मंगलवार, 28 जून 2016

भक्ति की रक्षा

एक छोटे से गाँव में रहने वाले मुर्गे को अपनी आवाज़ पर बड़ा नाज था। एक दिन एक चालाक लोमड़ी उसके पास आई और बोली, "मुर्गे महाशय! सुना है, आपकी आवाज़ बड़ी प्यारी और बुलंद है।' मुरगे ने गद्गद् होकर अपनी आँखें मीचीं और ऊँची आवाज़ में चिल्लाया-कु कुकुड़ूँ--कूँ! कु कुकुड़ूँ--कूँ! पर तभी लोमड़ी ने फुरती से उसे अपने मुँह में दबोच लिया और जंगल की तरफ भाग चली। गाँव वालों की नज़र उस पर पड़ी तो वे चिल्लाए,"पकड़ो, मारो! यह तो हमारा मुरगा दबोचे लिये जा रही है।' लोमड़ी ने उनकी चिल्लाहट पर ध्यान नहीं दिया। यह देखकर मुरगा बोला,"लोमड़ी बहन, ये गाँववाले चिल्ला रहे हैं कि मेरा मुरगा दबोचे लिये जा रही है। आप इन्हें जवाब क्यों नहीं दे देतीं कि यह मुर्गा आपका है, उनका नहीं?' लोमड़ी को मुरगे की बात जम गई। उसने फौरन मुँह खोला और गाँव वालों की ओर देखकर कहा,"भूल जाओ अपने मुरगे को। यह तो अब मेरा निवाला है।' पर यह कहने के साथ जैसे ही लोमड़ी का मुंह खुला, मुरगा उसके मुँह से छूट गया। वह सरपट भागा और गाँववालों के पास पहुँच गया।
      जब आदमी अपने अहंकार में फूला फिरता है और किसी के द्वारा प्रशंसा सुन कर फूल कर कुप्पा हो जाता है तो समझो वह काल के मुँह का निवाला बन जाता है। जैसे कि मुरगा अपनी प्रशंसा सुनकर फूला नहीं समाया और लोमड़ी के मुँह का निवाला बन बैठा। दूसरी शिक्षा इस दृष्टान्त से यह मिलती है कि अगर कोई अपनी भक्ति की कमाई को पाकर उसे छुपा कर नहीं रखता अर्थात् अपनी सिद्धियों का बखान करता है तो उसके हाथ में आई हुई भक्ति की सम्पदा छूट जाती है। जैसे लोमड़ी के मुंह आया हुआ मुरगा पाकर भी मौन न रह सकी, और अपने नि़वाले से हाथ धो बैठी।

रविवार, 26 जून 2016

मूर्ति की नसीहत


एक सुंदर सुगंधित गुलाब के फूल ने पास पड़े एक पत्थर का मज़ाक उड़ाते हुए कहा-तुम्हारा शरीर कितना खुरदरा, बेजान और बेमतलब है? एक जगह पड़े रहते हो, आते-जाते लोगों के पांव की ठोकर खाते हो। पत्थर गुलाब की बात पड़े-पड़े सुनता रहा कुछ नहीं बोला। शाम को वही गुलाब का फूल मुरझा गया। कलियां उसे मुरझाते हुए देख रोने लगीं। उसी शाम एक मूर्तिकार की नज़र उस पत्थर पर पड़ी। उस मूर्तिकार ने छैनी हथोड़े के सहयोग से तराश कर उसमें से एक मनभावन सुंदर भगवान की मूर्ति को प्रकट किया। वह मूर्ति मंदिर में प्रतिष्ठित हुई। उसकी पूजा अर्चना होने लगी। वे कलियां जो अब फूल बन चुकीं थीं, उस मूर्ति के चरणों में अर्पित कर दी गई। फूलों को अपने चरणों में अर्पित किए जाने पर वह पत्थर हंसा। कलियां पत्थर की हंसी को समझ नहीं पार्इं, बड़ी लज्जा के साथ उन्होंने पूछा कि आप हम पर क्यों हंस रह हो? मूर्ति बने पत्थर ने बड़े धैर्य से कहा-बहनो! कृपा कर अपनी संतानों को इस बात से अवगत करा देना कि कोई फूल किसी पत्थर का मखौल नहीं उड़ाए। न उसे घृणा की नज़र से देखे। कौन जाने किसके भाग्य में क्या लिखा है? मूर्ति की बात सुनकर कलियां समझ गर्इं कि किसी का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए क्योंकि कल तक जो पत्थर लोगों के पांवों की ठोकरें खा रहा था आज उसी के चरणों में हज़ारों लोग सिर झुका रहे हैं।


शुक्रवार, 24 जून 2016

दान का महत्व

एक बार की बात है किसी देश के राजा की कथा है जो कि बड़ा दानी था| लेकिन उसका नियम था कि वह केवल एक निश्चित समय पर दान दिया करता था| उसके बाद वह किसी को दान नहीं देता था| एक दिन उस राजा के पास एक सन्त जी आये जिनका नियम था कि वे केवल एक ही घर में भीक्षा के लिए जाते थे जो कुछ मिलता था उसी से गुजारा करते थे और जहाँ वे जाते कुछ न कुछ थोडा या ज्यादा जरुर लाते थे| अब सन्त जी ने राजा से भीक्षा मांगी लेकिन राजा का दान का जो निश्चित समय था वह ख़त्म हो चुका था| राजा ने सन्त जी को कहा कि अब मैं तुम्हे भीक्षा नहीं दे सकता| क्योंकि मेरा यह नियम है कि निश्चित समय पर ही दान देता हूँ| तब सन्त जी ने कहा कि मेरा भी यह नियम है कि मैं भी एक घर से भीक्षा लेता हूँ तो आज तो मैं भीक्षा लेकर ही जाऊँगा| तो राजा को क्रोध आ गया उसने क्या किया उसके पास घोड़े की लिद पड़ी थी राजा ने वह उठाकर सन्त जी की झोली में डाल दी| सन्त जी तो पहले ही बड़े सरल स्वभाव के थे उन्होंने राजा को कुछ नहीं कहा और झोली में लिद को लिए वापिस चल दिये| रास्ते में भगवान को धन्यवाद कर रहे कि शुक्र है भगवान तेरा| कि आज तेरी कृपा से मेरा नियम नहीं टूटा| उन्होंने अपने आश्रम के बाहर उस लिद को गिरा दिया| कुछ दिनों बाद राजा अपने सैनिको के साथ वन की तरफ जा रहा था तो रस्ते में वह क्या देखता है कि एक जगह पर बड़े-बड़े लिद के ढेर जमा हो रखे है| राजा यह देखकर हैरान कि यहाँ तो आसपास कोई घोड़ो का अस्तबल नजर नहीं आता फिर ये लिद के ढेर कहां से आ गये| तब उसने अपने सैनिको को भेजा कि जाओ पता करके आओ| तो सैनिक जाते है तो वही पास में एक झोपडी थी| जिसमे सन्त जी रहते है| जो राजा के यहाँ से लिद को झोली में लेकर आये थे| अब सैनिको ने क्या किया वे झोपडी में गये और वहाँ बैठे सन्त जी से पूछा- कि ये लिद के ढेर कैसे लगे है| तो सन्त जी ने जवाब दिया कि अपने राजा से जाकर कहो कि ये वही लिद है जो राजा ने मेरी झोली में डाली थी| अब वह बढती-बढती इतनी ज्यादा हो गई है| तो यह तो राजा को खानी पड़ेगी| अब सैनिक यह सुनकर घबराते हुए कि कहीं राजा उन्हें जान से ना मार दे यह बात सुनकर वह राजा के पास गये और राजा को सारा वृतान्त सुनाया| अब राजा भी काफी घबरा गया| वह सन्त जी के पास गया और माफ़ी मांगने लगा| तो सन्त जी ने कहा- कि यह लिद तो राजा जी आपको खानी ही पड़ेगी| ये आपके द्वारा किया गया पाप है| आपने जो लिद मेरी झोली में डाली थी वह पाप बढ़ता गया और यहाँ लिद के ढेर इकट्ठे हो गये| तब राजा ने अपने बुरे काम की श्रमा मांगी और उस लिद को खत्म करने का उपाए पूछा| तो सन्त जी ने कहा कि नहीं राजा जी यह लिद तो आपको खानी पड़ेगी| तब राजा ने घबराते हुए उत्तर दिया- कि इतनी लिद तो सात जन्म भी बीत जाये तभी भी खाते-खाते खत्म न होगी| मैं आपसे दोबारा माफ़ी माँगता हूँ कृपा करके इस लिद को ख़त्म करने का उपाए बताइये| तब सन्त जी ने दया कर राजा को इसका उपाय बताया कि राजा तुम अब अपने राज्य में जाकर अपनी बुराइयाँ, अपनी निन्दा करवाओ| उस निन्दा से तुम्हारे बुरे कर्म कट जायेंगे और यह लिद कम हो जायेगी| राजा ने ऐसा ही किया उसने राज्य में जाकर लोगो पर कर लगाना शुरू कर दिया| अत्याचार शुरू कर दिया जिससे कि पूरे राज्य में साथ-साथ दूसरे राज्यों में भी राजा की निन्दा होने लगी| कुछ समय बाद जब राजा फिर से सन्त जी के पास गया तो उनके द्वारा बताये रास्ते पर चलने से वह लिद के ढेर खत्म हो गए थे| लेकिन वहीं थोड़ी सी लिद जो सन्त जी झोली मे लाये थे वह पड़ी थी| तो राजा ने सन्त जी से पूछा कि यह लिद तो खत्म नहीं हुई तो सन्त जी ने कहा कि यह तो तुम्हे खानी ही पड़ेगी| क्योंकि वह लिद जो खत्म हो गई वो तो तुम्हारे द्वारा किये गए पापो का व्याज था जो कि निन्दा करवाने से ख़त्म हो गया लेकिन यह तो असल पाप है जिसका दण्ड तो तुम्हे भुगतना ही होगा| तो कहने का मतलब यही है कि कभी कोई ऐसा काम न करो कि हमारे पाप प्रकाशित होकर बढ़ते जाये और उसका दण्ड हमें बहुत ज्यादा भुगतना पड़े| उदाहरणतः यदि हम किसी को गलत बात कह देते है और जिससे दूसरे का दिल दुख जाता है तो वह जब-जब उस बात को याद करेगा तो उसकी आत्मा दुखेगी तो पाप तो हमारा ही बढ़ता जायेगा| तो मतलब यही है कि हमेशा ऐसा कर्म करो जो कि दूसरो के लिए हितकारी हो||

बुधवार, 22 जून 2016

19.06.2016

एक औरत अपने घर से निकली, उसने घर के सामने सफ़ेद लम्बी दाढ़ी में तीन साधू-महात्माओं को बैठे देखा। वह उन्हें पहचान नही पायी।
उसने कहा, ” मैं आप लोगों को नहीं पहचानती, बताइए क्या काम है ?”
” हमें भोजन करना है।”, साधुओं ने बोला।
” ठीक है ! कृपया मेरे घर में पधारिये और भोजन ग्रहण कीजिये।”
” क्या तुम्हारा पति घर में है ?”, एक साधू ने प्रश्न किया।
“नहीं, वह कुछ देर के लिए बाहर गए हैं।” औरत ने उत्तर दिया।
“तब हम अन्दर नहीं आ सकते “, तीनो एक साथ बोले।
थोड़ी देर में पति घर वापस आ गया, उसे साधुओं के बारे में पता चला तो उसने तुरंत अपनी पत्नी से उन्हें पुन: आमंत्रित करने के लिए कहा। औरत ने ऐसा ही किया, वह साधुओं के समक्ष गयी और बोली,” जी, अब मेरे पति वापस आ गए हैं, कृपया आप लोग घर में प्रवेश करिए!”
” हम किसी घर में एक साथ प्रवेश नहीं करते।” साधुओं ने स्त्री को बताया।
” ऐसा क्यों है ?” औरत ने अचरज से पूछा।
जवाब में मध्य में खड़े साधू ने बोला,” पुत्री मेरी दायीं तरफ खड़े साधू का नाम ‘धन’ और बायीं तरफ खड़े साधू का नाम ‘सफलता’ है, और मेरा नाम ‘प्रेम’ है। अब जाओ और अपने पति से विचार-विमर्श कर के बताओ की तुम हम तीनो में से किसे बुलाना चाहती हो।”
औरत अन्दर गयी और अपने पति से सारी बात बता दी। पति बेहद खुश हो गया। “वाह, आनंद आ गया, चलो जल्दी से ‘धन’ को बुला लेते हैं, उसके आने से हमारा घर धन-दौलत से भर जाएगा, और फिर कभी पैसों की कमी नहीं होगी।”
औरत बोली,” क्यों न हम सफलता को बुला लें, उसके आने से हम जो करेंगे वो सही होगा, और हम देखते-देखते धन-दौलत के मालिक भी बन जायेंगे।”
“हम्म, तुम्हारी बात भी सही है, पर इसमें मेहनत  करनी पड़ेगी, मुझे तो लगता ही धन को ही बुला लेते हैं।”, पति बोला।
थोड़ी देर उनकी बहस चलती रही पर वो किसी निश्चय पर नहीं पहुच पाए, और अंतत: निश्चय किया कि  वह साधुओं से यह कहेंगे कि धन और सफलता में जो आना चाहे आ जाये।
औरत झट से बाहर गयी और उसने यह आग्रह साधुओं के सामने दोहरा दिया।
उसकी बात सुनकर साधुओं ने एक दूसरे  की तरफ देखा और बिना कुछ कहे घर से दूर जाने लगे।
” अरे ! आप लोग इस तरह वापस क्यों जा रहे हैं ?”, औरत ने उन्हें रोकते हुए पूछा।
” पुत्री, दरअसल हम तीनो साधू इसी तरह द्वार-द्वार जाते हैं, और हर घर में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं, जो व्यक्ति लालच में आकर धन या सफलता को बुलाता है हम वहां से लौट जाते हैं, और जो अपने घर  में प्रेम का वास चाहता है उसके यहाँ बारी- बारी से हम दोनों भी प्रवेश कर जाते हैं। इसलिए इतना याद रखना कि जहाँ प्रेम है वहां धन और सफलता की कमी नहीं होती।”, ऐसा कहते हुए धन और सफलता नामक साधुओं ने अपनी बात पूर्ण की।

सोमवार, 20 जून 2016

सम्यक जीवन

मोटा अर्थ है कि व्यायाम उतना करें जो सम्यक हो संतुलित हो। सूक्ष्म अर्थ भी है। इसका गहरा अर्थ है कि आप जो भी श्रम करें चाहे मानसिक तल पर चाहे शारीरिक तल पर वो हमेशा सम्यक हो वो कभी अति पर न चला जाये। वो अति पर चला जायेगा घातक हो जायेगा।
     बुद्ध के पास श्रोण नाम को एक राजकुमार दीक्षित हुआ था। वो वैभव में पला उसने कभी कोई दुःख नहीं देखे कभी नंगे पैर सड़क पर नही चला। वो भिखारी हो गया उसको अब चिथड़े पहनने पड़े और नंगे पांव चलना पड़ा। लेकिन बुद्ध देखकर हैरान हुये कि और भिक्षु तो ठीक रास्ते पर चलते हैं वो उन पगडन्डियों पर चलता है जहाँ काँटे हों उन पर जानबूझकर चलता है। और जब उसके पैरों से खून बहने लगता है और फफोले होने लगते हैं उसमें गौरव अनुभव करता है इसको वो तपश्चर्या समझ रहा है। इसको वो त्याग समझ रहा है। बड़ा सुन्दर था गौर वर्ण था। तीन महीने में वो सूखकर हड्डी हो गया। एक दम काला पड़ गया। बुद्ध ने एक दिन उसके पास जाकर कहा, एक बात पूछनी है। मैने सुना कि जब तुम राजकुमार थे तुम बीणा बजाने में बहुत कुशल थे। तो मैं ये पूछने आया हूँ अगर बीणा के तार बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा होता है? तो उसने कहा तार बहुत ढीले हों तो संगीत कैसे पैदा होगा? ध्वनित ही नहीं होगा। बुद्ध ने कहा, तार अगर बहुत कसे हों तो संगीत पैदा होता है? तो उसने कहा, तार बहुत ज़्यादा कसे हों तो वो टूट जायेंगे। तब भी ध्वनित नहीं होगा। बुद्ध ने कहा, मैं तुमसे ये कहने आया हूँ, कि जो वीणा का नियम है वही जीवन का नियम है। तार बहुत ढीले हों तो बेकार हैं तार बहुत कसे हों तो बेकार हो जायेंगे। तारों की एक स्थिति ऐसी है कि जो न ढीले हैं और न कसे हुये हैं वही स्थिति जिन्हें आप न ढीले कह सको न कसे कह सको तभी उनमें संगीत पैदा होता है। और जीवन में भी वहीं संगीत पैदा होता है जहाँ संतुलन होता है। जहाँ इस तरफ या उस तरफ किसी अति पर नहीं होता है। एक आदमी अतिशय भोजन करता है फिर उपवास भी करता है। ये दोनों बातें पागलपन की है। न तो निराहार होना है न अति आहार करना है। सम्यक आहार लेना है।

शुक्रवार, 17 जून 2016

कहीं दूर भागने के प्रश्न नहीं है। अपने को परिवर्तन करने का है।


एक साधु था, और बादशाह उससे बहुत प्रेम करता था उसका आदर करता था। एक दिन बादशाह ने कहा, आप मेरे महल में आ जायें तो बड़ी कृपा होगी। वहीं रहें। मुझसे नहीं देखा जाता कि आप इस झोंपड़े में रहें और इस दरख्त की नीचे पड़े रहें। उस साधु ने कहा, तुम्हारी मर्ज़ी, हम यहाँ सोते थे वहाँ सो जायेंगे। बादशाह जब उसे रथ में लेकर लौटने लगा। रास्ते में उसे सन्देह हुआ,अगर वो सच  में फकीर था, अगर सचमुच में ही साधू है तो कैसा साधु है, महल में जाने के लिये तैयार हो गया। उसे तो इन्कार करना चाहिये थे कि मैने लात मार दी राजमहल को। तो बादशाह समझता कि हाँ कोई साधु है। बादशाह को शक हो गया। उसने रथ पर बैठने से भी इन्कार नहीं किया, वो मज़े से गद्दी पर बैठ गया। वो राजमहल में जाने को राज़ी हो गया उसने एक बार भी नहीं कहा, कि नहीं मैं राजमहल नहीं जा सकता। बादशाह को लगा कि ज़रुर कुछ गड़बड़ है। साधु पूरा नहीं मालूम होता। लेकिन चूँकि अब खुद ही उसको लाया था , उसे ले गया। उसे बढ़िया से बढ़िया भवन में ठहराया वो ठहर गया। अच्छे अच्छे भोजन दिये उसने खाये। राजा तो बहुत हैरान हुआ वो समझा कि हम तो गल्त आदमी को ले आये। सारा आदर चला गया। ये काहे का साधु है? उसे बहुत बढ़िया बिस्तर पर सुलाया वो मज़े से सोया। थोड़े ही दिन में राजा को बहुत सन्देह पकड़ने लगा, श्रद्धा सारी खण्डित हो गई। क्योंकि श्रद्धा उस साधु पर थोड़ी थी, श्रद्धा तो उस दरख्त पर थी, उस झोंपड़े पर थी, श्रद्धा तो उस भूखे मरते आदमी पर थी, श्रद्धा तोउस भीख माँगने में थी, उस साधु पर थोड़ा थी, अब न भीख माँगता है, न दरख्त के नीचे है, न नंगा है न उघाड़ा है। अब काहे पर श्रद्धा होने वाली थी। आपने भी अभी श्रद्धा की होगी शायद ही किसी साधु पर की होगी। आपने कम कपड़े पर श्रद्धा की होगी, भूखे आदमी पर श्रद्धा की होगी, उघाड़े नंगे आदमी पर श्रद्घा की होगी। घर द्वार छोड़े हुये पर श्रद्धा की होगी। साधु को तो आप जाने भी नहीं होंगे। वो बादशाह एक दिन सुबह सुबह उस साधु के पास आया, वो बोला, क्षमा करें, एक सन्देह मुझको बड़ा हैरान किये दे रहा है, जब तक आप मेरे महल में नहीं आये थे, मैं आपके प्रति एक आदर अनुभव करता था, जब से आ गये हैं, मैं इतनी हैरानी में हूँ, मेरे सन्देह का निवारण कर दें। मेरी रातों की नींद मुश्किल हो गई है। राजा ने केहा, जब आप आये हैं, मुझे ख्याल पकड़ता है कि मुझमें और आप में कुछ भेद नहीं है। अब निश्चित ही हो गया है जैसा मैं रहता हूँ आप भी वैसे ही रहते हैं, जैसा मैं सोता हूँ आप सोते हैं, जैसा मैं खाता हूँ आप खाते हैं, तो मुझमें आप में भेद क्या है? उस साधु ने कहा, भेद अगर जानना ही चाहते हैं, तो थोड़ा गाँव के बाहर चलना होगा। वो बोला मैं जानना ही चाहता हूँ, गाँव के बाहर भी चलूँगा। वे दोनों सुबह सुबह उठे गाँव के बाहर गये जब नदी के पार गाँव की रेखा समाप्त हो गई , उस राजा ने कहा, अब बता दें। साधु बाला थोड़ा और आगे चलें तो बताऊँ, ये भी हो सकता है आगे चलने से उत्तर भी मिल जाये। राजा कुछ समझा नहीं, वे कुछ और आगे गये, राजा ने फिर कहा, साधु ने कहा, थोड़ा और आगे चलें दोपहर होने लगी, राजा ने कहा, बहुत देर हो गई अब उत्तर दे दें, साधु ने कहा, उत्तर मेरा ये है मैं तो अब आगे जाता हूँ, आप भी चलते हैं? राजा बोला, मैं कैसे जा सकता हूँ? मेरा राज्य है, मेरा महल है, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरी प्रजा है, वो सब कुछ पीछे है। वो फकीर बोला, मेरा पीछे कुछ भी नहीं है, मैं तो जाता हूँ, तुम्हारे महल में ज़रुर था, तुम्हे भ्रम हो गया कि मेरे भीतर तुम्हारा महल होगा। मैं तुम्हारे महल में था, इससे तुम्हें भ्रम हो गया तुम्हारा महल मेरे भीतर होगा, तुम्हारे महल में ज़रुर रहा था, तुम्हारे महल को अपने भीतर नहीं लिया है। मैं जाता हूँ, बादशाह ने पैर पकड़े और कहा, मुझे बोध हो गया, मुझे दुःख होगा, वापिस चलें। वो साधु बोला वापिस तो अभी चलूँ, लेकिन तुम्हें फिर सन्देह पकड़ लेगा, इसलिये नहीं मैं पीछे जाने से रुक रहा हूँ कि मुझे कोई दिक्कत है, क्योंकि जिसे झोंपड़े में और महल में फर्क है वो अभी साधु नहीं है, उसने कहा, मैं तो अभी चलूँ, लेकिन दिक्कत हो जायेगी। तुम्हें फिर सन्देह पकड़ लेगा, तुम्हे सन्देह न पकड़े इसलिये मुझे जाने दो।
      आत्मज्ञान के पूर्व अमोह नहीं हो सकता। आप भी समझते हैं कि हम घर गृहस्थी में रहेंगे और मोह नहीं रखेंगे, आसक्ति नहीं रखेंगे, हमें जल में कमल वत रहने दें।  तो आप गल्ती में है। ये आपकी दलील झूठी है। ये दलील केवल न कुछ करने की है। ये दलील केवल गृहस्थी में बने रहने की है। ये आत्म प्रवंचना है। असम्भव है कि आप वहाँ रहकर मोह नहीं करेंगे।  जब तक आत्म ज्ञान नहीं हो जाता तब तक आसक्ति से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। मोह तो तभी जा सकता है जब थोड़ी सी भी आत्मिक झलकें उपलब्ध हो जायें। मोह तो इसलिये है कि मैं जानता हूँ कि मैं देह हूँ इसलिये दूसरे की देह पर आकर्षण है। इसलिये दूसरे की देह से मोह है। जब तक मैं जानता हूँ मैं देह हूँ, तब तक धन से मोह होगा। जब तक मैं जानता हूँ मैं देह हूँ मकान से मोह होगा। ये मेरा देह होना ही ,मेरा मकान के प्रति, मेरा धन के प्रति, परिवार के प्रति, दूसरे की देह के प्रति, आसक्ति होगी, मोह होता है। जब तक मैं जानता हूँ, कि मैं पदार्थ हूँ तब तक मेरा पदार्थ से मोह विलीन नहीं हो सकता। जिस दिन मैं जानूँगा मैं पदार्थ नहीं चैतन्य हूँ उस दिन मेरा संसार से मोह विलीन हो जायेगा।

बुधवार, 15 जून 2016

ये सब कहां जा रहे हैं


     आज किसी नगर में जाइये, किसी भी कस्बे में जाइये, जहां भी जाइये, प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक व्यस्त नज़र आता है। प्रातःकाल के समय देखिये तो सभी को जाने की जल्दी है। इसलिये कोई बस पकड़ने को भाग रहा है, कोई स्कूटर पर भागा चला जा रहा है और कोई तेज़ी से साइकिल पर। सभी को जल्दी है।
     एक बार एक नगर में एक साधु ने आठ दस व्यक्तियों को रुकने का संकेत किया, परन्तु किसी के पास भी इतना अवकाश न था कि रुक कर उसकी बात सुने।अन्ततः एक साइकिल सवार उसके संकेत पर रुका, शायद यह समझ कर कि वह इस नगर से अपरिचित है और कोई पता आदि पूछना चाहता है। पूछा तो साधू ने उससे अवश्य, परन्तु पूछा कुछ और ही। साधू तथा उस व्यक्ति के मध्य जो वार्तालाप हुआ, वह इस प्रकार था।
साधु-मैं जिधर दृष्टि डालता हूँ यही देखने में आता है कि सब जल्दी में हैं।किसी को बात सुनने की भी फुर्सत नहीं।यह सब भागदौड़ किसलिये? साधु की बात सुनकर वह व्यक्ति मुस्कराया और बोला बाबा! ये सभी
लोग काम पर जा रहे हैं।
साधु-काम पर?
व्यक्ति- जी हाँ! इनमें से कोई सरकारी कार्यालय में नौकर है, कोई प्राईवेट फर्म में कोई दुकानदार है तो कोई अध्यापक, कोई डाक्टर है तो कोई इंजीनियर-सभी को समय पर काम पर पहुँचना है, इसीलिये जल्दी में हैं।
साधु-काम किसलिये?
व्यक्ति-पैसा कमाने के लिये और किसलिये?
साधु-पैसा किसलिए?
व्यक्ति-खान-पान-पहरान के लिये।
साधु-खान-पान-पहरान किसलिये?
व्यक्ति-जीवन के लिए। जीवन के लिये ये सब कुछ तो चाहिए ही।
साधु-यह तो ठीक है, परन्तु जीवन किसलिए है?
     यह प्रश्न सुनकर उस व्यक्ति ने साधु की ओर ध्यान से देखा और साइकिल पर सवार होकर चल दिया। इस प्रश्न का शायद उसके पास कोई उत्तर नहीं था। उसके पास ही क्या, शायद किसी भी आम संसारी मनुष्य के पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है,क्योंकि आम संसारियों को इस बात का पता ही नहीं है कि यह जीवन किसलिए है? वह कौन सा वास्तविक कार्य है जिसके लिए यह जीवन,जिसे सब योनियों से श्रेष्ठ कहा गया है,उन्हें मिला है?इस वास्तविकता का पता तो सन्तों महापुरुषों की संगति में आने पर ही चलता है कि यह श्रेष्ठ जीवन केवल खाने पीने पहनने के लिए नहीं,प्रत्युत परमात्मा की भजन भक्ति के लिए मिलाहै। खाना पीना आदि जीवन को स्थिर रखने के लिए आवश्यक है,इसमें कोई सन्देह नहीं,परन्तु जीवन खाने पीने के लिए नहीं है,वह भजन भक्ति के लिए है। मनुष्य को चाहिए कि जीवन में वास्तविक कार्य परमात्मा की भजन भक्ति करके अपना जीवन सफल करे।

मंगलवार, 14 जून 2016

ताबीज़ जिससे तीन माँगे पूरी होती थीं


समझदार व्यक्ति परमात्मा से यह नहीं कहता कि मेरी प्रार्थना पूरी करना, वह उससे कहता है, जो तेरी मर्ज़ी, वह तू पूरी करना। क्योंकि हम तो यह भी नहीं जानते, क्या मांगे? हम तो गलत ही मांगेंगे, क्योंकि हम गलत हैं। हमारी तो मांग भी उपद्रव होगी। और पूरे जीवन की कथा भी यही है कि जो तुमने मांगा, वह तुम्हें मिल गया। फिर तुम उससे परेशान हो रहे हो। न मिलता तो रोते, मिल गया तो रो रहे हो।
     एक बड़ी प्राचीन कहानी है। एक आदमी यात्रा से लौटा है। अपने मित्र के घर ठहरा और उसने मित्र से कहा रात, यात्रा की चर्चा करते हुए, कि एक बहुत अनूठी चीज़ मेरे हाथ लग गई है और मैने सोचा था कि जब मैं लौटूंगा तो अपने मित्र को दे दूँगा। लेकिन अब मैं डरता हूँ, तुम्हे दूं या न दूं। डरता हूँ इसलिए, कि जो भी मैने उसके परिणाम देखे वे बड़े खतरनाक हैं। मुझे एक ऐसा ताबीज़ मिल गया है, कि तुम उससे तीन आकांक्षायें मांग लो, वे पूरी हो जाती हैं। और मैने तीन खुद भी मांग कर देख ली हैं। वे पूरी हो गई हैं। और अब मैं पछताता हूँ, कि मैने क्यों मांगीं? मेरे और मित्रों ने भी मांग कर देख लिए हैं, सब छाती पीट रहे हैं, सिर ठोंक रहे हैं। सोचा था तुम्हें दूंगा, लेकिन अब मैं डरता हूँ दूं या न दूं।
     मित्र तो दीवाना हो गया। उसने कहा, तुम यह क्या कहते हो न दूँ? कहां है ताबीज़? अब हम ज्यादा देर रूक नहीं सकते। क्योंकि कल का क्या भरोसा? पत्नी तो बिल्कुल पीछे पड़ गई उसके, कि निकालो ताबीज़। उसने कहा कि, अभी, मुझे सोच लेने दो। क्योंकि जो परिणाम सब बूरे हुए। उसके मित्र ने कहा, तुमने मांगा ढंग से न होगा गलत मांग लिया होगा। हर आदमी यही सोचता है कि दूसरा गलत मांग रहा है इसलिए मुश्किल में पड़ा। मैं बिलकुल ठीक मांग लूँगा। लेकिन कोई भी नहीं जानता कि जब तक तुम ठीक नहीं हो, तुम ठीक मांगोगे कैसे? मांग तो तुमसे पैदा होगी। नहीं माना मित्र, नहीं मानी पत्नी। उन्होने बहुत आग्रह किया तो ताबीज़ देकर मित्र उदास चला गया। सुबह तक ठहरना मुश्किल था। दोनों ने सोचा, क्या मांगें? बहुत दिन से एक आकांक्षा थी, कि घर में कम से कम एक लाख रूपया हो। तो पहला लखपति हो जाने की आकांक्षा थी, तो उन्होंने कहा, वह पहली आकांक्षा तो पूरी कर ही लें। फिर सोचेंगे। तो पहली आकांक्षा मांगी कि लाख रूपया।
    जैसे ही कोई आकांक्षा मांगोगे, ताबीज़ हाथ से गिरता था झटक कर। उसका मतलब था, कि मांग स्वीकार हो गई। बस, पंद्रह मिनट बाद दरवाज़े पर दस्तक पड़ी। खबर आई  कि लड़का जो राजा की सेना में था, वह मारा गया और राजा ने लाख रूपये का पुरस्कार दिया। पत्नी तो छाती पीट कर रोने लगी कि यह क्या हुआ? उसने कहा कि दूसरी आकांक्षा इसी वक्त मांगों, कि मेरा लड़का जिन्दा किया जाये। बाप थोड़ा डरा। उसने कहा कि यह अभी जो पहली का फल हुआ, पर पत्नी एकदम पीछे पड़ी थी कि देर मत करो। कहीं वे दफना न दे, कहीं लाश सड़ गल न जाये, जल्दी मांगों। तो दूसरी आकांक्षा मांगी, कि लड़का हमारा वापिस लौटा दिया जाय। ताबीज़ गिरा। पंद्रह मिनट बाद दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। लड़के के पैर की आहट थी। उसने जोर से कहा, पिता जी। आवाज़ भी सुनाई पड़ी, पर दोनों बहुत डर गये। इतने जल्दी लड़का आ गया? बाप ने बाहर झाँक कर देखा, वहाँ कोई दिखाई नहीं पड़ता। खिड़की में से देखा, वहां कोई दिखाई नहीं पड़ता। कोई चलता फिरता मालूम पड़ता है।
     वह लड़का प्रेत होकर वापिस आ गया। क्योंकि शरीर तो दफना दिया जा चुका था। पत्नि और पति दोनों घबड़ा रहे हैं, कि अब क्या करें? दरवाज़ा खोलें कि नहीं? क्योंकि तुम भला कितना ही लड़के को प्रेम किया हो। अगर वह प्रेत होकर आ जाये तो हिम्मत पस्त हो जायेगी। बाप ने कहा, रुक। अभी एक आकांक्षा और मांगने को बाकी है। और उसने ताबीज़ से कहा, कृपा कर और इस लड़के से छुटकारा। नहीं तो अब यह सतायेगा ज़िन्दगी भर। यह प्रेत अगर यहां रह गया घर में-इससे छुटकारा करवा दें। और पति आधी रात गया ताबीज़ देने अपने मित्र को वापिस। और कहा, इसे तुम कहीं फेंक ही दो। अब किसी को भूल कर मत देना।
      पूरी ज़िन्दगी की कथा इस ताबीज़ की कथा में छिपी है। जो तुम मांगते हो वह मिल जाता है। नहीं मिलता है तो तुम परेशान होते हो। मिल जाता है, फिर तुम परेशान होते हो। गरीब दुःखी दिखता है, अमीर और भी दुःखी दिखता है। जिसकी शादी नहीं हुई वह परेशान है, जिसकी शादी हो गई है वह छाती पीट रहा है, सिर ठोंक रहा है। जिसको बच्चे नहीं है वह घूम रहा है साधू सन्तों के पास, कि कहीं बच्चा मिल जाय। और जिनको बच्चे हैं, वे कहते हैं, कैसे इनसे छुटकारा होगा। यह क्या उपद्रव हो गया। तुम्हारे पास कुछ है तो तुम रो रहे हो, तुम्हारे पास कुछ नहीं तो तुम रो रहे हो। और मौलिक कारण यह है, कि तुम गलत हो। इसलिये तुम जो भी चाहते हो, वह गलत ही चाहते हो। इसलिये धार्मिक व्यक्ति परमात्मा को धन्यवाद देता है, अधार्मिक प्रार्थना करता है उसकी सदा मांग है, कि कुछ दो। और धार्मिक की प्रार्थना सदा यह है कि तूने इतना दिया है कि मैं अनुगृहीत हूँ अब और क्या मांगना है?


रविवार, 12 जून 2016

साधू को भोजन के लिये निमन्त्रण


एक दिन एक व्यक्ति ने किसी साधू को भोजन के लिये न्योता दिया, परन्तु उस समय उन दीन व्यक्ति के घर में कुछ भी न था, यहाँ तक कि साग में मिलाने को नमक भी न था, इसलिये अलोना साग ही अत्यन्त श्रद्धा भाव के साथ साधु के सम्मुख रख दिया। उसने उसको खाकर आशीर्वाद दिया जिस कारण उस दीन व्यक्ति को अत्याधिक धन प्राप्त हुआ। इस बात की चर्चा इतनी फैली कि उस नगर के शासक को भी उसका धन और यश देखकर ईष्र्या उत्पन्न हुई। और जब उस साधु के आशीर्वाद देने का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो ह्मदय में यही कामना रखकर कि मुझे भी साधु के आशीर्वाद से बहुत सा धन प्राप्त होगा, उसी साधु को ढुंढवा कर बुलवाया और अपनी रसोई मे भोजन खिलाया। उस शासक के ह्मदय में भावभक्ति तो थी नहीं, वहाँ तो स्वार्थ था, ईष्र्या थी और लोभ था। उसने साधु का उचित सत्कार भी न किया अपितु रसोइये को आज्ञा दी कि साधु को खाना खिला दो। शासक के रसोइये ने गर्म गर्म भोजन उस साधु को दिया। साधु को भोजन हाथ पर रखकर खाने की आदत थी जिसके कारण उसका हाथ जलने लगा। साधु तो भोजन करके चला गया कई दिन व्यतीत हो गये परन्तु शासक की इच्छा पूर्ण न हुई। उसे कहीं से कोई धन-सम्पत्ति प्राप्त न हुई तो उसने एक दिन कई लोगों के मध्य इस बात का वर्णन किया कि अमुक दीन व्यक्ति ने एक साधू को भोजन खिलाया तो उसे बहुत धन प्राप्त हुआ और वह दीन से धनी बन गया। मैने भी उसी साधु को भोजन खिलाया है, परन्तु मुझे तो कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। अकस्मात कोई सज्जन व्यक्ति, जो सत्संगी और सन्त सेवी था, वहीं विद्यमान था। उसने उत्तर दिया कि भाई साहिब! फल तो प्रत्येक कर्म का मिलता है। किया हुआ कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता। ह्मदय में सदैव निष्काम भावना रख कर कर्म करना चाहिये। और उसका थोड़ा मिले अथवा अधिक, शीघ्र मिले अथवा देर से, यह बात विधाता पर छोड़ देनी चाहिये। मनुष्य को क्या पता कि उसके भाग्य में क्या लिखा है? शुभ कर्मो के कारण आवश्यक नहीं कि धन-सम्पत्ति ही प्राप्त हो। ऐसा भी तो हो सकता है कि उस पर आने वाले कष्ट टल जायें। आपने यदि कोई शुभ कर्म किया है तो स्थान स्थान पर उसकी चर्चा न करें अपितु धीरज रखें। इन बातों को सुनकर उस शासक की तसल्ली हो गई।
     भाव यह कि भक्ति-भाव से सहज स्वभाव निष्काम कर्म करने का परिणाम कुछ और होता है, परन्तु जो काम ईष्र्या के कारण और फल की इच्छा से किया जाता है उसका फल उसका और ही होता है।

शुक्रवार, 10 जून 2016

रथ का एक एक पुर्जा अलग कर बताया

 रथ का एक एक पुर्जा अलग कर बताया
   हम इस वास्तविकता को नहीं भुला सकते कि अन्ततः आत्मा सबसे भिन्न है। ज्ञान दर्शन स्वरुप आत्मा शाश्वत है। यही मैं हूँ। शेष योगिक पदार्थ मुझसे भिन्न हैं। मैं योगिक पदार्थ नहीं हूँ। दूसरों के साथ अपने को
इतना संयुक्त न करें कि स्वयं के होने का पता ही न चले। इस एकत्व भावना में साधक अपने को समस्त संयोगों से पृथक देखता है। प्लोटिस ने कहा हैः-अकेले ही अकेले के लिये उड़ान है। नमि राजर्षि ने कहा-संयोग ही दुःख है।दो में शब्द होते हैं,अकेले में नहीं। रानियां चन्दन घिस रही थी। चूड़ियों के शब्द कानों चुभ रहे थे निमि राजर्षि ने कहा-बन्द करो।रानियां हाथ में एक एक चूड़ी रख चन्दन घिसने लगीं।शब्द बंद हो गया।नमि राजर्षि ने पूछा-क्या चन्दन घिसना बन्द कर दिया?उत्तर मिला, नहीं!चन्दन घिसा जा रहा है। नमि ने पूछा,तो शब्द क्यों नहीं हो रहा? तब कहा-हाथ में एक एक चूड़ी है।एक चूड़ी कभी शब्द नहीं करती। यह सुनते ही तत्क्षण वे प्रतिबुद्ध हो गए और साधना के पथ पर चल पड़े।
     जब अनेक लोग साथ रहते हैं, तब उनमें कलह होना स्वाभाविक है।साथ रहने वाले दो व्यक्तियों में यदि कलह न भी हो, तो भी उनमें बातचीत तो होती ही है, जिसमें व्यर्थ समय नष्ट होता है।अतएव भक्ति पथ पर चलने वाले जिज्ञासु को जहाँ तक हो सके अकेले ही रहना चाहिए और सदा भजन-सुमिरण में संलग्न रहना चाहिए। जो गुरुमुख संसार में रहते हैं, उन्हें कामकाज करते हुए अन्य लोगों से वार्तालाप तो करना ही पड़ता है,परन्तु उन्हें चाहिए कि उतना ही वार्तालाप करें जितना आवश्यक हो, उसमें अपना मुल्यवान समय नष्ट न करें और जैसे ही समय मिले,एकान्त में भजन सुमिरण करें।आचार्य भिक्षु ने एक महत्व पूर्ण सूत्र दिया है। उन्होने कहा-
     गण में रहूं निरदाव अकेलो, किम स्यूं ही नहीं बांधूं जीवलो।
अर्थात् मैं गण-समुदाय में रहूँगा।किसी के साथ गठबंधन नहीं करूंगा।
संघ में रहते हुए अकेले रहना एक महत्वपूर्ण सूत्र है। यह साधना का परम रहस्य है।हम सर्वथा अकेले नहीं हो सकते हैं। व्यक्ति यह सोचता है कि वह जंगल में जाकर तोअकेला हो सकता है। कभी नहीं हो सकता। जंगल में जाने वाला तो भीड़ में इतना घिर जाता है। कि गाँव में रहने वाला भी नहीं घिरता। हम अकेले कैसे हो सकते हैं? जब हमने अपने भीतर हज़ारों-हज़ारों संस्कार पाल रखे हैं। मस्तिष्क में इतनी भीड़ होती है कि जिसकाअन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता।जब तक मस्तिष्क खाली नहीं हो जाता  तब तक मनुष्य अकेला नही हो सकता। कभी नहीं हो सकता।अकेले होने का एकमात्र उपाय है-इस सच्चाई को धारण करना कि संयोग मात्र संयोग हैं। शरीर,कपड़े,मकान सब संयोग हैं। काम क्रोध आदि विकार ये स्वभाव नहीं हैं विभाव हैं। आदमी अकेला तब होता है जब""मैं''अर्थात् अहंकार का नाश होकरआत्मा की सन्निधि प्राप्त हो जाती है। जब अकेलेपन का अनुभव गहरा होता चला जाता है तब यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि मैं अकेला हूँ।
कभी सोचा आपने कि यह""मैं''है क्या?आपका हाथ है""मैं''?आपका पैर है""मैं''?आपका मस्तक आपका ह्मदय है""मैं''?क्या है आपका ""मैं''? अगर आप एक क्षण भी शान्त होकर भीतर खोजने जायेंगे कि कहाँ है ""मैं''तो आप एकदम हैरान हो जायेंगे कि भीतर कोई ""मैं'' खोजने से भी मिलने को नहीं है।

     भिक्षु नागसेन को एक सम्राट मिलिंद ने आमन्त्रण दिया कि तुम आओ दरबार में। जो राजदूत गया थाआमन्त्रण देने उससे नागसेन ने कहा मैं चलूँगा तो ज़रूर लेकिन एक विनय कर दूँ पहले ही कह दूँ कि
भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं।वह रथ पर बैठ कर गया।सम्राट ने द्वार पर स्वागत किया और कहा भिक्षु नागसेन।हमआपका स्वागत करते हैं। वह हँसने लगा उसने कहा स्वागत स्वीकार करता हूँ लेकिन स्मरण रहे भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं सम्राट कहने लगा बड़ी पहेली की बातें करते हैं आप।अगर आप नहीं हैं तो कौन स्वीकार कर रहा है यह स्वागत?कौन दे रहा है उत्तर?नागसेन ने कहा देखते हैं,सम्राट मिलिंद, यह रथ खड़ा है जिस पर मैं आया हूँ यह रथ है।भिक्षु नागसेन ने कहा घोड़ों को निकालकर अलग कर लिया जाय। घोड़े अलग कर लिये गये और सम्राट से पूछा कि ये घोड़े रथ हैं?सम्राट ने कहा घोड़े रथ कैसे हो सकते हैं।सामने डंडे जिस पर घोड़े बँधे थे अलग करके पूछा क्या ये रथ हैं?नहीं ये रथ नहीं।चाक निकलवा कर पूछा फिर एक एकअंग रथ का निकलता गया और सम्राट को कहना पड़ा कि ये रथ नहीं है। फिर वहां कुछ भी न बचा। भिक्षु नागसेन ने पूछा रथ कहाँ है अब? सम्राट चौंककर खड़ा हो गया जो चीज़ें निकल गई उनमें कोई रथ था ही नहीं। तब भिक्षु ने कहा समझे आप रथ एक जोड़ था। रथ कुछ चीज़ों का संग्रह मात्र है रथ का अपना होना नहीं है। आप खोज़ें कहाँ है आपका मैं और आप पायेंगे अनन्त शक्तियों का एक जोड़ हैं ""मैं''कहीं भी नही है।औरएक एक अँग आप सोचते चले जायें तो एक एक अंग समाप्त होता चला जाता है फिर पीछे शुन्य रह जाता है उसी शुन्य से प्रेम का जन्म होता है क्योंकि वह शुन्य आप नहीं हैं वह शुन्य परमात्मा है।

सोमवार, 6 जून 2016

राजकन्या ने सन्तोषी को वर चुना

राजकन्या ने सन्तोषी को वर चुना
          पहले  बनी  प्रारब्ध, पीछे  बना  शरीर ।।
          तुलसी ये आश्चरज है, मन नहीं बाँधे धीर।।
एक देश का राजा बड़ा ही भक्तिवान ईश्वर-विश्वासी था। उसकी एक कन्या सुन्दर व परम भक्तिमति थी। राजा ने निश्चय किया था कि ""मैं भगवान पर विश्वास रखने वाली इस कन्या को उसी को हाथों में सौपूँगा जो सच्चा वैरागी, त्यागी और अडिग प्रभु विश्वासी होगा।'' राजा खोज करते रहे, परन्तु ऐसा पुरुष उन्हें नहीं मिला। लड़की बीस साल की हो गई। एक दिन राजा को एक प्रसन्नमुखी त्यागी युवक मिला। उसके बदन पर कपड़ा नहीं थाऔर उसके पास कोई भी वस्तु नहीं थी। राजा ने उसे भगवान की मूर्ति के सामने बड़ी भक्तिभाव से ध्यानमग्न देखा। मन्दिर से निकलने पर राजा ने उससे पूछा-""तुम्हारा घर कहाँ है?''उसने कहा-"प्रभु जहाँ रखे।''राजा ने पूछा-""तुम्हारे पास कोई सामग्री है?''उसने कहा-"प्रभु कृपा मेरी सामग्री है।''राजा ने फिर पूछा-तुम्हारा काम कैसे चलता है?
उसने कहा-जैसे प्रभु चलाते हैं।उसकी बातों से राजा को निश्चय हो गया कि यह अवश्य ही प्रभु विश्वासी और वैराग्यवान है। मैं अपनी धर्मशील कन्या के लए वर खोजता था,आज ठीक वैसा ही प्रभु ने कृपा करके भेज दिया है।राजा ने बहुत आग्रह करके और अपनी कन्या के त्याग-वैराग्य की स्थिति बतलाकर उसे विवाह के लिए राज़ी किया। बड़ी सादगी से विवाह हो गया।राजकन्याअपने पति के साथ जंगल में एकपेड़ के नीचे पहुँची। वहां जाकर उसने देखा-वृक्ष के एक कोटर में जल के सकोरा पर सूखी रोटी का टुकड़ा रखा है। राजकन्या ने पूछा-स्वामिन्! ""यह रोटी यहां कैसे रखी है?'' नवयुवक ने कहा,""आज रात को खाने के काम आवेगी, इसलिए कल थोड़ी सी रोटी बचाकर रख दी थी।''
     राजकन्या रोने लगी और निराश होकर अपने महल में जाने को तैयार हो गई।इसपर नवयुवक ने कहा-""मैं तो पहले ही जानता था कि तू राजमहल में पली हुई,मेरे जैसे दरिद्री केसाथ नहीं रह सकेगी।''राजकन्या ने कहा-""स्वामिन्!मैं दरिद्रता के दुःखों से उदास नहीं जा रही हूँ।मुझे तो इस बात पर रोना आ रहा है कि आप में प्रभु के प्रति विश्वास की कमी इतनी है कि कल क्या खायेंगे। इस चिन्ता से रोटी का टुकड़ा बचाकर रखा है। मैं अब तक इसलिए कुंवारी रही थी कि मुझे कोई प्रभु का विश्वासी पति मिले। मेरे पिता ने बड़ी खोजबीन के साथ आपको चुना परन्तु मुझे बड़ा खेद है कि आपको तो एक रोटी के टुकड़े जितना भी भगवान पर विश्वास नहीं हैं।''
     पत्नी की बात सुनकर उसको अपने त्याग पर बड़ी लज्जा आई। उसने बड़े संकोच से कहा-""सचमुच मैने बड़ा पाप किया है। बता इसका क्या प्रायश्चित करूँ?''राजकन्या ने कहा-प्रायश्चित कुछ नहीं,मुझे रखिये या रोटी के टुकड़े को रखिये।नवयुवक कीआँखें खुल गर्इंऔर उसने रोटी का टुकड़ा फैंक दिया।

रविवार, 5 जून 2016

अमीर खुसरो की गुरु पर श्रद्धा


     जिन खुशनसीब जीवों ने अपने आपको सतगुरु के प्रेम के बन्धन में बँधाया है उनके नाम इतिहास में अमर हैं। उनकी प्रेम कथाओं को पड़ सुनकर अपने दिलों में लोग प्रभु प्रेम का संचार करते हैं। सच्चा आनन्द प्राप्त करते हैं। ऐसे खुशकिस्मत विरले ही होते हैं जो संसार की मोह माया को त्याग कर  सतगुरु के चरणों का प्यार प्राप्त कर अपने जीवन को धन्य बना जाते है।
     इतिहास में अमीर खुसरो का नाम अमर है जिसने संसार की झूठी धन दौलत का त्याग करके अपने सतगुरु का पावन प्यार प्राप्त कर अपने जीवन को सफल बनाया था। वह प्रसंग इस प्रकार है।
    बाबा फरीद जी के परम शिष्य हज़रत निजामुद्दीन औलिया अपने समय के उच्चकोटि के सूफी फकीर थे। आप अमीर खुसरो के कामिल मुर्शिद थे। जिनके नाम पर दिल्ली के एक रेलवे स्टेशन का नाम निजामुद्दीन है। पूर्ण पुरुष की ये निशानी होती है कि उनके दरबार का लंगर चौबीस घन्टे चलता रहता है। और उनका दरबार अमीर गरीब छोटे बड़े सबके लिये खुला रहता है।  सभी मुरादें उनके दरबार से पूरी होती हैं। उनके दरबार में भी जो कोई आता उसकी मनोकामना पूरी करते। एक बार एक निर्धन व्यक्ति उनके चरणों में उपस्थित हुआ सिजदा करके उसने फरियाद की कि मैं गरीब आदमी हूँ। मैने लड़की की शादी करनी है। बड़े-बड़े सेठ-साहुकार राजा-महाराजा आपके शिष्य हैं, मुझे धन की आवश्यकता है, मुझे कुछ धन मिल जाये आपकी अति कृपा होगी। उन्होने फरमाया कि इस समय तो हमारे पास कोई सेठ साहुकार या राजा नहीं बैठा है। बाद में किसी से दिलवाने का वायदा हम करते नहीं क्योंकि हम किसी को कहें भी और वह दे न दे क्या भरोसा है इसलिये इस समय तो हमारे पास केवल ये हमारी चरणदासी है (जूती का जोड़ा) इस पर सोने का तिल्ला जड़ा हुआ है इसे बेच कर तुम्हारा काम चलता हो तो इसे बड़ी खुशी से ले जाओ और अपना कारज कर लो। परमात्मा भला करेगा। उस व्यक्ति ने सोचा जो मिलता है वही ठीक है इसीसे काम जो चलेगा चला लूँगा। महापुरुषों का आशीर्वाद साथ है। वह व्यक्ति उनकी चरणदासी लेकर अपने घर की तरफ चल दिया। रास्ते में रात पड़ी एक धर्मशाला में ठहर गया। दूसरी तरफ से अमीर खुसरो किसी रियासत को जीत कर चालीस खच्चरों पर सोना चाँदी और सामान लादकर दिल्ली आ रहे थे। रात पड़ने पर उसी धर्मशाला में अपने सैनिकों सहित पड़ाव किया जिस धर्मशाला में वह व्यक्ति भी ठहरा हुआ था। कुछ देर बाद अमीर खुसरो ने अपने एक सैनिक से कहा कि देखो इस धर्मशाला में और कौन ठहरा हुआ है। क्योंंकि हमें अपने प्यारे मुर्शिद की खुशबू आ रही है उस सैनिक ने जाकर पता लगाया, और उस व्यक्ति को साथ लेकर अमीर खुसरो के सामने ला खड़ा किया। अमीर खुसरो ने उस व्यक्ति से पूछा कि सच सच बताओ कि तुम कौन हो और ये चरणदासी कहां से लाये हो। उसने सब बात सच सच बता दी मुझे ये जूती का जोड़ा हज़रत निजामुद्दीन साहिब ने स्वयं अता फरमाया है। इसे बेचकर उस धन से अपनी लड़की का विवाह करूँगा। अमीर खुसरो ने कहा तुमने इसे बेचना ही है, ये मुझे दे दो, और ये चालीस खच्चर सोना चाँदी और सामान से लदे हुए सब के सब बड़ी खुशी ले जा सकते हो। उस व्यक्ति ने मन में सोचा किसी पागल से पाला पड़ गया है। जो इस जूती की इतनी भारी कीमत दे रहा है। उस बेचारे को क्या पता कि इसके बदले में अगर तीन लोक की सम्पदा भी देनी पड़े तो भी कम है। अमीर खुसरो ने वह सारे का सारा धन देकर चरणदासी ले ली अपने सीस पर धारण कर अपने सतगुरु के चरणों में उपस्थित होकर वह चरणदासी उन्हें भेंट कर दी। चरणदासी को देखकर उन्होने कहा, ""खुसरो ये तुम कहां से ले आये ये तो हमने एक व्यक्ति को दी थी कहीं उस बेचारे गरीब से छीन कर तो नहीं ले आये?'' अमीर खुसरो ने जवाब दिया, ""नहीं हुज़ूर! वह व्यक्ति इसे बेचना चाहता था और मैने इसे चलीस खच्चर सोना चाँदी और सारा सामान देकर लिया है, और मेरे पास कुछ था ही नहीं। और होता तो वह भी उसे दे देता। लेकिन वह उतने से ही सन्तुष्ट होकर गया है, और उसने मुझे यह चरणदासी खुशी से दी है। उसका उत्तर पाकर वे बड़े प्रसन्न हुए। उसकी श्रद्धा भक्ति देखकर गद्गद् हो गये, फरमाने लगे, ""खुसरो! बड़े ही सस्ते में खरी़द लाया है क्योंकि जो वस्तुयें मिट जाने वाली मृत्यु में छिन जाने वाली और नाशवान थीं उन वस्तुओं के बदले में तुझे सतगुरु का दुर्लभ और अनमोल प्यार प्राप्त हो गया है। इससे सस्ता सौदा और क्या हो सकता है? अमीर खुसरो को अपने सीने से लगाते हुये फरमाने लगे खुसरो आज से तुम अमीर खुसरो हुए। कीमती से कीमती अनमोल वस्तु परमात्मा के प्रेम और भक्ति की दौलत से मालामाल हुए। जो भी तुम्हारे इस प्रेम प्रसंग को पढ़ेगा सुनेगा और ह्मदय में धारण करेगा वह भी अपने सतगुरु के प्रेम के रंग मे रंग कर भक्ति के सच्च धन को पाकर मालामाल हो जायेगा और जीवन सफल बनायेगा।

शुक्रवार, 3 जून 2016

मैं पवित्र हूं, यही पाप हो गया


     एक सूफी फकीर जुन्नैद ज़िन्दगी भर रोता रहा। अपने को पीटता था, रोता था। रास्तों से निकलता था, तो अपने को खुद चांटे मारता था। लोग उससे पूछते थे कि क्यों इतना पश्चाताप करता है? क्या पाप किया है तूने? क्योंकि जैसा हम तुझे जानते हैं, तुझसे ज्यादा पवित्र आदमी खोजना मुश्किल है। और अगर तू इतना दुःखी है, पश्चाताप से भरा है, तो हमारी क्या गति होगी? और हम इतने पाप कर रहे हैं, हमें ज़रा भी पश्चाताप नहीं है। तूने पाप क्या किया है? यह गाँव तुझे बचपन से जानता है न तूने कभी चोरी की, न कभी क्रोध किया, न किसी को गाली दी, न किसी का अपमान किया। तुझसे ज्यादा पवित्र आदमी पृथ्वी पर भी शायद दूसरा न हो। लेकिन जुन्नैद  अपने को सजा देता रहा। मरते वक्त, उसके शिष्य हज़ारों थे, वे इकट्ठे हुए, उन्होने कहा, अब तो बता दो कि सजा किसकी दे रहा था? तो उसने कहा कि एक बार मेरे मन में ऐसा ख्याल आ गया था कि मैं बड़ा पवित्र हूँ वही पाप हो गया। और परमात्मा के सामने खड़े होकर मैं अब आँखें भी न उठा सकूँगा क्योंकि मैंने एक पाप किया है। यह ख्याल मुझे एक बार आ गया था, कि मैं पवित्र हूँ। उसकी ही सजा अपने को दे रहा हूँ। लोगों ने कहा, पागल हो गये हो ? अगर इतने से पाप से तुम परमात्मा के सामने आँखें न उठा सकोगे, तो हमारा क्या होगा? जुन्नैद ने कहा, तुम मज़े से आँखें उठा सकोगे। तुम्हारे पाप इतने हैं कि तुम्हें शर्म भी न आयेगी। और शर्म भी कितनी करोगे? मैं भी तुम जैसा होता, तो कोई चिन्ता न थी, बस वह एक अटक गया है। शुभ्रवस्त्र पर वह काला दाग ऐसा दिखायी पड़ता है कि उसे मैं भूल नहीं पाता, उसकी ही पीड़ा है। इसे ख्याल रखें कि जैसे जैसे आप अन्तर्यात्रा में बढ़ते हैं वैसे वैसे छोटी छोटी चीज़ें बड़ी मुल्यवान हो जाती हैं।

गुरुवार, 2 जून 2016

जादूगर हूदनी

एक बहुत बड़ा जादूगर हुआ-हूदनी। उसकी सबसे बड़ी कला यह थी कि कैसी ही जंज़ीरों में उसे कस दिया जाए, वह क्षणों में खोलकर बाहर आ जाता था। जंज़ीरों को कसकर, पेटियों में बंद करने, पेटियों पर ताले डालकर उसे समुद्र में फेंका गया। वहां से भी वह मिनटों के भीतर से बाहर आ गया। दुनियाँ के सभी जेलों में उस पर प्रयोग किए गए, सभी तरह के पुलिस ने अपने इंतज़ाम किए-इंग्लैंड में, अमेरिका मे, फ्रांस में, जर्मनी में, उसको जेल की कोठरी में डाल देते, तालों पर ताले जड़ देते, हाथों में जंज़ीरें, पैरों में जंजीरें और मिनटें भी नहीं बीतती--- तीन मिनट से ज्यादा उसको कभी नहीं लगे थे जीवन में किसी भी स्थिति से बाहर आ जाने में बड़ी चौंकाने वाली उसकी कला थी।
     लेकिन इटली में वह हार गया। इटली में जाकर बड़ी बुरी तरह हारा। घंटे भर तक न निकल सका, तीन घंटे लगे। जो भीड़ इकट्ठी हो गयी थी हज़ारों लोगों की, वे तो घबड़ा गए कि मर गया हूदनी या क्या हुआ? यह तो किसी को भरोसा ही नहीं था। तीन मिनट तो आखिरी सीमा थी। सेकेंडों में निकल आता था। यह हुआ क्या? और जब तीन घंटे बाद हूदनी निकला, तो उसकी हालत बड़ी खस्ता थी। पसीना-पसीना था। माथे की नसें चिंता से फूल गयी थीं। आँखें लाल हो गयी थीं। बाहर आया, तो हांफ रहा था। पूछा गया कि हुआ क्या? इतनी देर कैसे लगी? उसने कहा कि, "मेरे साथ बड़ा धोखा किया गया। दरवाज़े पर ताला नहीं था।' और बेचारा कोशिश करता रहा खोलने की कि कहां से खोले, ताला हो तो खोले? एक मज़ाक काम कर गया। दरवाज़े पर ताला होता तो खोल ही लेता वह। ताला खोलने की तो उसके पास कला थी। ऐसा तो कोई ताला नहीं था, जो वह नहीं खोल लेता, मगर ताला था नहीं, दरवाज़ा सिर्फ अटका था। सांकल भी नहीं चढ़ी सांकल भी चढ़ी होती, तो खोल लेता था न सांकल थी, न ताला था। भीतर कुछ था ही नहीं। वह बड़ा घबड़ाया, उसने सब तरफ खोजा, कोई उपाय न देखे। पहली दफा हारा। तीन घंटे बाद, लोगों ने पूछा,"फिर कैसे निकले?' उसने कहा, "ऐसे निकले कि जब तीन घंटे के बाद बिलकुल थक गया और गिर पड़ा, दरवाज़े को धक्का लगा और दरवाज़ा खुल गया।'
    (जब इंसान चारों तरफ से थक जाता है गिर जाता है, हार जाता है कि मुझे संसार में, धन में, पद में प्रतिष्ठा में कुछ प्राप् नहीं हुआ मैं अब आपकी शरण में हूँ, अर्थात् अपने आपको प्रभु के आगे सरैन्डर कर देता है तभी भीतर का ताला जो कि वास्तव में ताला है ही नहीं खुल जाता है अर्थात् परमात्मा का दरवाज़ा खुल जाता है जीव उसमें सहज ही प्रवेश पा जाता है।)