेम भरे बचनों में उन्होने घबड़ाहट का कारण पूछा। सेठ ने चरणों में झुककर प्रणाम किया। फिर अति क्रन्दन करते हुए भूत के सम्बन्ध में सारी गाथा अथ से इति तक सुना दी। महात्मा जी ने हँसकर कहाअब तुम रत्ती भर भी चिन्ता न करो।हम तुम्हें एक ऐसी युक्ति बताते हैं जिससे इस भूत का बाप भी तुम्हारेआगे एड़ियां रगड़ता फिरेगा।सेठ ने अत्यन्त प्रसन्न होकर बड़ी उत्कण्ठा से पूछा-ऐ दीनबन्धु देव! मुझे तुरन्त ही बताइये।नहीं तो वह भूत आया ही चाहता होगा मुझे उससे बड़ा भय लग रहा है।महात्मा जी ने कहा-उसी भूत के हाथों एक लम्बा बाँस कहीं से मँगवा लो। उसे उसी भूत के हाथों से भूमि में सुदृढ़ता से गड़वा दो। बस, जब तुम्हारा और कोई कार्य न हो तो उस  भूत को उस बाँस परचढ़ने और उतरने का काम बता दो। यह एक ऐसा कार्य है जो जन्मों तक भी समाप्त नहीं हो सकता। फिर देखो ऐसा करने पर वह कैसे विवश और विह्वल होकर तुम्हारे पाँव पड़ता है।थोड़े ही दिनों में ही उसे नानी याद आ जायेगी।
     यह सुनकर सेठ की हर्ष से बाछें खिल गई। अब उसके मन में व्याकुलता का चिन्ह शेष नहीं रह गया था। भूत के आते ही सेठ ने महात्मा के कथनानुसार एक बाँस उसके हाथों मँगवाया और उसे भूमि में गाड़ देने की आज्ञा दी। गड़ जाने पर भूत को उस पर चढ़ने उतरने की आज्ञा दे दी। इस प्रक्रिया से वह भूत तत्काल ही विवश हो गया। उसकी सब सिट्टी-पिट्टी जाती रही। भूत को सेठ के चरणों में गिर कर क्षमा याचना करने के लिये बाध्य होना पड़ा।अब मैं तुम्हें खाने की धमकी कदापि नहीं दूँगा। जब भी आप का कोई काम होगा उसे सम्पन्न करके मैं शान्ति से बैठ जाऊँगा। कथा-कहानी वास्तविकता को समझाने के उद्देश्य से लिखी जाती हैं।इस किस्से में भूत से भाव है ""मानवमन।''
          यह मन भूत समान है, दौड़ै  दाँत  पसार।।
          बाँस गाड़ि उतरै चढ़ै, सब बल जावै हार।।
     इसी मन के हाथों सारी सृष्टि आकुल है।इसका उपाय सन्त सदगुरु ही बताते हैं। हर मनुष्य के भीतर स्वाभाविक रूप में जो श्वासों का तार बाँस की न्यार्इं गड़ा हुआहै।उसी में गुरु-शब्द हो रहा है।उसके आने-जाने पर ध्यान रखना ही मन-भूत का उतरनाऔर चढ़ना है।इसका रहस्य पूर्ण सदगुरुदेव जी से हाथ आता है।उनकी बताई हुई इस युक्ति की कमाई से यह मन समस्त चंचलताओं को छोेड़ देता है।और इसके सुस्थिर हो जाने
पर ही जीव की चिन्ताएं मिट जाती हैंऔर मनुष्य तब सकल कल्पनाओं से छूट कर सुख-शान्ति का भागी बन जाता है।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

मौलाना रूम साहिब सारी रात खड़े रहे


     मौलाना रुम साहिब एक बार एक धनी व्यक्ति के घर गये मार्ग में चलते चलते उन्हें काफी देर हो गई।जब वे लगभग रात के दस बजेउस व्यक्ति के घर पहुँचे,द्वार बन्द हो चुका था। उस समय सर्दी भी अत्यधिक पड़ रही थी। रूम साहिब का शरीर ठंड के मारे थर-थर काँप रहा था, परन्तु आँखों से प्रभु प्रेम के अश्रु गिर रहे थे।सर्दी के कारण वे अश्रुकण रूम साहिब की दाढ़ी पर गिरकर बर्फ बनते जा रहे थे। उन्होने इतना कष्ट सहन कर लिया, परन्तु द्वार खटखटाना उचित न समझा ताकि उसे कष्ट न हो और उसके आराम मंे बाधा न पड़े। दरअसल उस व्यक्ति ने हज़रत मौलाना रुम साहिब जी को एक दिन पहले अपने घर पर भोजन के लिये निमन्त्रण दिया था।लेकिन अगले दिन उसे स्मरण ही न रहा कि उसने रुम साहिब को भोजन के लिये निमन्त्रण दिया है और रात उनके आने की प्रतीक्षा किये बिना ही सो गया था।
     जब प्रातः उसने द्वार खोला,तो रूम साहिब की दाढ़ी पर बर्फ जमी देख कर उसका माथा ठनका। कि बहुत भारी भूल हुई। उसने रूमसाहिब के चरणों में गिर कर अपनी भूल के लिये क्षमा मांगी कि मुझसे बहुत भारी अपराध हुआ मुआफ करें। और विनय की,हुज़ूर आप यदि एक बार भी द्वार खटखटा देते, तो हम लोग तुरन्त द्वार खोल देते।आप इस कष्ट से बच जाते और हमें आपके दर्शन तथा सेवा का सौभाग्य प्राप्त हो जाता। रूमसाहिब ने हंसते हुये फरमाया-आपके आराम में बाधा डालने की अपेक्षा मुझे अपने शरीर पर कष्ट वहन करनाअधिक श्रेष्ठ प्रतीत हुआ। और हमारी इस कुर्बानी के बदले अगर तुम परमात्मा की राह में चल पड़ो तो समझो कि ये सौदा बहुत सस्ता है। इस प्रकार के क्रियात्मिक जीवन से सन्त महापुरुष लोगों के सम्मुख प्रमाण प्रस्तुत कर जाते हैं।

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

एक बुरा विचार- शैतान के खेल से कम नहीं.


कहते हैं एक दिन हज़रत खिज्ऱ और शैतान साथ साथ चले जाते थे। दोनों में अनेक प्रकार की बातें हो रही थीं। हज़रत खिज्ऱ ने कहा-तुम अपने कुकृत्यों से संसार की बहुत अधिक हानि कर रहे हो।
शैतान ने उत्तर दिया-हज़रत!बहुत बड़ी हानि मैं तो नहीं करता। मैं तो केवल छोटा-सा कार्य कर देता हूँ और वह अपने प्रभाव से इतनाअधिक विस्तृत और विशाल हो जाता है और इतनी अधिक हानि कर देता है कि उसकी नाप-तोल करना बुद्धि की सामथ्र्य से परे है।
हज़रत खिज्ऱ बोले-यह कैसे हो सकता है?छोटे से कार्य का इतना बड़ा परिणाम कैसे हो सकता है?कार्य यदि छोटा है तो उसका फल अथवा परिणाम भी छोटा ही होना चाहिए।
शैतान ने हँसते हुए कहा-हज़रत! बड़ का बीज कितना छोटा होता है,
परन्तु उसके वृक्ष को देखिये तो वह कितना विशाल होता है और कितने क्षेत्र में फैला होता है, इसका कोई हिसाब है?
हज़रत खिज्ऱ शैतान की बात सुनकर चुप हो गए।
यह देखकर शैतान ने कहा-ज्ञात होता है कि आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं आया। यदि ऐसा है तो फिर मैं आपको इसका प्रत्यक्ष प्रमाण दे दूँ?
हज़रत खिज्ऱ बोले-मैं ऐसे प्रमाण से बाज़ आया जिसमें लोगों की हानि निहित हो।और इस तरह के प्रमाण देखने की मुझे आवश्यकता भी भला क्या है?
     किन्तु शैतान तो शैतान ही है।कुछ दूर जाने पर एक बड़ा हीसुन्दर नगरआया।वह किसी राजा की राजधानी थी। दोनों बातचीत करते हुए बाज़ार में घूम रहे थे कि एक हलवाई की दुकान नज़र आई। शैतान कहने लगा-हज़रत!मेरा तमाशा देखिये कि कैसे मेरे छोटे से कार्य से बहुत बड़ी हानि होती है। यह कहकर शैतान हलवाई की दुकान में घुस गया। वहां एक बड़ी कड़ाही में चाश्नी पक रही थी। शैतान ने उसमें अपनी एक अंगुली डुबोई और थोड़ी सी चाशनी निकालकर दीवार पर छिड़क दी और हज़रत खिज्ऱ के पास चला आया, जो दूर खड़े उसकी इस हरकत को देख रहे थे। दीवार पर लगी चाशनी की बू जो आसपास उड़ रही मक्खियों तक पहुँची,तो उस परआ बैठीं और लगीं उसे चाटने। कुछ उसी में फँस गई। संयोग की बात एक छिपकली की दृष्टि उन मक्खियों पर जा पड़ी,तो वह अपनी ज़बान लपलपाती हुई उन पर झपटी और कई मक्खियों को अपने पेट के हवाले किया।तभी एक बिल्ली की नज़र छिपकली पर पड़ीऔर वह उसकी ताक में नीचे फर्श पर बैठ गई। एक कुत्ता हलवाई की दुकान के बाहर खड़ा था। उसने जो बिल्ली को बैठे देखा तो उसपर छलाँग लगाई। बिल्ली घबराकर जो भागी तो चाशनी के कड़ाहे में जा गिरी। कुत्ते की दृष्टि तो बिल्ली पर थी। कड़ाहे की तो उसे खबर ही नहीं लगी,परिणाम यह हुआकि बिल्ली के साथ ही वह भी  कड़ाहे में जा गिरा।चाशनी चूँकि गर्म थी,इसलिए दोनों के शरीर जलने लगे और वह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगे। हलवाई ने जो यह देखा तो घबराकर कड़ाहा उलट दिया। कुछ चाशनी बाहर गिरी तो कुछ जलती हुई भट्ठी में।चाशनी का भट्ठी में गिरना था कि आग की लपटें उठीऔर छत्त कोआग लग गईऔर कुछ ही पलों में सारी दुकान जलकर राख हो गई। ज़रा से कार्य ने कितना अनर्थ और हानि कर डाली।
     इसी प्रकार ही विचारों के मामले में भी समझ लेना चाहिए। एक छोटे से बुरे विचार ने मन मे स्थान पाया नहीं कि दूसरे बुरे विचार भी वहाँ घुसने शुरू हो जाते हैं और अपना दायरा धीरे-धीरे विस्तृत और विशाल करने लग जाते हैं, जिसके फल स्वरूप मनुष्य का पूरा जीवन ही नष्ट हो जाता है।इसलिए विचारों को कभी भी छोटा और महत्वहीन नहीं समझना चाहिए और हर समय सचेत रहते हुए बुरे विचारों को ह्मदय में पनपने ही नहीं देना चाहिए।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

निराला चोर


    विधि बस सुजन कुसंत परहीं। फनि मनि सम निच गुन अनुसरहिं।।
    सज्जन दैवयोग से कहीं दुर्जनों की संगति में पड़ जावें तो वे वहां भी अपना प्रभाव उन पर इस प्रकार डालते हैं जैसे मणि साँप के सिर में रहने पर भी उसके विष को ग्रहण नहीं करती-परन्तु उसे अपने प्रकाश करने का गुण बराबर देती रहती है।
          जो रहीम उत्तम प्रकृति, करि सकत कुसंग।।
          चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
चन्दन का वृक्ष साँपों से लिपटे रहने पर भी विषैला नहीं होता इसी तरह सज्जनों पर कुसंगति का प्रभाव नहीं पड़ता।एक महात्मा जी कावेरी नदी के तीर पर रहा करते थे। उनका नियम था-दिन को जंगल में विहार करके कन्दमूल खाकर उदर-ज्वाला को शान्त करना और सन्ध्या होते ही समाधि में लीन हो जाना। एक बार चार चोर चोरी करने जा रहे थे-उनकी दृष्टि महात्मा जी पर पड़ी।वे सोचने लगे कि यहाँ कोई न झोंपड़ा है,न मकान,न आबादी का निशान।फिर इसअकेले आदमी का यहाँ क्या काम?हो न हो यहभी हमारा साथी होगा।यह सोचकर उन्होंने महात्मा जी से पूछा-""तुम कौन हो?''महात्मा जी ने निडर होकर वही शब्द दोहराये-""तुम कौन हो?'' उन्होने कहा-हम तो चोर हैं।और तुम? महात्मा जी ने मन में सोचा कि पक्का चोर तो मैं हूँ जो जगत से छुप कर भगवान के घर पर डाका डाला चाहता हूँ। झूठ बोलने से क्या लाभ!कहा-भाई! मैं भी एक चोर हूँ। यह सुनकर ने चारों कहने लगे-वाह-भाई-वाह! अच्छी सायत में निकले! खूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो। चार से पाँच हुए आज खूब हाथ रंगेंगे। चलो तुम भी हमारे साथ। महात्मा जी उठे और उनके साथ हो लिये।
     चोरी चोरी में भेद था। जिसे वे चोर न जानते थे। चोरों के मन में तो यह था किआज हमारी शक्ति बढ़ गई है। अब तो किसी बड़े मालदार के घर का सफाया करेंगे। किन्तु महात्मा जी तो मन में और ही मनसूबे बाँध रहे थे कि आज भगवान का साक्षात् दर्शन होगा। चोरों ने एक सेठ का मकान देखकर पिछवाड़े से सेंध लगाई। नये साथी से कहा कि तुम अन्दर घुसो हलका परन्तु बहुमूल्य समान लाकर देते जाओ। फिर हम एक जगह बैठ कर बँटवारा कर लेंगे। इस बात में भी एक भेद था कि यदि कहीं पकड़-धकड़ हो तो यही पकड़ा जाय हम तो धनमाल लेकर चम्पत हो जाएंगे। संयोगवश वह भवन किसी धर्मात्मा सेठ जी का था और प्रभु-भक्त भी था। तभी तो एक कक्ष में श्री भगवान का सुन्दर चित्र विराजमान था।आरती पूजा की सकल सामग्री भी वहाँ एकत्र थी। अन्दर जाते ही महात्मा जी का हाथ एक मन्जीरे पर पड़ा। देखा कि इसका भार भी नहीं और पूजा करने में इसकी अत्यन्त आवश्यकता पड़ती है। इससे श्रेष्ठतर सामग्रीऔर क्या हो सकती है।उसे ही लेकर बाहर सरका दिया। चोरों के मन में तो सोना-चाँदी-नकदीआदि मिलने की आशा थी। मंजीरे को देख कर झुंझलाये और बोले-कोई भारी भारी सामान पकड़ा। अब महात्मा जी लगे खोजने किसी भारी पदार्थ को। चक्की पर हाथ पड़ते ही बड़े प्रसन्न हुए-ऊपर का पाट उठाकर उसे बाहर किया और बोले यह लो भारी सामान!उसे देखकर अब तो वे चारों और भी लाल-पीले हुए। उन्होने कहा किअरे बुद्धू!कोई गठड़ी बाँधकर दे।वहाँ मैले-कुचैले कपड़ों की गठड़ी बँधी पड़ी थी। महात्मा जी ने उसे उठायाऔर  बोले-लो भाई! बँधी बँधाई गठड़ी,अब तो ठीक है न!इधर तो वे चारों आग बगोले हो रहे थे, क्योंकि रात बीते जा रही थी। इतना श्रम करने पर भी अब तक कुछ हाथ नहीं लगा था। वे बोले,नादान! कोई कीमती से कीमती माल ला, अब की बार भूल की तो तेरा कुशल नहीं!समझे!महात्मा जी ने कहा अच्छा,फिर ठहरो,मैं देखभाल करके अब तोअच्छे सेअच्छा अमूल्य सामान ला दूंगा।महात्मा जी भी अब ध्यान से लगे कीमती सामान ढूँढने। दियासलाई पर हाथ पड़ा,उसे जलाया और प्रकाश में देखा कि एक अत्यन्त मनोरम,सुभूषित सिंहासन पर श्री भगवान का रुचिर स्वरूप विराजमान है। उसके आगे आरती का थाल तैयार है। मन ही मन में झूम उठे कि इससे बढ़कर अधिक मूल्यवान वस्तु क्या हो सकती है? इऩ्हें ही लेकर दे देना चाहिये। उठाने को ज्यों ही हाथ बढ़ाया परन्तु रुक
गये। उन्हें कोई भय तो था ही नहीं, सोचा कि पहले प्रभात की आरती-पूजा ही क्यों न कर लूँ। ऐसा विचार कर आरती जगाई, ढोलक गले में डाली और गाने बजाने में ऐसे मग्न हुए कि समाँ ही बँध गया।
     ढोलक की आवाज़ सुनते ही चोरों के हवास फाख्ता हो गये। महात्मा जी को कटु वचन कहते और हज़ारों गालियाँ देते हुए सिर पर पाँव रख कर जिधर जिस के सींग समाये भाग निकले। उधर आरती की आवाज़ सुनकर दूसरे कमरों में सोये हुए लोग जाग उठे। लड़कों ने सोचा कदाचित वृद्धा माता जी ने आज बहुत सवेरे आरती शुरु कर दी है। भाग कर पहुंचे। उधर बूढ़ी मां सोच रही थीं कि हो सकता है बहू ने आजआरती जल्दी शुरू कर दी है। कहीं मैं रह न जाऊँ। बहु अपने मन में और ही कुछ सोचकर,तुरन्त उठी और उसने सेठ जी को भी जगाया, दोनों ही पूजा गृह की तरफ लपके। कुछ ही क्षणों में सब आदमी वहाँ इकट्ठे हो गये। सबने मिलकरआरती गाई। पूजा समाप्त होने पर सबकी दृष्टि एक बार में महात्मा जी पर पड़ी। और उन्होने चकित होकर पूछा-महाराज इतनी रात रहते आप यहाँ कैसे पधारे? महात्मा जी ने निःशंक होकर कहा, चोरी करने आया था बच्चा!चार मनुष्य और भी मेरे साथ हैं जो पिछवाड़े खड़े हैं। यह सुनते ही सब भयभीत हो गये। ""चोर-चोर'' का शोर मच गया। सहसा लोगों का समुदाय वहाँ जुड़ गया। पुलिस भी वहाँ आ पहुँची। महात्मा जी तो आँखें मूँदकर समाहित हो गये। दारोगा ने आकर महात्मा जी से पूछा आप कौन हैं? वह अचकचा कर बोले ""चोर ही तो हूँ-और क्या हूँ?''दारोगा ने कहा, फिर आपने क्या चुराया?
महात्मा जी ने कहा मैं भगवान को चुराने आया था। पर ये लोग जाग उठे!क्या करूँ।जब यह सारा काण्ड जन समाज में खुल गया तो सब के सब हँस हँस कर लोट पोट हो गये। सबने हाथ जोड़कर महात्मा जी की बड़ी प्रशंसा की और कहा आप तो निराले चोर हैं।सेठ जी ने बहुत बहुत अपने भाग्यों को सराहाऔर महात्मा जी को धन्यवाद दिया कि आपकी ही कृपा से मेरा बचाव हो गया नहीं तो जाने मेरी क्या दुर्दशा होती। उन महात्मा जी को सेठ ने अपने घर पर ठहराया। वहाँ सतसंग की गंगा बह निकली। जिससे कितने ही लोगों का कल्याण हो गया।जब महाराज वहाँ से विदा होने लगे तो श्रद्धालु लोगों ने जुलूस निकाल कर उनका बड़ा सम्मान किया।
     महात्मा जी फिर अपनी ही कुटिया पर पूर्ववत रहने लगे।अकस्मात एकदिन फिर वही चाण्डाल चौकड़ी वहाआ निकली।महात्मा जी को वहाँ बैठा देखकर चारों चकित होकर लगे आपस में गुप्त चर्चा करने। यह शायद पकड़े गये होंगे और कारावास भोगकर अब लौटे हैं।इनसे विस्तृत वर्णन पूछना चाहिये। महात्मा जी को समाधि से जगाया और उस दिन का शेष वृत्तान्त सुनने की इच्छा प्रकट की। महात्मा जी ने बिना ननुनच किये सारी गाथा कह सुनाई वे लोग अपनी करनी पर बड़े लज्जित हुए। महात्मी जी के सच्चरित्र ने उन्हें विमुग्ध कर लिया। सबने उन से क्षमा याचना की और भविष्य में सदाचारी बन कर रहने का व्रत लिया। इतना ही नहीं वे उन महात्मा जी के शिष्य हो गये।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अँगुली कटी के कारण बली से बच गया


     एक राजा था उसका मन्त्री बड़ा ही विचारवान और ईश्वर का भक्त था। एक दिन राजा साहिब कलम बना रहे थे। अचानक चाकू उनकी अँगुलि पर लग गया। लहु की धारा बहने लगी। राजा के सारे कर्मचारी और राज दरबारी महाराजा के साथ अपनी सहानुभूति प्रकट करने लगे परन्तु वह महामन्त्री हर एक से यही कहता कि कोई चिन्ता की बात नहीं परमात्मा जो कुछ भी करते हैं उसमें भलाई छिपी होती है। इस दुःख का परिणाम अच्छा ही होगा।
     प्रभु भक्त मन्त्री राजा को भी यही बात कह कर शान्त कर देता कि महाराज! आप घबड़ाइये नहीं परमात्मा की ओर से जो कुछ भी होता है उसमें जीव का कल्याण छुपा है। परमात्मा की ओर से कभी भी किसी का अनिष्ट,अमंगल और अहित नहीं हुआ करता इस चोट में भी आपकी भलाई झांक रही है। दूसरे राज कर्मचारियों ने महाराजा के कान भरने शुरु किये कि यह आपका मन्त्री आपके कष्ट की रत्ती भर भी परवाह नहीं करता। ऐसा मन्त्री अवश्य ही आपको किसी दिन धोखा देगा। मन्त्री वह कैसा जिसमें अपने स्वामी के दुःख में इतनी साहनुभूति भी न हो, ऐसे मनुष्य को तो तत्काल दरबार से पृथक कर देना चाहिये।
     महाराजा भी उन की बातों में आ गये और मन्त्री को राज दरबार से बाहर कर दिया। किन्तु मन्त्री को इस बात का तनिक भी दुःख न हुआ। उसके मुख में वही पंक्ति काम कर रही थी। परमात्मा जो कुछ भी करता है अच्छा ही करता है। मैं तो उस की विराट इच्छा में सर्वदा प्रसन्न रहने वाला हूँ। जैसे ही राजा की अँगुली का घाव ठीक हुआ वह आखेट करने के लिये अपनेअहलकारों के साथ किसी जंगल में निकल गये। अभी नया मन्त्री चुना न गया था। स्वयं राजा ही आगे आगे जा रहे थे कि एक शिकार उन्हें दिखाई दिया बस फिर क्या था नरेश ने अपना घोड़ा उसके पीछे डाल दिया। दुर्भाग्यवश वह आखेट तो उसके हाथ न लगा और राजा एक गहन वन में जा पहुँचे। जंगली हिंसक जानवर वहाँ इधर उधर भागते हुए चिंघाड़ रहे थे और कहीं बड़े भयंकर विषैले सर्प वृक्षों की शाखाओं पर लटकते हुए भय उत्पन्न करते थे। अहलकारों के दुर्बल घोड़े राजा से विलग हो गये। राजा अकेले ही विश्राम करने की इच्छा से कोई रमणीय, शान्त और एकान्त स्थान खोजने लगे। भगवान भास्कर ने भी विदा ले ली। निशा की देवी ने पदार्पण करके दसों दिशाओं को अऩ्धकार में डुबो दिया। अकस्मात् महाराजा क्या देखते हैं कि सामने कहीं प्रकाश दिखाई दे रहा है। ज्यों ही राजा उसकी तरफ बढ़े कि कुछ सैनिकों ने आकर उसको घेर लिया। अब भूपति बड़े घबड़ाये कि यह क्या विपत्ति मुझ पर आ टूटी है। मैं तो निकला था शिकार करने परन्तु अपने आप ही मैं शिकार बन गया।राजा मन ही मन कहने लगे यह तो वो ही बात हुई जो कभी हज़रत मूसा के साथ हुई थी-मूसा डरया मौत से फिर आगे मौत खड़ी। अच्छा मेरे मालिक!जो तेरी मौज तू बड़ा ही बेपरवाह है।परन्तु तू ही सर्वरक्षक है तू बख्शनहार भी है। दीन बन्धो!प्रभो! मेरे अपराधों को क्षमा कर। दयालुदेव! बख्श दे मेरे गुनाह!क्षमाशील हो नाथ! मुझे केवल आपका ही भरोसा है। सैनिक ने कहा-तुम कौन हो? राजा ने कहा-मैं एक नगरी का राजा हूँ,शिकार खेलने के लिये निकला था, परन्तु जंगल में भटक गया और आपकी नगरी में भूल से आ गया। सैनिक ने कहा-तुम्हें पता होना चाहिये कि इस नगरी के राजा का यह हुक्म है कि रात्रि के समय जो कोई भी कुलीन पुरुष हमारी सीमा में आ जाय, उसकी बलि दे दो, हमारे यहाँ देवी का मन्दिर है तुम्हें भी अब हम वहीं ले जाएंगे, चलो हम कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। राजा चुपचाप उनके साथ और कोई चारा न देखकर चल पड़ा।
     राजा को पण्डितों के समक्ष लाया गया। उसके शरीर के अंगों की परीक्षा करते हुए उन्हें एक अंगुली कटी हुई नज़र आई। बस फिर क्या था झट से पण्डित ने कहा-कि इसे ले जाओ यह पुरुष बलि देने को योग्य नहीं है क्योंकि इसका अंग भंग हुआ हुआ है।पण्डितों के ऐसा कहने पर वह राजा तो मृत्यु के मुख से बच गया। सिपाहियों को नया आदेश हुआ कि तुम बलिकार्य के लिये ऐसे पुरुष को लाओ जिस के सम्पूर्ण अँग सही हों यही विधान है शास्त्र  का।
     इस प्रकार राजा जीवनदान पाकर जब लौट रहे थे तो मार्ग में सोचने लगे कि प्रभु कितने ही कल्याणकारी हैं। यदि मेरी अँगुली कटी न होती तो मैं आज महाकाल का ग्रास बन जाता। इस कटी हुई अंगुलि का ही प्रताप है जो मेरे प्राण और मेरा राजपाट दोनों पर कोई आंच नहीं आ सकी। महाराजा के मन में अपने मन्त्री को राज्य से निकाल देने का भी बड़ा पश्चाताप होने लगा। मन्त्री कितना अच्छा था जो कहता था कि ईश्वर जो करता है उस में जीव का हर तरह से भला ही छुपा होता है। मैने लोगों की बहकावट में आकर ऐसे बुद्धिमान, धर्मात्मा, सुशील और आज्ञापालक मन्त्री को अपमानित करके निकाल दिया। यह अच्छा नहीं किया। राजा स्वयंश्रद्धाभाव के साथ मन्त्री के घर पर पहुँचा और उससे बड़ी विनयपूर्वक क्षमा माँगी और कहा-""कि ऐ मन्त्रिश्रेष्ठ!मुझसे बड़ा घोर अपराध हुआ जो मैने लोगों के कहने से आपको मन्त्रिपद से हटा दिया। मुझे आप क्षमा करें और चल कर अपना काम देखें।''मन्त्री ने कहा-राजन्! इसमें आपका कोई दोष नहीं यह जो कुछ भी हुआ है सब उसी परमात्मा की आज्ञा अनुसार हुआ है। मालिक को ऐसा ही स्वीकार था यह सारा कौतुक उसी की इच्छा से ही सम्पन्न हुआ। वह प्रभु तो सब का मंगल करते हैं।देखिये,यदि डाकिया किसी के पास उसके पुत्र के मरने की तार ला देता है तो इसमें उसका क्या दोष?यह सब लीला उसी दयामय भगवान की है। उसी ने मेरे द्वारा अपनी मौज को पूरा करवाया है।इसी में ही बहुत भला हो गया।""मन्त्री जी!भला कैसा?''राजा ने शंकित स्वर से पूछा। मैने आप को नौकरी से हटा दिया। यह कोई भला काम थोड़े ही था? मन्त्री ने कहा, राजन्!यदि आप मुझे नौकरी से न हटाते तो मैं भी आपके साथ शिकार पर होता। हम दोनों अपने अपने शक्तिशाली घोड़ों पर इकट्ठे ही जंगल में गये होते। दोनों को ही उन सिपाहियों ने पकड़ लेना था।आप अंगुली के कटे होने से मुक्त हो जाते और मेरी बलि हो जानी थी।अब आप ही कहिये परमात्मा ने दोनों का ही किस सुन्दर ढंग से परम कल्याण कर दिया। सत्य है मन्त्री जी!मैने माना कि ईश्वर जो कुछ भी करता है उसमें प्राणी का सर्वथा मंगल छुपा होता है।वह सर्वरक्षक, दीनबन्धु,करुणासिन्धु और न्यायकारी है। प्रभु दयालु होते हैं। वे कभी किसी की बुराई नहीं सोचते कभी जीव को प्यार से और कभी मार से उसे सुमार्ग पर ले आते हैं।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

चूहे वाली पेटी खोलकर देख ली


     जो जीव मन की चालों से सावधान होकर सदैव सतगुरुदेव की आज्ञा पालन में तत्पर रहा कभी भी मन के बहकने में नहीं आया वह सौभाग्यशाली मनुष्य जीवन के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति करके सफल मनोरथ हो जाता है।और अपने जन्म को सफल कर जाता है लेकिन मन का काम तो सदा जीव को भटकाना ही है। मन का काम ही यही है जीव को भरमाना, बहकाना धोखा देना और पथ भ्रष्ट करना।इसलिये महापुरुषों ने मन से सदा सावधान रहने के लिये उपदेश किया है।
        मन के मते न चालिये  मन पक्का यमदूत।
        ले डूबे मँझधार में जब जाय हाथ से छूट।।
    मिश्र देश में युसुफ नाम का एक भक्ति परमार्थ का जिज्ञासु रहता था। परमात्म-साक्षात्कार की उसके ह्मदय में उत्कट अभिलाषा थी। फकीरों की संगति करने से उसे ये समझ आ गई थी कि कामिल मुर्शिद की शरण में जाकर उनसे नाम दीक्षा लेकर ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है अतएव वह कामिल मुर्शिद की खोज में लग गया। शीघ्र ही उसे मालूम हुआ कि अमुक स्थान पर जून्नून नामक फकीर रहते हैं जो कि पूर्ण महापुरुष हैं। वह उनकी शरण में गया और नाम दीक्षा के लिये उनसे विनय की। उसकी विनय सुनकर भी जून्नून मौन रहे। उन्होंने कोई उत्तर न दिया। लेकिन युसुफ निराश न हुआ। बल्कि नित्य प्रति उनका सतसंग श्रवण करने आने लगा और सेवा करने लगा। इस प्रकार चार वर्ष व्यतीत हो गये। यद्यपि इन चार वर्षों में फकीर जुन्नून ने युसुफ से एक बार भी नहीं पूछा कि तुम क्या चाहते हो। परन्तु युसुफ महापुरुषों की मौज समझ करऔर अपने में ही कमी समझकर श्रद्धा विश्वास से सेवा करता रहा। एक दिन साहस जुटाकर उनके पावन चरणों में सर रख कर आँखों में अश्रु प्रवाहित करते हुये विनय की-ऐ मेरा कृपालु गुरुदेव मुझपर कृपा कीजिए और मुझे नाम की दीक्षा दीजिए। फकीर जुन्नून ने उसकी विनय का कोई उत्तर न दिया परन्तु युसुफ का विश्वास फिर भी न डगमगाया। सोचा शायद अभी मुझमें कोई कमी है जो मुझे नाम दीक्षा नहीं दे रहे हैं। दूसरे दिन जब वह उनके चरणों में पहुँचा और प्रणाम किया तो फकीर जून्नून ने एक छोटा सा बक्सा उसे देते हुये फरमाया यह बक्सा ले लो और नील नदी के उस पार अमुक फकीर रहते हैं उन्हें दे आओ। परन्तु सावधान बक्सा खोलना नहीं। ऐसे ही उन्हें दे देना। युसुफ आज बहुत प्रसन्न था क्योंकि आज उसके मुर्शिद ने न केवल उसके प्रति कुछ वचन फरमाये थे अपितु सेवा भी बख्शी थी। वह बक्सा लिये नदी की ओर चल दिया। परन्तु मार्ग में मन उसे धोखा देने लगा कि देखना चाहिये कि इस बक्से में क्या है?बक्से में ताला तो लगा नहीं है। कुण्डी खोलकर देख लेने में क्या हर्ज है?युसुफ ने मन की चाल से बचने की बहुत कोशिश की परन्तु मन आखिर उस पर हावी हो गया। मन का कहना मानकर उसने जैसे ही ढक्कन खोला उसमें से एक चूहा निकलकर भागा। युसुफ ने उसे पकड़ने की कोशिश की परन्तु चूहा हाथ में न आया देखते ही देखते वह झाड़ियों में गायब हो गया। युसुफ को अब अपनी गलती का एहसास हुआ। परन्तु अब क्या हो सकता था। मन में सोचने लगा कि मैंने गुरु आज्ञा का उल्लंघन करके घोर पाप किया है। खाली बक्सा लेकर नदी पार कर युसुफ उस फकीर के पास पहुँचा उन्हे प्रणाम करते हुये विनय की कि मेरे मुर्शिद ने आपके लिये यह बक्सा भेजा है और भर्राई आवाज़ में बोला कि मुझे आपसे कुछ और भी कहना है। तब तक फकीर बक्सा खोल चुका था जो अब खाली था फकीर ने कहा तुम्हें कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मैं सब कुछ समझ चुका हूँ। इस बक्से में एक चूहा था जो तुम्हारे द्वारा बक्से का ढक्कन खोलते ही भाग खड़ा हुआ। ये शब्द सुनते ही पश्चाताप के आँसूं बहाते हुये उनके चरण पकड़ लिये और अपनी भूल के लिये क्षमा मांगने लगा। फकीर ने युसुफ के ह्मदय के भावों को पढ़ते हुये कहा युसुफ, मुर्शिद तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और सेवा भावना से अति प्रसन्न हैं तुम्हें सच्ची दात बख्शने से पहले तुम्हें यह दिखलाना चाहते थे कि भक्ति मार्ग में साधक का सबसे महान शत्रु उसका अपना मन ही है जो हर समय उसे पथ भ्रष्ट करने का प्रयत्न करता रहता है। तुमने यह देख लिया कि मन ने तुम्हें कैसे भरमाया इस मन से सदा सावधान रहना तुम्हें अपने किये पर पश्चाताप है अब तुम मुर्शिद के पास जाओ। हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है अब वे तुम पर कृपा करेंगे। युसुफ उन्हें प्रणाम कर वापिस मुर्शिद के चरणों में उपस्थित हुआ और उनके चरणों में गिर पड़ा मुर्शिद ने उसे उठाया और उसे अपने ह्मदय से लगा लिया तथा भक्ति धन से मालामाल कर दिया।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

इक दिन आयेगा हंस ज़रूर बन्दे


एक दिन एक व्यक्ति ने श्री परमहंस दयाल जी के श्री चरणों में विनय की कि लंगर और भँडारों का काम तो व्यर्थ का खर्च ही मालूम होता है।इससे क्या लाभ होता है? यूं ही सुण्ड-मुण्ड साधु आकर खा पी जाते हैं।यह सुनकर श्री परमहंस दयाल जी ने फरमाया कि किसी राजा ने यह सुना कि मानसरोवर में हंस होते हैं और वे मोती चुगते हैं।वहां पर और भी हज़ारों तरह के पक्षी रहते हैं। परन्तु वहां सर्दी बहुत पड़ती है,इसलिये हर एक व्यक्ति का रहना वहाँ सम्भव नहीं।यह सुनकर उस राजा के मन में हंसों को देखने का चाव उत्पन्न हुआ। उसने अपने चतुर मंत्री को बुलाकर अपना विचार प्रकट किया। उसने निवेदन किया कि मैं हंसों के दर्शन तो आपको यहीं पर करा सकता हूँ, परन्तु इस में इतना अधिक व्यय होगा कि आप घबरा जायेंगे और आश्चर्य नहीं कि लोगों के कहने-सुनने से आपके मन में मेरे प्रति गलत धारणा उत्पन्न हो जावे।
          दाना डालना परिन्दों को शुरु कर दे।।
          इक  दिन  आयेगा  हंस ज़रूर बन्दे।।
     राजा ने उसे हर प्रकार से विश्वास दिलाया और कहा कि चाहे जितना धन व्यय हो परन्तु हमको हंसों के दर्शन यहीं करा दो। मंत्री ने वन में पक्षियों को दाना डलवाने का प्रबन्ध करवाया,औरभांति-भांति का अनाज और गल्ला वन में प्रतिदिन डाला जाने लगा और हर प्रकार का प्रबन्ध उनकी सुविधा का कर दिया गया। राजा का आदेश हो जाने के कारण कोई उन पक्षियों को कष्ट नहीं पहुँचा सकता था। इस सुविधा के कारण देश-विदेश के पक्षी वहां आकर एकत्र हो गए यहां तक कि मान- सरोवर तक के पक्षी उड़-उड़कर वहां चले आए और मानसरोवर खाली सा दिखाई देने लगा तो एक दिन एक हँसनी ने हँस से इसका कारण पूछा। उसने सब हाल कह दिया कि अमुक देश में पक्षियों के खाने-पीने और रहने का बहुत अच्छा प्रबन्ध है, इसलिए सब पक्षी वहां चले गए। अब तो हँसिनी ने हंस को भी वहां जाने के लिए बाध्य किया कि ऐसे धर्मात्मा और उदार व्यक्ति का, जो पक्षियों तक की देख-रेख करता है, अवश्य दर्शन करना चाहिये। दोनों मानसरोवर से उड़कर उस राजा के देश में आए और मंत्री ने राजा को उनका दर्शन कराया।
     यह कथा सुनाकर श्रीपरमहंसदयाल जी ने फरमाया कि जब मनुष्य भंडारे आदि में धन व्यय करता है और प्रत्येक धर्म एवं सम्प्रदाय के साधुओं का आना-जाना बना रहता है तो उसकी उदारता तथा धर्म का हाल सुनकर कभी न कभी हंसऔर परमहंस भी वहाँआ ही जाते हैं और भंडारा करने वाले व्यक्ति को आत्मिक धन से मालामाल कर देते हैं।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

इंसान दुसरों के सुख में सुख देखे.

दो आदमीयों का चिमनी मे प्रेवश
       एक यहूदी फकीर हुआ,हसीद फकीर बालसेन। एक ईसाई पादरी बालसेन के ज्ञान से प्रभावित था।यहुदी और ईसाइयों में तो बड़ी दुश्मनी थी। लेकिन बालसेन आदमी काम का था। तो कभी कभी एकांत में उस यहुदी के पास ईसाई पादरी मिलने जाता था। एक दिन ईसाई पादरी ने पूछा कि तुम यहूदियों का तर्क कैसा है?तुम सोचते किस ढंग से हो? क्योंकि तुम्हारा सोचने के मुकाबले कोई तर्क नहीं दिखायी पड़ता। तुम जिस काम में लगते हो,सफल हो जाते हो,तुम जहाँ हाथ उठाते हो,वहीं सफलता पाते हो।मिट्टी छूते हो,सोना हो जाती है।तुम्हारा क्या तर्क है? व्यवस्था क्या है तुम्हारी सोचने की।तो बालसेन ने कहा कि एक कहानी तुमसे कहता हूँ।
      दो आदमी एक मकान की चिमनी से भीतर प्रवेश किये।दोनों शुभ्र कपड़े पहने हुए थे। चिमनी धुएं से काली थी।एक आदमी बिल्कुल साफ सुथरा चिमनी के बाहर आया,ज़रा भी दाग नहीं। दूसरा आदमी कालिख से पुता हुआ बाहर निकला,एक भी जगह साफ न बची थी। तो मैं तुमसे पूछता हूँ कि इन दोनों में से कौन स्नान करेगा? तो पादरी ने कहा,यह भी कोई पूछने की बात है?क्या तुमने मुझे इतना मूढ़ समझ रखा है?जो काला हो गया,कालिख से भर गया है,वह स्नान करेगा।बालसेन ने कहा, यही यहुदी तर्क में फर्क है। जो आदमी सफेद कपड़े पहने हुए है,वह स्नान करेगा।उसने कहा,हद हो गयी।क्या मतलब-समझाओ।तो बालसेन ने कहा, जो आदमी सफेद कपड़े पहने हुए है,वह अपने मित्र की हालत देखेगा।क्योंकि दुनियाँ में हरआदमी दूसरे की हालत देख रहा है।इसलिए मैं कहता हूँ,जिसके कपड़े सफेद हैं वह स्नान करेगा,क्योंकि वह समझेगा कि कैसी गंदी हालत हो रही है, चिमनी से निकलने पर। क्योंकि लोग दूसरे को देख रहे हैंऔर वह जो आदमी काले कपड़े पहने हुए है, वह मज़े से घर चला जायेगा। क्योंकि वह देखेगा कि अरे। गज़ब की चिमनी है इतनी कालिख लेकिन निशान एक नहीं आया है। क्योंकि हर आदमी दूसरे को देख रहा है।उसी आधार पर निर्णय ले रहा है।आप देख रहे हैं दूसरे का सुख, दुखी हो रहे हैं, उसके आधार पर निर्णय ले रहे हैं। देखें दूसरे का सुख और आप सुखी होना शुरु हो जायेंगे क्योंकि तब आपको अपना दुःख नहीं दिखायी पड़ेगा।और न केवल देखें दूसरे का सुख, दूसरे के सुख में उत्सव मनायें।जो आदमी दूसरे के सुख में उत्सव मना सकता है उसको सुख के अवसर की कमी न रहेगी।उसे प्रतिपल सुख का अवसर मिल जायेगा।क्योंकिअरब लोगों के सुख, तबआपकी संपत्ति, सभी के सुख आपकी संपत्ति हो गये। अपने दुःख के प्रति कठोर, दूसरे के सुख के प्रति बहुत संवेदनशील,ऐसा जो साध लेता है वह सदा के लिये सुखी हो जाता है।
आदमी है दुःख में सुख खोजता है। जितना सुख खोजता है, उतना दुःखी होता जाता है।जब बोध जगता है कि मेरे सुख की खोज ही मेरे दुःख का कारण है तो साधना का जन्म होता है तब आदमी सुख नहीं खोजता, दुःख से नहीं बचना चाहता,सुख-दुःख दोनों से उठना चाहता है। सांसारिक आदमी है वह,जो दुःख से ऊपर उठने का रास्ता,मार्ग खोजता है। संन्यासी है वह,जो समझ गया कि दुःख से बचनेऔर सुख कोखोजने में ही दुःख है।तो सन्यासी है वह जो सुख और दुःख से ऊपर उठने का रास्ता,मार्ग खोजता है।सिद्ध है वह, जो पहुँच गया उस जगह, जहाँ सुख और दुःख के पार हो गया।सुख दुःख के पार होते ही आनन्द घटित हो जाता है। बोधिसत्व है वह, जो इस आनन्द को पाकर खो नहीं जाता, चुप नहीं हो जाता,बैठे नहीं रहता वरन् जो दुःख में हैं,उनके लिए वापिस लौट आता है।

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

नाम बेड़ी सन्त मल्लाह


          नाम बेड़ी सन्त मल्लाह। पार लगावें ख्वाहमखाह।।
     एक सुबह, एक घुड़सवार एक रेगिस्तानी रास्ते से निकल रहा था। एकआदमी सोया हुआ हैऔर उस घुड़सवार ने देखा,उस आदमी का मुंह खुला हुआ हैऔर एक छोटा सा साँप उसके मुँह में चला गया।वह घुड़- सवार उतरा। उसके पीछे उसके दो साथी थे। उनको उसने बुलाया। उस आदमी को उठायाऔर ज़बरदस्ती उसे घसीटकर पास ही नदी के किनारे ले गये और ज़बरदस्ती उन तीन चार लोगों ने उसे पानी पिलाना शुरु किया। वह आदमी चिल्लाने लगा,क्या तुम मनुष्यता के शत्रु हो,तुम क्यों मुझे पानी पिला रहे हो?तुम क्यों मुझे परेशान कर रहे हो?क्याज़बरदस्ती है यह?लेकिन उन्होंने बिल्कुल भी नहीं सुना। वे ज़बरदस्ती पानी पिलाते गये।वह नहीं पीने को राज़ी हुआ,तो उन्होंने धमकी दी कि वे उसे कोड़ों से मारेंगे। उस गरीब आदमी को ज़बरदस्ती पानी पीना पड़ा।लेकिन वह पानी पीता गयाऔर चिल्लाता गया, विरोध करता गया कि तुम क्या कर रहे हो? मुझे पानी नहीं पीना है। जब बहुत पानी वह पी गया, तो उसे उल्टी हो गयी और उस पानी के साथ वह छोटा सा साँप भी बाहर निकला। तब तो वह हैरान रह गया।वह आदमी कहने लगा कि तुमने पहले क्यों न कहा?मैं खुद ही अपनी मर्ज़ी से पानी पी लेता। उस घुड़- सवार ने कहा,मुझे जीवन का अनुभव है पहली बात, अगर मैं तुमसे कहता कि सांप तुम्हारे मुंह में चला गया है। तो तुम हँसते और कहते, क्या मज़ाक करते हैं। सांप और कही मुंह में जा सकता है?दूसरी बात, अगर तुम विश्वास कर लेते, तो यह भी हो सकता था कि तुम इतना
घबड़ा जाते कि तुम बेहोश हो जाते।और तुम्हें बचाना मुश्किल हो जाता।तीसरी बात,यह भी हो सकता था कि तुम पानी भी पीने को राज़ी होते,तो हमारे समझाने बुझाने में इतनी देर लग जाती कि फिर उस पानी पीने का कोई अर्थ न रहता। मुझे क्षमा करना, उस घुड़सवार ने कहा, मज़बूरी में हमें तुम्हारे साथ जोर करना पड़ा।उसके लिए क्षमा कर देना। लेकिन वह आदमी धन्यवाद देने लगा हज़ार हज़ार धन्यवाद देने लगा। यही आदमी थोड़ी देर पहले चिल्ला रहा था कि क्या तुम आदमियत के शत्रु हो, तुम यह क्या कर रहे हो? एक अन्जान आदमी के साथ यह क्या ज़बरदस्ती हो रही है। अब वह हज़ार हज़ार धन्यवाद दे रहा है।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

श्रेष्ठ श्रोता राबिया


रबिया,हज़रत हसन बसरी जी के प्रमुख शिष्यों में से थीं। राबिया भक्ति प्रेम से भरपूर थी। हज़रत हसन बसरी जब भी प्रवचन उपदेश करते तो राबिया को बिल्कुल सामने बिठाते। जिसदिन वह सतसंग में उपस्थित न होतीं तो हज़रत मौन धारण कर लेते। प्रवचन भी न फरमाते। उनके सत्संग में अत्यधिक संख्या में बड़े बड़े अमीर और उच्चपद के व्यक्ति आते। उनमें से एक ने विनय की कि क्या कारण है कि एक शिष्या की अनुपस्थिति में आप प्रवचन नहीं करते। आपने फरमाया कि जो शरबत मुझे हाथियों के मुख में डालने के लिए दिया गया है, वह चींटियों के मुँह में कैसे डालूँ। अर्थात् एक अधिकारी आत्मा लाखों से बढ़कर है।
     आपसे किसी ने पूछा कि सतसंग में इतनी भीड़ होने पर आपको खुशी होती होगी।आपने फरमाया-नहीं,यदि कोई सच्चा जिज्ञासु,भक्त और विरही आ जाता है तो खुशी होती है।इतनी भीड़ मेले की न्यार्इं है।जिसमें भक्तों का कार्य सिद्ध नहीं होता।

तीन प्रकार के मनुष्य

तीन प्रकार के मनुष्य(श्री वचन)
एक दिन वचन हुये कि मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं। उत्तम,मध्यम और कनिष्ठ। कनिष्ठ वे हैं जो विघ्न के भय से कार्य को आरम्भ ही नहीं करते, मध्यम वे हैं जो प्रारम्भ करके विघ्न को देखकर काम को छोड़ देते हैं और उत्तम वे हैं जो बार-बार विघ्न पड़ने से कार्य को आरम्भ करके बीच में नहीं छोड़ते अर्थात् उसको अवश्य पूरा करते हैं।
     एक दिन श्री वचन हुए कि अभ्यासी अथवा सत्संगी चार प्रकार के होते हैं। प्रथम वे जो पोथी में पढ़कर अथवा किसी से श्रवण करके सारी बातें कण्ठस्थ कर लेते हैं जैसे कोई वैद्यक की पुस्तकें पढ़कर अथवा मौखिक रूप से सुनकर केवल नुस्खा स्मरण कर ले,परन्तु औषधि न खाये। दूसरे,जो केवल दिखलावे के लिए दो-चार मिनट अथवा अधिक देर तक नेत्र मूँदकर बैठ जाते हैं जैसे कोईऔषधि मुँह में डालकर कुल्ला कर दे।तीसरे,जो पुरुषार्थ करकेअभ्यास करते हैं,पर कभी-कभी विषय आदि मेंआसक्त हो जाते हैं जैसे कोई दवा तो पिये,परन्तु परहेज़ न करे। चौथे,जो पुरुषार्थ,सच्ची लगन और प्रेम के साथ अभ्यास करते हैं और विषयों से सदैव बचे रहते हैं जैसे कोई दवा भी पिये और पूरा परहेज़ भी करे।इस प्रकार के मनुष्य अभ्यास का पूरा पूरा लाभ उठाते हैं।
    एक दिन श्री वचन हुए कि कान तीन प्रकार के होते हैं अर्थात् बात सुनने और उस पर आचरण करने वाले मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं। प्रथम सूप के समान जो अच्छी वस्तु को रखता है और कूड़े-करकट को फटक कर फेंक देता है। इसी तरह से इस प्रकार के मनुष्य अच्छी बात को ग्रहण करते हैं और बुरी बात को छोड़ देते हैं।
        दूसरे छलनी के समान,जो छानअर्थात् बेकार वस्तु को रखती है और उत्तम वस्तु अर्थात् आटे को नीचे गिरा देती है इस प्रकार के मनुष्य अवगुणों और बुराइयों को ग्रहण करके सार वस्तु(गुणों) की अपेक्षा कर देते हैं।
     तीसरे मूसल के समान जो अच्छे और बुरे-दोनों को इकट्ठे कूटता है,अच्छे-बुरे की अलग पहचान नहीं कर सकता इस प्रकार के मनुष्य बात को सुनकर उस पर विचार नहीं कर सकते और न ही अच्छे-बुरे को अलग-अलग कर सकते हैं। उनसे पूछने पर यह मालूम होगा कि वे
कुछ समझे ही नहीं कि यह वस्तु नित्य एवं शाश्वत् है या नश्वर एवं अस्थायी, अच्छी और काम में आने वाली है या बुरी और नरर्थक।
     उत्तम मनुष्य वे हैं जो सूप के समान अच्छे-बुरे और शुभ-अशुभ का विचार करके बुरी वस्तु अर्थात् अशुभ विचारों का त्याग करते हैं और काम में आने वाले अच्छे और शुभ विचारों को अपने ह्मदय में स्थान देते हैं।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

सच्चे और झूठे की दृष्टि भिन्न भिन्न


     सूफी कहानी है। एक गाँव में एक सूफी आया। उसे किसी यात्रा पर जाना था। पहाड़ों में छिपा हुआ छोटा सा मन्दिर था, जिसकी वह तलाश कर रहा था। उस सूफी फकीर ने गाँव के लोगों से पूछा एक चायघर के सामने जाकर,कि इस गाँव में सबसे सच्चा आदमी कौन है? और सबसे झूठा आदमी कौन है?गाँव के लोगों ने बता दिया। छोटे गाँव में सभी को सभी का पता होता है,कि सबसे झूठा आदमी कौन है,सबसे
सच्चाआदमी कौन है।वह सूफी सबसे सच्चेआदमी के पास गया पहले और उसने पूछा कि मैं उस छिपे हुए मन्दिर की तरफ जाना चाहता हूं, जिसकी चर्चा शास्त्रों में सुनी है।अगर तुम्हें मार्ग पता हो तो सबसे सुगम मार्ग क्या है, वह मुझे बता दो। तो उस ने कहा,सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से ही हो कर जाता है। और इस-इस विधि से तुम चलो, लेकिन पहाड़ों से गुज़रना होगा।वह आदमी फिर सब से झूठे आदमी के पास गया और बड़ा हैरान हुआ। क्योंकि उस झूठे आदमी से भी उसने पूछा तो उसने कहा, कि सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से गुज़रता है। और यह-यह मार्ग है और तुम्हें इस इस भाँति जाना होगा।दोनों के उत्तर समान थे। तब वह बड़ा हैरान हुआ। तब उसने गाँव में जाकर तलाश की, कि यहाँ कोई सूफी तो नहीं है, कोई फकीर तो नहीं है।
    ध्यान रखना,सच्चा आदमी, झूठा आदमी दो छोर हैं। और जब कोई आदमी संतत्व को उपलब्ध होता है तो दोनों के पार होता है। अभी वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया, कि किसकी मानूँ?और उसने सोचा था कि झूठा आदमी विपरीत बात कहेगा। लेकिन पापी, पुण्यात्मा दोनों ने एक उत्तर दिया। अब कौन सही है?तो वह एक सूफी फकीर का पता लगा कर उसके पास गया। उस फकीर ने कहा, दोनों ने एक सा उत्तर दिया है लेकिन दोनों की नज़र अलग अलग है।सच्चे आदमी ने इसलिए तुम्हें कहा कि तुम पहाड़ के ऊपर से जाओ, एक मार्ग नदी के ऊपर से जाता है, वह उसे पता है। लेकिन न तो तुम्हारे पास नाव है जिससे तुम यात्रा कर सको,और न नाव से यात्रा करने केअन्य साधन और सामग्री तुम्हारे पास है। फिर तुम्हारे पास यह गधा भी है जिसके ऊपर तुम सवार हो।
यह पहाड़ पर तो सहयोगी होगा,नाव में तो उपद्रव होगा।इसलिए तुम्हारी पूरी स्थिति को सोचकर कहा,कि तुम पहाड़ से जाओ। सुगम मार्ग तो नाव से है। लेकिन तुम्हारी स्थिति देखकर सुगम मार्ग पहाड़ से बताया गया।और झूठे आदमी ने इसलिए पहाड़ से कहा, ताकि तुम मुसीबत में पड़ों।वह तुम्हे सताना चाहता है।उत्तर एक से हैं,दृष्टि भिन्न है। कृत्य भी एक से हो सकते हैं। इसलिए कृत्यों से कुछ तय नहीं होता।अन्तर्भाव से तय होता है। समझो,तुम्हारा छोटा लड़का है, तुम उसे कभी चांटा भी मारते हो, लेकिन वह चाँटा पाप नहीं है।अगर वह प्रेम से मारा गया है, तो सृजनात्मक है। वह उस बच्चे को मिटाने के लिए नहीं,वह उस बच्चे को बनाने के लिए है।तुमने भरपूर प्रेम से मारा है।तुमने मारा हीइसलिए है,कि तुम प्रेम करते हो। प्रेम न हो तो तुम फिक्र ही नहीं करते।भाड़ में जाओ। जो करना हो करो।एक उपेक्षा होती है। लेकिन तुम प्रेम पूर्ण हो इसलिए बच्चे को हर कहीं नहीं जाने दे सकते। वह आग में गिरना चाहे तोआग में नहीं गिरने दोगे।तुम उसे रोकोगे।तुम उसे मार भी सकते हो। लेकिन उस मारने में पाप नहीं है।उस मारने में पुण्य है क्योंकि सृजन हो रहा है।तुम कुछ बनाना चाहते हो।लेकिन तुम एक दुश्मन को मारते हो। चांटा वही है,हाथ वही है,ऊर्जा वही है, लेकिन जब तुम दुश्मन के भाव से मारते हो, तो तुम कुछ बनाने को नहीं मारते। तुम कुछ मिटाने को मारते हो। पाप हो गया। कृत्य पाप नहीं होते। तुम्हारे भीतर की दृष्टि अगर विधायक है, तो कोई कृत्य पाप नहीं है। अगर तुम्हारी दृष्टि विध्वंसात्मक है तो सभी कृत्य पाप हैं।

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

घोड़ी की लगाम सतगुरु के हवाले की


     शाह अब्दुल लतीफ को नूर मुहम्मद कल्होड़े ने एक घोड़ी भेजी कि इस पर चढ़कर मेरे  पास आ जाओ। शाह साहिब जैसे ही उस पर सवार हुये, वह कूदने-फांदने लगी। शाह साहिब ने उसकी लगाम कसने की अपेक्षा ढीली छोड़ दी। घोड़ी कूदना-फांदना छोड़ कर सीधी तरह चलने लगी। शिष्यों ने जब आपसे पूछा कि लगाम कसने की बजाय आपने ढीली क्यों छोड़ दी, तो आपने उत्तर दिया, हमने जब अपने मन की लगाम सदगुरु को सौंपी, तभी वह चंचलता छोड़कर शान्त हुआ। मन की तरह हमने घोड़ी की लगाम भी उन्ही के हवाले कर दी। उन्होंने (सद्गुरु ने) इसकी सब मस्ती उतार दी और अब देख लो कि सब चंचलता और कूद-फांद छोड़कर कैसी शान्ति से चल रही है।
     सिंध के सन्त सामी साहिब ने एक स्थान पर फरमाया है कि उस सेवक के भाग्यों की मैं कहां तक सराहना करूँ, जिसने अपने मन की बागडोर सद्गुरु को सौंप रखी है और जो अपने सब विचार छोड़कर सद्गुरु की आज्ञा-मौज अनुसार सेवा-भक्ति में लीन रहता है।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

वाणी का चमत्कार


प्रसिद्ध है कि ज़ुबान की मार बुरी होती है और यह बात बिल्कुल सच्ची भी है।यह भी कहा जाता है कि तलवार का घाव तो भर सकता है मगर ज़ुबान का किया हुआ घाव कभी नहीं भरता,अथवा यदि भरता भी है तो बहुत कम। क्योंकि ज़ुबान से कही हुई बात तीर का दर्ज़ा रखती है और वह दिल में बिल्कुल तीर ही की तरह उतर जाती है।इसलिये यह सन्तों की खास हिदायत है कि कभीभूलकर भी बुरी बात ज़ुबान से न निकाली जाये। दूसरों का दिल दुखाने वाली बात कहने से सुनने वालों का दिल तो दुखता ही है,साथ हीअपने दिल में भी बुराई और गुस्सा घर कर जाते हैं। इसकेअतिरिक्त पीठ पीछे दूसरों की बुराईऔर निन्दा करना,औरों की चुगलीखाना तथा व्यर्थ ही झूठमूठ की बातें बनाना-ये सब भी बुरी आदतें हैं। ये सभी बहुत नुकसान करने वाली हैं।जहाँ तक बन पड़े,इनसे दूर ही दूर रहना चाहिये। कभी हँसी-मज़ाक में भी झूठ बोलना या बनाकर बात कहना नुकसान का कारण हो सकता है।यही हँसी-खेल में ही दूसरों के लिये बुरी बात कहना दसरों के दिलों को घायल कर सकता है और उसका नतीज़ा अति भयानक भी हो सकता है। ऐसा करने से हमेशा परहेज़ करो।जो बात भी कही जाये, सोच विचाकर और सँभलकर कही जाये। तुम्हारी ज़ुबान ही तुम्हारी असलियत को ज़ाहिर करने वाली है। जो बात तुम्हारे मुख से निकलती है, उसमें तुम्हारी आदत, स्वभाव और प्रकृति की सूरत झलकती दिखाई देती है। तथा दूसरे लोग उसी से ही तुम्हारी हालत का अंदाज़ा लगायेंगे, जो कि आमतौर पर गलत नहीं हो सकता। सन्तों का यह कथन है।
   ता मर्द सखुन नगुफता बाशद। ऐब-ो-हुनरश निहुफता बाशद।
   हर बेशा गुमाँ मबर कि खाली-स्त। शायद कि पिलंग खुफता बाशद।
अर्थः-""जबतक आदमी मुँह से कोई बात नहीं कहता, उसके गुण-औगुण दूसरों की दृष्टि से छुपे रहते हैं।लेकिन ज्योंही वह कुछ कहने लगता है कि उसका वास्तविक रूप ज़ुबान के रास्ते निकल कर दूसरों के सामने आ जाता है। इसलिये ए इन्सान!प्रत्येक जंगल के बारे में यह ख्याल मत कर कि यह खाली होगा। तुझे क्या मालूम कि शायद उसमें कोई चीता सोया पड़ा हो और तू न जानता हो।तथा वही तेरे छेड़ने से जाग पड़ेऔर नुकसान पहुँचावे।''
    बात तो वही होती है,उसके कहने के ढंग में अन्तर आ जाने से वही नुकसान का ज़रीया भी बन सकती हैऔर वही फायदा भी पहुँचा सकती है। अकलमंद और समझदार इन्सान हमेंशा सोच विचार कर बात कहे हैं। जिससे कि न दूसरों का दिल दुःखी हो और न किसी को नुकसान पहुँचे। लेकिन ज़रा भी सोच समझकर बात न कहने से और बे-समझी के कारण बड़े बड़े नुकसान भी हो जाते हैं। महाभारत की भारी लड़ाई केवल एक छोटी सी बात पर लड़ी गई थी, जिसमें लाखों करोड़ों जानों का नुकसान हुआ। वह बात फकत इतनी थी कि हँसी हँसी में पाण्डवों की महारानी द्रोपदी ने कौरवों के राजा दुर्योधन को अंधे पिता का पुत्र होने का ताना दिया था। जिस पर क्रोध में आकर दुर्योधन युद्ध के लिये तैयार हो गया और नतीजा को तौर पर सारे भारतवर्ष में खून की वह नदी बह निकली, जिसकी मिसाल इतिहास में और नहीं मिलती।
     एक छोटा सा दृष्टान्त शैख सादी साहिब ने भी इसी बात पर दिया है। किसी राजा ने स्वप्न में देखा कि उसके मुख से सब दाँत झड़ चुके हैं। सुबह को जब राज दरबार में आया, तो अपने दरबार के नजूमियों से इस स्वप्न का फल पूछा।राजा के दरबार दो अच्छे ज्योतिषि थे। एक वहाँ उपस्थित था,दूसरा ज्योतिषि घर पर था।जो वहाँ उपस्थित था, उसने ज्योतिष का हिसाब लगाकर बतलाया,""महाराज!इस स्वप्न का फल यह है किआपके परिवार के जन रानियाँ,बाल-बच्चे सम्बन्धी बन्धु-मित्र आदि सबके सब आपकी आँखों के सामने मर जावेंगे।''ज्योतिषी की यह बात सुनकर राजा को सख्त गुस्साआ गया।उसने हुकुम दिया कि इस गुस्ताख ज्योतिषी को इसीसमय हाथी के पाँव तले कुचलने को डाल दिया जावे। ऐसा ही किया गया।उसके बाद राजा ने दूसरे ज्योतिषी को उसके घर से बुला भेजा।यह ज्योतिषी कुछ बुद्धिमान था।उसने पहले ज्योतिषी का सब हाल सुन लिया और हिसाब लगाकर देखा, तो स्वप्न का वही फल ठीक उतरता था। परन्तु उसने समझदारी से काम लिया।जब वह राज्य-दरबार में पहुँचा और राजा ने उसके स्वप्न फल के बारे में पूछा, तो वह हाथ जोड़कर बोला,""अन्नदाता की जय हो!इस अनोखे स्वप्न का फल अति शुभ हैऔर वह यह है कि हुज़ूर की आयु बड़ी लम्बी होगी। अर्थात् हुज़ूर के परिवार के प्रियजनों,बन्धु-बाँधवों और सम्बन्धियों आदि से हुज़ूर की आयु बढ़कर निकलेगी।'' इतनी बात का सुनना था कि राजा जो क्रोध में भरा बैठा था, खुशी से भर गया।उसकी भड़कती हुई क्रोधाग्नि शीतल वचन रूपी जल के छींटों से शान्त हो गई।उसने हुकुम दिया कि इस दूसरे ज्योतिंषी को एक सजा-सजाया हाथी पुरुस्कार में दे दिया जाये। एक कवि भी राज्य दरबार में मौजूद था। उसने तुरन्त ही समय-अनुकूल दोहा पढ़ाः-     
          बात ही हाथी पाईयै, बात ही हाथी पाय।।
          बात न कीजै अटपटी, कीजै बात बनाय।।
अर्थात एक बात के कहने से तो हाथी इनाम में पाया जाता है और एक बात के कहने से हाथी के नीचे डलवाया जाता है। इसलिये विचारवान को हमेशा बात ठीक तरह बनाकर कहनी चाहिये। बे-सोची-समझी और अटपटी बात हरगिज़ नहीं कहना चाहिये। गौर किया जाये कि पहले ज्योतिषी ने जो बात कही थी, दूसरे ज्योतिषी की कही हुई बात का भी असल में वही अर्थ था, लेकिन उसने उसी आशय को कुछ इस ढंग से अदा किया कि राजा का चित्त प्रसन्न हो गया। जबकि पहले ज्योतिषी की बात उसके दिल में तीर की तरह चुभ गई। इसी से समझा जा सकता है कि बात बात के कहने में कितना बड़ा फेर पड़ सकता है और नतीजा कितना अच्छा या बुरा निकल सकता है। गाली-गलौच और निन्दा के बारे में तो खास तौर सन्तों ने सख्त हिदायत की है इनसे बचने की कोशिश करते रहना चाहिए।
          गार अँगारा क्रोध झल, निंदिया धुआँ होय।।
          इन तीनों कौ परिहरै, साध कहावै सोय।।
अर्थ:-गाली अंगारे की तरह है,क्रोध पागलपन की निशानी है और दूसरों की निन्दा आग से उठने वाले धुएं की तरह है जो कोई इन तीनों को त्याग देता है, वही सच्चा साधू कहलाता है।

शीतऋतु में परीक्षा ली


श्री गुरुमहाराज जी के चरणों में  एक उपदेशी ने कई बार इस बात के लिये प्रार्थना की कि श्री महाराज जी! मुझको भी भजनाभ्यास की युक्ति बताने की कृपा फरमावें। किन्तुआप उसकी बात को सुनकर सदैव मौन धारण कर लेते थे।जब उसने बार बार विनय की तो श्री महाराज जी ने फरमाया कि लुकमान हकीम का यह नियम था कि जब कोई व्यक्ति उन के पास शिष्य होने को आता तो वे उसकी भली-भाँति परीक्षा कर लेते थे। एक बार एक व्यक्ति शीतऋतु में शिष्य बनने के विचार से उपस्थित हुआ।लुकमान ने रात को उसे एक चारदीवारी के अन्दर बन्द कर दिया, जहाँ शीत से बचने के लिये कोई स्थान न था।जब हिमपात प्रारम्भ हुआ और शीतल वायु भी चलने लगी,तो उसके अंग-प्रत्यंग शीत से शिथिल पड़ने लगेऔर शरीर ठण्डा होने लगा। उस समय उस मनुष्य ने उठकर चारों ओर देखना आरम्भ किया। कि कदाचित कोई वस्तु अथवा स्थान ऐसा मिल जाये जिससे सर्दी हटाऊँ!किन्तु वहाँ केवल एक भारी पत्थर और एक सोटे के और कुछ न पाया।मन में सोचा कि इन्हीं के माध्यम से प्राण बचाने का कोई ढंग निकालना चाहिये।अन्ततोगत्वा सोटा संभाल कर खड़ा हो गयाऔर उस पत्थर को उठाना,सरकाना और इधर से उधर लुढ़काना प्रारम्भ किया। इस प्रकार जब अत्यन्त परिश्रम किया तो शरीर में गर्मी आईऔर सर्दी दूर हो गई। जब खूब थक गया तो एक स्थान पर बैठ गया।जब फिर शरीर जकड़नाआरम्भ हुआ,तो वही पत्थर और सोटा संभाला। इसी प्रकार प्रयत्न और परेशानी में रात्रि व्यतीत की। प्रातः जब लुकमान के सम्मुख उपस्थित हुआ तो उन्होने उसको शिष्य बना लिया और अपने घर वापिस जाने काआदेश दिया। वह व्यक्ति सोचने लगा कि न तो इन्होने कछ पढ़ाया।न कुछ सिखाया और न ही कुछ बताया, फिर ये गुरु कैसे और मैं शिष्य कैसा?लुकमान ने उसके मन की अवस्था समझकर कहा कि भाई!जो कुछ है तुम्हारे भीतर ही विद्यमान है। हमको केवल इतना देखना था कि तुम उसआन्तरिक ज्ञान से कहां तक लाभ उठा सकते हो?सो हमने देख लिया कि कल रात बिना किसी पहनने अथवा ओढ़ने की वस्तु के,उस सख्त सर्दी और हिमपात से तुमने अपने प्राण बचा लिये।वहां तुमको किसने बताया और सिखाया?वह मेरा सूक्ष्म रूप था,जो तुम्हारे घट में विद्यमान है।वही सदैव तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहेगा। तुम्हारा उस से सम्बन्ध जुड़ा रहना चाहिये।
     उपरोक्त कथा सुनाकर श्री महाराज जी ने फरमाया कि भक्त जी! बताने को तो हमने भी आपको सब कुछ बता दिया है। अब तुम केवल इतना कर लो कि हमारे ध्यान को चित्त में दृढ़ कर लो।वह परोक्षरूप से तुम्हारा पथ-प्रदर्शन करता रहेगा।और तुम्हारी सुरति उच्च स्थानों की सैर का आनन्द उठाती रहेगी।