बाबा फरीद जी की माता ने उन्हें बचपन से ही परमात्मा की भक्ति में लगा
दिया था। बहुत कम ऐसी माताएं संसार में हुई जिन्होंने अपने प्रिय बच्चों को
इस त्यागमयी जीवन यानि प्रभु भक्ति में लगाया है उन माताओं में अधिकतर
मदालसा, ध्रुव की माँ सुनीति, गोपीचन्द की माता एवं बाबा फरीद की माता का
नाम लिया जाता है। रानी मदालसा सतयुग में हुर्इं। राजा मान्धाता की रानी
थी। रानी मदालसा के चार पुत्र थे तीन को उसने सन्यासी बना दिया था। पलने
में ही अपने बच्चों को जब लोरी देती थीं तो यह कहती थी कि तुम शरीर नहीं हो
आत्मा हो। तुम्हारा संसार में आने का मकसद परमात्मा की प्राप्ति करना है।
संसार नाशवान है। केवल परमात्मा का नाम सत्य है इत्यादि। इस प्रकार जब उसने
एक एक करके तीनों पुत्रों को सन्यासी बना दिया तो राजा मान्धाता ने कहा कि
ये क्या कर रही हो। ये राजपाट कौन सँभालेगा? कोई ऐसा भी तो होना चाहिये जो
राजपाट सँभाले। तब मदालसा ने चौथे पुत्र को निष्काम कर्मयोग का पाठ पढ़ाया
कि किस प्रकार संसार के कार्य व्यवहार करते हुये साथ साथ अपनी आत्मा को
परमात्मा से भी मिलाना है। चौथे पुत्र का नाम अलर्क था जो बाद में निर्मोही
राजा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोपी चन्द की माता ने भी अपने पुत्र को गुरु
की शरण में भेज दिया था। ध्रुव की माता ने भी ध्रुव को जो केवल पाँच वर्ष
का ही था, तो जंगल में तपस्या के लिये भेज दिया। इसी प्रकार ही बाबा फरीद
की माता ने भी फरीद जी को बचपन से ही परमात्मा की भक्ति में लगा दिया।
उन्हें नमाज़ पढ़ने के लिये प्रेरित करती और बाबा फरीद जी की चौकी के नीचे
शक्कर रख देती कि अल्लाह की इबादत करने से अल्लाह खाने को शक्कर देता है।
बाबा फरीद जी नमाज़ पढ़ने के पश्चात शक्कर पाकर प्रसन्न होते। एक दिन उन की
माता शक्कर रखना भूल गई लेकिन बाबा फरीद जी को नमाज़ के बाद उस दिन शक्कर
मिली और उस शक्कर का स्वाद कुछ अधिक था तो माता को भी चखाई कि आज की शक्कर
तो बहुत स्वादिष्ट है। माता ने समझ लिया कि बच्चे में भक्ति के संस्कार
प्रबल हैं। इसलिये उसने किशोर अवस्था में ही फरीद जी को परमात्मा की
प्राप्ति के लिये भेज दिया। बाबा फरीद जी बारह वर्ष जंगली फल, पेड़ों के
पत्ते आदि खाकर गुज़ारा करते रहे। बारह वर्ष बाद जब घर आये तो माता ने पूछा
कि परमात्मा मिला? बाबा फरीद जी ने जवाब दिया कि नहीं। जंगली फल व पत्ते
खाकर गुज़ारा किया लेकिन परमात्मा फिर भी नहीं मिला। माता ने फरीद जी के सिर
में तेल लगाते समय उनका एक बाल खींचा तो फरीद जी को दर्द हुआ। माता ने
पूछा कि जिस पेड़ के तुमने पत्ते तोड़े क्या उनको दर्द न होता होगा। जब किसी
को तुम तकलीफ दोगे तो परमात्मा कैसे प्रसन्न हो सकता है। और तुम्हे कैसे
मिल सकता है? इसलिये जाओ दोबारा तपस्या करो। फरीद जी फिर घोर तपस्या में लग
गये। तपस्या करते करते एक दिन जिस वृक्ष के नीचे बैठे थे उस वृक्ष पर
चिड़ियां शोर मचा रही थीं। अपने भजन में विघ्न समझ कर बाबा जी ने कहा क्यों
मेरे भजन में विघ्न डाल रही हो जाओ मर जाओ। इतना कहना था कि चिड़ियां फड़ फड़
करके नीचे गिरीं और निष्प्राण हो गर्इं ये देखकर फरीद जी ने सोचा कि इन
बेचारियों ने मेरा क्या बिगाड़ा था। नाहक इन्हें मार दिया और मां ने कहा था
कि किसी को दुःख देने से परमात्मा नाराज़ होता है। इसलिये उन्होने कहा कि
जाओ उड़ जाओ। इतना कहना था कि चिड़ियां फुर्र से उड़ गर्इं। यह देखकर फरीद जी
ने समझ लिया कि मुझ में मारने और जिन्दा करने की शक्ति आ गई है। परमात्मा
मुझ पर प्रसन्न है। मेरी तपस्या पूरी हो गई है। मैं पूर्णता को प्राप्त हो
चुका हूँ।अपनी माता को बताने के विचार से घर की तरफ चल पड़े। रास्ते में
उन्हें प्यास लगी, गाँव के एक कुएं पर गये जहाँ एक स्त्री जिसका नाम
रंगरतड़ी था। कुएं में से पानी निकाल कर बाहर गिरा रही थी। बाबाजी ने उससे
कहा कि दरवेश को प्यास लगी है, पानी पिलाओ। स्त्री ने बाबा जी की तरफ देखा,
और कहा ज़रा ठहरो मैं अपना काम कर लूं, फिर आपको पानी पिलाती हूँ। फिर कूँए
से पानी निकालकर बाहर गिराने लगी। फरीद जी ने कहा कि पानी निकाल कर गिराये
जा रही हो और दरवेश खड़े हैं ज़रा भी ख्याल नहीं। दरवेश को पानी नहीं
पिलाती। ये बात उन्होने ज़रा कड़े शब्दों में कही, तो वह स्त्री बोली सार्इं
ये चिड़ियां नहीं हैं जिन्हें आप मार दोगे और जिन्दा कर दोगे। यदि आपके
अन्दर इतनी शक्ति है तो देख लो मैं पानी क्यों बिखेर रही हूँ। फरीद जी सुन
कर बड़े हैरान हुये कि यहां से लगभग बारह मील की दूरी पर मैने चिड़ियाँ मारी
और जिन्दा की हैं उसे किसी ने देखा भी नहीं, इसे कैसे मालूम हो गया। जब वह
स्त्री अपना काम कर चुकी तो उसने कहा सार्इं जी अब मेरा काम हो गया है। अब
आप पानी पिओ, हाथ मुँह धोवो, और घर चलें भोजन तैयार है भोजन करके जाना।
फरीद जी ने कहा बेटी कि अब मैं पानी बाद में पिऊँगा पहले मुझे ये बता कि
तुझे कैसे पता चला कि मैनें चिड़ियां मारी और जिन्दा की हैं। और तेरा ऐसा
कौन सा ज़रूरी काम था जो पानी निकालकर बाहर फैंक रही थी। उस औरत ने जवाब
दिया कि मेरी बहन का घर यहाँ से बीस मील की दूरी पर है। उसके घर में आग लग
गई है, और वह सत्संग सुनने के लिये गई हुई है, मैं उसके घर की आग को बुझा
रही थी। अब वह बुझ चुकी है। बाबा फरीद जी ने कहा बेटी ये ताकत तुमने कैसे
प्राप्त कर ली है, तेरे हाथों की मेंहदी भी अभी नहीं उतरी इतनी छोटी उम्र
में तूने ये ताकत कहाँ से पाई है। रंगरतड़ी ने कहा आप दरवेश लोग हैं। धूनी
रमा सकते हो, कठिन तपस्या कर सकते हा,े उल्टे लटक सकते हो, जंगली फल फूल
खाकर गुज़ारा कर सकते हा,े लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकतीं। परमात्मा ने हमें
पुरुषों की सेवा बख्शी है। मैं अपने पति को परमात्मा रूप समझकर उनकी सेवा
करती हूँ। उसके प्यार में जीवित रहती हूँ। और वह श्रेष्ठ पुरुष मेरा पति भी
हमेशा परमात्मा के भजन में लीन रहता है। उसकी निष्काम सेवा से मुझे ये
शक्तियाँ सहज ही प्राप्त हो गई हैं। मैं पति वाली हूँ आपका कोई पति या
मालिक नहीं है। एक बात मैं आप से पूछती हूँ कि घरबार छोड़ कर गये तो
परमात्मा की प्राप्ति के लिये थे। पर शक्तियों के चक्र में फँस गये हो। मैं
अपने पति के साथ अपने सतगुरु के दरबार में जाती हूँ, वहाँ सुनती हूँ कि
करामात करना कुफ्र है, परमात्मा इससे नाराज़ होता है, करामात करने का फल
दरगाह में भुगतना पड़ता है। आपने शक्तियों के चक्र में पड़कर समय बर्बाद कर
दिया। बिना मुर्शिद के परमात्मा का पता नहीं चलता। उसका भेद नहीं मिलता।
इसलिये अगर परमात्मा को पाना चाहते हो, तो कोई अल्लाह रूप मुर्शिद की तलाश
करो उनसे मुहब्बत करो, उनकी खिदमत करो, जिससे तुम्हें अल्लाह से मिलाप हो
जायेगा। मुर्शिद की कृपा से घट में अल्लाह का नूर प्रकट होगा। फरीद जी ने
कहा जब तुम्हें इतना ज्ञान है तो मुझपर एक कृपा और कर, ये बता दे कि मेरा
मुर्शिद मुझे कहाँ मिलेगा? कहते हैं तब उस रंगरतड़ी ने कहा कि आप अज़मेर शरीफ
चले जाओ वहां कामिल मुर्शिद हज़रत मुईउद्दीन चिश्ती के अनन्य मुरीद हज़रत
कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी जी को अपना मुर्शिद बना लो। उन्हीं से तुम्हें
अल्लाह का भेद मिलेगा। उसके मार्ग दर्शन से बाबा फरीद जी अज़मेर गये।
मुर्शिद की शरण में गये उनसे नाम दीक्षा ली और नित्य प्रति अपने मुर्शिद को
गर्म पानी से स्नान करवाया करते। अपने मुर्शिद की सेवा करते करते बारह
वर्ष बीत गये परीक्षा की घड़ी भी आ गई। एक दिन बरसात बहुत अधिक होने के कारण
जो आग उन्होने सँभाल कर रखी थी, वह बुझ गई। आजकल की तरह माचिस नहीं हुआ
करती थी। आग को दबा कर रखा जाता था। उन्हें फिक्र हुई कि सुबह पानी कैसे
गर्म होगा? आधी रात को ही उठे और नगर में आग लेने के लिये चलने को तैयार
हुये। अपनी ऋद्धि सिद्धि से आग जला सकते थे, लेकिन ऋद्धि सिद्धि से
परमात्मा नाराज़ होता है। उसकी नाराज़गी के कारण सिद्धि से आग न जलाई। सर्दी
के दिन थे, बरसात हो रही है, सब नगर सो रहा है, क्या किया जाये। दूर किसी
घर में दिया जलता नज़र आ रहा है जायें तो कैसे। सोचने लगे।
जाये मिलाँ तिनां सजना मेरा टूटे नाही नेहु।
फरीदा गलियाँ चिक्कड़ घर दूर नाल प्यारे नेहु।।
चलाँ ताँ भिज्जे कम्बली रहाँ ताँ टूटे नेहु।
भिजो सिजो कम्बली अल्लाह बरसो मेहु।।
जाये मिलां तिना सज्जनां मेरा टुटे नाहिं नेहु।।
कहने
लगे गलियों में कीचड़ हो रहा है, बरसात हो रही है, सर्दी का मौसम आधी रात
का समय अगर जाता हूँ, तो कम्बल भीगता है, ठन्ड लगती है, वृद्ध शरीर है, अगर
नहीं जाता तो मुर्शिद से प्यार का नाता टूटता है। खड़े सोचते रहे आखिर
फैंसला किया कि इस शरीर को रखकर क्या करेंगे। अगर मुर्शिद की राह में
कुर्बान होता है तो होने दो एक न एक दिन तो इसे छोड़ना ही है। मेरी कम्बली
भीगती है तो भीगने दो यदि शरीर जाता है तो जाये चाहे रहे। मुझे तो आग लाकर
पानी गर्म करके अपने प्यारे मुर्शिद को स्नान कराना है। मेरा उनसे मुहब्बत
का नाता नहीं टूटना चाहिये।आखिर चल दिये। एक मकान में दीपक जलता देखा तो
आवाज़ लगाई कि अल्लाह के वास्ते मेरी बात सुनों में बहुत सन्ताप में हूँ मुझ
पर रहम करो। आवाज़ सुनकर एक स्त्री ने अन्दर से ही कहा (वह घर वेश्या का
था) उसने कहा, तू कौन है? इस समय सभी सोये पड़े हैं, तू क्या चाहता है? बाबा
फरीद जी ने कहा कि मेरा नाम फरीद है। मैने अपने मुर्शिद को स्नान कराना
है। मेरे पास जो आग थी वह बुझ चुकी है। मुझे थोड़ी सी आग दे दे। मुझ पर रहम
कर तेरा एहसान मैं कभी नहीं भूलूँगा। खुदा तेरे पर बख्शिश करे। खुदा के
वास्ते थोड़ी सी आग दे दे। वह बोली फरीदा यह घर पीरों-फकीरों मुरीदों के
लिये नहीं है। यहाँ तो दोज़ख के टिकट बिकते हैं जिस घर के आगे तू खड़ा है आप
पीर, मुरीद लोग इसे नफरत की निगाह से देखते हो, अति बुरा मानते हो, यहाँ सब
कुछ मोल बिकता है। तू भी मोल दे के ले सकता है। आग मुफ्त नहीं मिलेगी तुझे
उसके बदले में अपने शरीर का कोई अंग देना पड़ेगा। बाबा फरीद जी ने कहा
ये तन गंदगी की कोठड़ी हरि हीरियों की खान।
सिर दित्यां जे हरि मिले ताँ भी सस्ता जान।।
यदि
तू मेरा सिर भी माँगे तो मैं तेरे चरणों में रख दूँगा। पर मुझे आग दे दे।
उस समय उस औरत ने कहा तू अपना सिर नहीं केवल अपनी एक आँख निकाल कर दे दे।
और आग लेजा। बाबा फरीद जी ने कहा मुझे बहुत खुशी हुई कि तूने मुझपे रहम
करके मेरा सिर नहीं माँगा। केवल एक आँख ही माँगी है। मैं तेरे हक में दुआ
करता हूँ कि अल्लाह तुझे शान्ति बख्शे। और अपने प्यार मुहब्बत का एक कण
तेरी झोली में भी डाल दे। बाबा फरीद जी ने अपनी आँख निकाल कर उसके हवाले कर
दी अपनी पगड़ी फाड़ी और दर्द पीकर अपनी आँख पर बाँध ली। आग ले जाकर पानी
गर्म किया। सुबह हुई जब मुर्शिद को स्नान कराने लगे तो मुर्शिद ने पूछा कि
फरीद आँख पर पट्टी क्यो बाँध रखी है? फरीद जी ने कहा आँख आ गई है।(आँख आ गई
का मतलब होता है दर्द करती है) तब मुर्शिद ने बड़ी प्रसन्नता के लहज़े में
फरमाया कि आ गई है तो फिर बाँध क्यों रखी है? जब आ गई है तो आ ही गई है
पट्टी खोल दे। पट्टी खोली तो आँख को पहले जैसी ठीक पाया। तब मुर्शिद ने
अपने अंक में भर कर उऩ्हें ""अहम् ब्राहृ अस्मि'' बना दिया उनके ह्मदय में
परमेश्वर ऐसे प्रकट हो गये जैसे अन्धेरी रात के बाद प्रकाश प्रकट होता है।
परमात्मा का रूप उनके ह्मदय में झलकने लगा, वे मुर्शिद की कृपा से स्वयं
परमात्म रूप हो गये।
जो कुर्बानी देने से घबरा गया, भय खा गया, शरीर
का जिसने मोह रखा। अपने आप को बचाने का जिसने प्रयास किया, वह तो मृत्यु को
प्राप्त हो गया। आज उसका नाम पता भी नहीं मिलता। कई बार मरता जीता होगा।
लेकिन जिसने शरीर का मोह त्यागकर सांसारिक कामनाओं को एक ताक पर रख कर,
अपने सतगुरु की प्रसन्नता का, सच्चे नाम का सौदा कर लिया, सतगुरु की
मुहब्बत में अपने जीवन को लगा दिया, वे अमर हो गये। अनेकों जीवों के अमर
बनाने वाले बन गये। इसलिये कहा है कि--
ये तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलें तो भी सस्ता जान।।