गुरुवार, 28 जुलाई 2016

साक्षी है ध्यान की आत्मा


यहूदी धर्म में विद्रोही साधकों की एक रहस्य-धारा है हसीद। इसके स्थापक बाल शेम एक दुर्लभ व्यक्ति थे। मध्य रात्रि को वे नदी से वापस लौटते। यह उनकी रोज़ की चर्या थी वे बस बैठते थे वहां-कुछ न करते। बस "स्व' को देखते हुए, द्रष्टा को देखते हुए। एक रात जब वे नदी से वापस आ रहे थे, तब वे एक धनी व्यक्ति के बंगले से गुज़रे और पहरेदार प्रवेशद्वार पर खड़ा था। पहरेदार उलझन में पड़ा हुआ था कि हर रात, ठीक इसी समय यह व्यक्ति वापस आ जाता था। पहरेदार आगे आया और बोला,"मुझे क्षमा करें आपको रोकने के लिए, लेकिन मैं अपनी उत्सुकता को और ज्यादा रोक नहीं सकता। तुम मुझ पर दिन-रात छाये हुए हो दिन-प्रतिदिन। तुम्हारा काम-धंधा क्या है? तुम नदी पर क्यों जाते हो? अनेक बार मैं तुम्हारे पीछे गया हूं, लेकिन वहां कुछ भी नहीं होता-तुम बस बैठे रहते हो घंटों, फिर आधी रात को तुम वापस आते हो।' बालशेम ने ंकहा, "मुझे पता है कि तुम कई बार मेरे पीछे आये हो, क्योंकि रात का सन्नाटा इतना है कि मैं तुम्हारे पदचाप की ध्वनि सुन सकता हूं, और मैं जानता हूँ कि हर रात तुम बंगले के द्वार के पीछ छिपे रहते हो, लेकिन केवल ऐसा ही नहीं है कि तुम मेरे बारे में उत्सुक हो, मैं भी तुम्हारे बारे में उत्सुक हूं,ं तुम्हारा काम क्या है?' पहरेदार बोला, "मेरा काम? मैं एक साधारण पहरेदार हूँ।' बालशेम ने कहा," हे परमात्मा, तुमने तो मुझे कुंजी जैसा शब्द दे दिया। मेरा धंधा भी तो यही है।' पहरेदार बोला, "लेकिन मैं नहीं समझा! यदि तुम पहरेदार हो तो तुम्हें किसी बंगले या महल की देख-रेख करनी चाहिए। तुम वहां क्या देखते हो नदी की रेत पर बैठे-बैठे?' बालशेम ने कहा, "हमारे बीच थोड़ा फर्क है। तुम देख रहे हो कि बाहर का कोई व्यक्ति महल के भीतर न घुस पाये, मैं बस इस देखने वाले को देखता रहता हूं, कौन है यह द्रष्टा?-यह मेरे पूरे जीवन की साधना है कि मैं स्वयं को देखता हूँ।'
     पहरेदार बोला, "लेकिन यह एक अजीब काम है। कौन तुम्हें वेतन देगा?' बालशेम ने कहा, "यह इतना आनंदपूर्ण आल्हादकारी परम धन्यता है कि यह स्वयं अपना पुरस्कार है। इसका एक क्षण-और सारे खज़ाने इसके सामने फीके हैं।' पहरेदार बोला, "यह अजीब बात है, मैं अपने पूरे जीवन निरीक्षण करता रहा हूं लेकिन मैं ऐसे किसी सुंदर अनुभव से परिचित नहीं हुआ हूँ। कल रात मैं आपके साथ आ रहा हूँ, मुझे इसमें दीक्षित करें। मुझे पता है कि कैसे निरीक्षण करना है आयाम की ज़रुरत है। आप शायद किसी दूसरे ही आयाम के द्रष्टा हैं।'
     केवल एक ही चरण है और वह चरण है एक नया आयाम, एक नई दिशा या तो हम बाहर देखने में रत हो सकते हैं और अपनी समग्र चेतना को भीतर केंद्रित कर सकते है, फिर तुम जान सकोगे, क्योंकि तुम "जानने वाले' हो, तुम चैतन्य हो, तुमने इसे कभी खोया नहीं है, तुमने अपनी चेतना को हज़ार बातों में उलझा भर रखा है, अपनी चेतना को सब तरफ से वापस लौटा लो और उसे स्वयं के भीतर विश्रामपूर्ण होने दो और तुम घर वापस आ गये हो।'

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

गुरु-शिष्य के झोंपड़े को आँधी ने उड़ा दिया


     दो फकीर थे। दोनों वर्षाकाल के लिए अपने झोंपड़े पर वापिस लौट रहे थे। आठ महीने घूमते थे,भटकते थे गाँव-गाँव,उस परमात्मा का गीत गाते थे। वर्षाकाल में अपने झोंपड़े पर लौट आते थे।गुरु बूढ़ा था। जवान शिष्य था। जैसे ही वे करीब पहुँचे झील के किनारे अपने झोंपड़े के,देखा कि छप्पर ज़मीन पर पड़ा है।ज़ोर की आँधीआयी थी रात,आधा छप्पर उड़ गया है।छोटा सा झोंपड़ा।उसका भी आधा छप्पर उड़ गया है। वर्षा सिर पर है। अब कुछ करना भी मुश्किल होगा। दूर जंगल में निवास है। युवा सन्यासी शिष्य ने कहा,देखो,हम प्रार्थना कर करके मरेजाते हैं,और उसकी तरफ से यह फल।इसलिए तो मैं कहता हूँ कि कुछ सार नहीं है। प्रार्थना,पूजा मिलता क्या है?दुष्टों के महल साबित है, हम गरीब फकीरों की झोंपड़ी गिरा गई आँधी। यह आँधी उसी की है। जब वह क्रोध से बातें कह रहा था, तभी उसने देखा कि उसका गुरु घुटने टेक कर,बड़े आनन्दभाव सेआकाश की तरफ हाथ जोड़े बैठा है। उसकी आँखों से परम संतोष के आँसू बह रहे हैं। और वह गुनगुना कर कह रहा है,कि परमात्मा तेरी कृपा।आँधी का क्या भरोसा। पूरा ही छप्पर ले जाती। ज़रूर तूने बीच में रोका होगा, ज़रूर तूने बाधा डाली होगी।और आधा बचाया। आधा छप्पर अभी भी ऊपर है।
    फिर वे दोनों गये।एक ही झोंपड़े में वे प्रवेश कर रहे हैं लेकिन दो भिन्न तरह के लोग है। एक असंतुष्ट था,एक सन्तुष्ट। स्थिति एक है, लेकिन दोनों के भाव अलग हैं। इसलिए दोनों अलग झोंपड़ों में जा रहे हैं। ऊपर से तो दिखायी पड़ता है, कि एक ही झोंपड़े में जा रहे हैं। रात दोनों सोये। जो असंतुष्ट था,वह तो सो ही न सका। उसने नेक करवटें बदली और बार बार कहा कि क्या भरोसा कब वर्षा आ जाए।अभी वर्षा आयी नहीं। लेकिन वह चिंतित और परेशान है उसने कहा, नींद नहीं आती। नींदआ कैसे सकती है?यह कोई रहने की जगह है? लेकिन गुरु रात बड़ी गहरी नींद सोया। जब चार बजे उठा तो उसने एक गीत लिखा। क्योंकि आधे झोंपड़े में से चाँद दिखायी पड़ रहा था। और उसने लिखा कि परमात्मा अगर हमें पहले  से पता होता, तो हम तेरी आँधी को भी इतना कष्ट न देते कि आधा छप्पर अलग कर देते। हम खुद ही अलग कर देते। अब तक हम नासमझी में रहे। सो भी सकते हैं, चाँद भी देख सकते हैं। आधा छप्पर दूर जो हो गया। तेरा आकाश इतने निकट और हम उसे छप्पर से रोके रहे। तेरा चाँद इतने निकट कितनी बार आया और गया, और हम उसे छप्पर में रोके रहे। हमें पता ही न था तू माफ करना।

रविवार, 24 जुलाई 2016

सुखी होने की तरकीब


दूसरों का सुख दिखायी पड़ता है, अपना दुःख दिखायी पड़ता है।अपना सुख दिखायी नहीं पड़ता दूसरे का दुःख दिखायी नहीं पड़ता।सब दुःखी हैं अपने दुःख के कारण नहीं, दूसरे के सुख के कारण। और जब तक आपकी यह वृत्ति है तब तक आप कैसे सुखी हो सकते हैं? सुखी होने का उपाय कुछ और है। दूसरे का दुःख अगर आपको दिखायी पड़ने लगे, तो आप सुखी होना शुरु हो गये। तब आपके चारों तरफ सुख का सागर दिखायी पड़ेगा।
     एक फकीर था जून्नून।कोई भी आदमी उसके पास मिलनेआता,तो वह हँसता खिलखिला कर और नाचने लगता। लोग उससे पूछते कि बात क्या है ?वह कहता एक तरकीब मैने सीख ली है सुखी होने की। मैं हर आदमी में से वह कारण खोज लेता हूँ,जिससे मैं सुखी हो जाऊँ। एक आदमी आया, उसके पास एक आँख थी, जुन्नून नाचने लगा। यह क्या मामला है?उसने कहा कि तुमने मुझे बड़ा सुखी कर दिया,मेरे पास दोआंखें हैं,हे प्रभु इसमें तेरा धन्यवाद।एक लंगड़े आदमी को देखकर वह सड़क पर ही नाचने लगा। उसने कहा कि गज़ब अपनी कोई पात्रता न थी, दो पैर दिये हैं। एक मुर्दे की लाश को लोग मरघट ले जा रहे थे। जुन्नून ने कहा,हम अभी जिन्दा हैं,और पात्रता कोई भी नहीं है।और कोई कारण नहीं है, अगर हम मर गये होते इस आदमी की जगह तो कोई शिकायत भी करने का उपाय नहीं था। उसकी बड़ी कृपा है।
     जुन्नून दुःखी नहीं था,कभी दुःखी नहीं हो सका क्योंकि उसने दूसरे का दुःख देखना शुरु कर दिया।और जब कोई दूसरे का दुःख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि मेंअपना सुख दिखायी पड़ता है।और जबकोई दूसरा का सुख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना दुःख दिखायी पड़ता है।
प्रसन्नतापूर्वक जीवन व्यतीत करने का एक अन्य उपाय यह है कि मनुष्य को परमात्मा ने जो कुछ दे रखा है,सदा उसमें ही सन्तुष्ट रहे। परमात्मा का आभारी रहकर मन में यह विचार करता रहे कि अनेकों ऐसे मनुष्य भी संसार में होंगे, जिन्हे ये वस्तुयें भी उपलब्ध नहीं हैं।

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

बाबा फरीद जी की गुरु भक्ति


        बाबा फरीद जी की माता ने उन्हें बचपन से ही परमात्मा की भक्ति में लगा दिया था। बहुत कम ऐसी माताएं संसार में हुई जिन्होंने अपने प्रिय बच्चों को इस त्यागमयी जीवन यानि प्रभु भक्ति में लगाया है उन माताओं में अधिकतर मदालसा, ध्रुव की माँ सुनीति, गोपीचन्द की माता एवं बाबा फरीद की माता का नाम लिया जाता है। रानी मदालसा सतयुग में हुर्इं। राजा मान्धाता की रानी थी। रानी मदालसा के चार पुत्र थे तीन को उसने सन्यासी बना दिया था। पलने में ही अपने बच्चों को जब लोरी देती थीं तो यह कहती थी कि तुम शरीर नहीं हो आत्मा हो। तुम्हारा संसार में आने का मकसद परमात्मा की प्राप्ति करना है। संसार नाशवान है। केवल परमात्मा का नाम सत्य है इत्यादि। इस प्रकार जब उसने एक एक करके तीनों पुत्रों को सन्यासी बना दिया तो राजा मान्धाता ने कहा कि ये क्या कर रही हो। ये राजपाट कौन सँभालेगा? कोई ऐसा भी तो होना चाहिये जो राजपाट सँभाले। तब मदालसा ने चौथे पुत्र को निष्काम कर्मयोग का पाठ पढ़ाया कि किस प्रकार संसार के कार्य व्यवहार करते हुये साथ साथ अपनी आत्मा को परमात्मा से भी मिलाना है। चौथे पुत्र का नाम अलर्क था जो बाद में निर्मोही राजा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोपी चन्द की माता ने भी अपने पुत्र को गुरु की शरण में भेज दिया था। ध्रुव की माता ने भी ध्रुव को जो केवल पाँच वर्ष का ही था, तो जंगल में तपस्या के लिये भेज दिया। इसी प्रकार ही बाबा फरीद की माता ने भी फरीद जी को बचपन से ही परमात्मा की भक्ति में लगा दिया। उन्हें नमाज़ पढ़ने के लिये प्रेरित करती और बाबा फरीद जी की चौकी के नीचे शक्कर रख देती कि अल्लाह की इबादत करने से अल्लाह खाने को शक्कर देता है। बाबा फरीद जी नमाज़ पढ़ने के पश्चात शक्कर पाकर प्रसन्न होते। एक दिन उन की माता शक्कर रखना भूल गई लेकिन बाबा फरीद जी को नमाज़ के बाद उस दिन शक्कर मिली और उस शक्कर का स्वाद कुछ अधिक था तो माता को भी चखाई कि आज की शक्कर तो बहुत स्वादिष्ट है। माता ने समझ लिया कि बच्चे में भक्ति के संस्कार प्रबल हैं। इसलिये उसने किशोर अवस्था में ही फरीद जी को परमात्मा की प्राप्ति के लिये भेज दिया। बाबा फरीद जी बारह वर्ष जंगली फल, पेड़ों के पत्ते आदि खाकर गुज़ारा करते रहे। बारह वर्ष बाद जब घर आये तो माता ने पूछा कि परमात्मा मिला? बाबा फरीद जी ने जवाब दिया कि नहीं। जंगली फल व पत्ते खाकर गुज़ारा किया लेकिन परमात्मा फिर भी नहीं मिला। माता ने फरीद जी के सिर में तेल लगाते समय उनका एक बाल खींचा तो फरीद जी को दर्द हुआ। माता ने पूछा कि जिस पेड़ के तुमने पत्ते तोड़े क्या उनको दर्द न होता होगा। जब किसी को तुम तकलीफ दोगे तो परमात्मा कैसे प्रसन्न हो सकता है। और तुम्हे कैसे मिल सकता है? इसलिये जाओ दोबारा तपस्या करो। फरीद जी फिर घोर तपस्या में लग गये। तपस्या करते करते एक दिन जिस वृक्ष के नीचे बैठे थे उस वृक्ष पर चिड़ियां शोर मचा रही थीं। अपने भजन में विघ्न समझ कर बाबा जी ने कहा क्यों मेरे भजन में विघ्न डाल रही हो जाओ मर जाओ। इतना कहना था कि चिड़ियां फड़ फड़ करके नीचे गिरीं और निष्प्राण हो गर्इं ये देखकर फरीद जी ने सोचा कि इन बेचारियों ने मेरा क्या बिगाड़ा था। नाहक इन्हें मार दिया और मां ने कहा था कि किसी को दुःख देने से परमात्मा नाराज़ होता है। इसलिये उन्होने कहा कि जाओ उड़ जाओ। इतना कहना था कि चिड़ियां फुर्र से उड़ गर्इं। यह देखकर फरीद जी ने समझ लिया कि मुझ में मारने और जिन्दा करने की शक्ति आ गई है। परमात्मा मुझ पर प्रसन्न है। मेरी तपस्या पूरी हो गई है। मैं पूर्णता को प्राप्त हो चुका हूँ।अपनी माता को बताने के विचार से घर की तरफ चल पड़े। रास्ते में उन्हें प्यास लगी, गाँव के एक कुएं पर गये जहाँ एक स्त्री जिसका नाम रंगरतड़ी था। कुएं में से पानी निकाल कर बाहर गिरा रही थी। बाबाजी ने उससे कहा कि दरवेश को प्यास लगी है, पानी पिलाओ। स्त्री ने बाबा जी की तरफ देखा, और कहा ज़रा ठहरो मैं अपना काम कर लूं, फिर आपको पानी पिलाती हूँ। फिर कूँए से पानी निकालकर बाहर गिराने लगी। फरीद जी ने कहा कि पानी निकाल कर गिराये जा रही हो और दरवेश खड़े हैं ज़रा भी ख्याल नहीं। दरवेश को पानी नहीं पिलाती। ये बात उन्होने ज़रा कड़े शब्दों में कही, तो वह स्त्री बोली सार्इं ये चिड़ियां नहीं हैं जिन्हें आप मार दोगे और जिन्दा कर दोगे। यदि आपके अन्दर इतनी शक्ति है तो देख लो मैं पानी क्यों बिखेर रही हूँ। फरीद जी सुन कर बड़े हैरान हुये कि यहां से लगभग बारह मील की दूरी पर मैने चिड़ियाँ मारी और जिन्दा की हैं उसे किसी ने देखा भी नहीं, इसे कैसे मालूम हो गया। जब वह स्त्री अपना काम कर चुकी तो उसने कहा सार्इं जी अब मेरा काम हो गया है। अब आप पानी पिओ, हाथ मुँह धोवो, और घर चलें भोजन तैयार है भोजन करके जाना। फरीद जी ने कहा बेटी कि अब मैं पानी बाद में पिऊँगा पहले मुझे ये बता कि तुझे कैसे पता चला कि मैनें चिड़ियां मारी और जिन्दा की हैं। और तेरा ऐसा कौन सा ज़रूरी काम था जो पानी निकालकर बाहर फैंक रही थी। उस औरत ने जवाब दिया कि मेरी बहन का घर यहाँ से बीस मील की दूरी पर है। उसके घर में आग लग गई है, और वह सत्संग सुनने के लिये गई हुई है, मैं उसके घर की आग को बुझा रही थी। अब वह बुझ चुकी है। बाबा फरीद जी ने कहा बेटी ये ताकत तुमने कैसे प्राप्त कर ली है, तेरे हाथों की मेंहदी भी अभी नहीं उतरी इतनी छोटी उम्र में तूने ये ताकत कहाँ से पाई है। रंगरतड़ी ने कहा आप दरवेश लोग हैं। धूनी रमा सकते हो, कठिन तपस्या कर सकते हा,े उल्टे लटक सकते हो, जंगली फल फूल खाकर गुज़ारा कर सकते हा,े लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकतीं। परमात्मा ने हमें पुरुषों की सेवा बख्शी है। मैं अपने पति को परमात्मा रूप समझकर उनकी सेवा करती हूँ। उसके प्यार में जीवित रहती हूँ। और वह श्रेष्ठ पुरुष मेरा पति भी हमेशा परमात्मा के भजन में लीन रहता है। उसकी निष्काम सेवा से मुझे ये शक्तियाँ सहज ही प्राप्त हो गई हैं। मैं पति वाली हूँ आपका कोई पति या मालिक नहीं है। एक बात मैं आप से पूछती हूँ कि घरबार छोड़ कर गये तो परमात्मा की प्राप्ति के लिये थे। पर शक्तियों के चक्र में फँस गये हो। मैं अपने पति के साथ अपने सतगुरु के दरबार में जाती हूँ, वहाँ सुनती हूँ कि करामात करना कुफ्र है, परमात्मा इससे नाराज़ होता है, करामात करने का फल दरगाह में भुगतना पड़ता है। आपने शक्तियों के चक्र में पड़कर समय बर्बाद कर दिया। बिना मुर्शिद के परमात्मा का पता नहीं चलता। उसका भेद नहीं मिलता। इसलिये अगर परमात्मा को पाना चाहते हो, तो कोई अल्लाह रूप मुर्शिद की तलाश करो उनसे मुहब्बत करो, उनकी खिदमत करो, जिससे तुम्हें अल्लाह से मिलाप हो जायेगा। मुर्शिद की कृपा से घट में अल्लाह का नूर प्रकट होगा। फरीद जी ने कहा जब तुम्हें इतना ज्ञान है तो मुझपर एक कृपा और कर, ये बता दे कि मेरा मुर्शिद मुझे कहाँ मिलेगा? कहते हैं तब उस रंगरतड़ी ने कहा कि आप अज़मेर शरीफ चले जाओ वहां कामिल मुर्शिद हज़रत मुईउद्दीन चिश्ती के अनन्य मुरीद हज़रत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी जी को अपना मुर्शिद बना लो। उन्हीं से तुम्हें अल्लाह का भेद मिलेगा। उसके मार्ग दर्शन से बाबा फरीद जी अज़मेर गये। मुर्शिद की शरण में गये उनसे नाम दीक्षा ली और नित्य प्रति अपने मुर्शिद को गर्म पानी से स्नान करवाया करते। अपने मुर्शिद की सेवा करते करते बारह वर्ष बीत गये परीक्षा की घड़ी भी आ गई। एक दिन बरसात बहुत अधिक होने के कारण जो आग उन्होने सँभाल कर रखी थी, वह बुझ गई। आजकल की तरह माचिस नहीं हुआ करती थी। आग को दबा कर रखा जाता था। उन्हें फिक्र हुई कि सुबह पानी कैसे गर्म होगा? आधी रात को ही उठे और नगर में आग लेने के लिये चलने को तैयार हुये। अपनी ऋद्धि सिद्धि से आग जला सकते थे, लेकिन ऋद्धि सिद्धि से परमात्मा नाराज़ होता है। उसकी नाराज़गी के कारण सिद्धि से आग न जलाई। सर्दी के दिन थे, बरसात हो रही है, सब नगर सो रहा है, क्या किया जाये। दूर किसी घर में दिया जलता नज़र आ रहा है जायें तो कैसे।  सोचने लगे।
                 जाये मिलाँ  तिनां  सजना  मेरा  टूटे नाही नेहु।
                 फरीदा गलियाँ चिक्कड़ घर दूर नाल प्यारे नेहु।।
                 चलाँ ताँ भिज्जे कम्बली रहाँ ताँ टूटे नेहु।
                 भिजो सिजो कम्बली अल्लाह बरसो मेहु।।
                 जाये मिलां तिना सज्जनां मेरा टुटे नाहिं नेहु।।
 कहने लगे गलियों में कीचड़ हो रहा है, बरसात हो रही है, सर्दी का मौसम आधी रात का समय अगर जाता हूँ, तो कम्बल भीगता है, ठन्ड लगती है, वृद्ध शरीर है, अगर नहीं जाता तो मुर्शिद से प्यार का नाता टूटता है। खड़े सोचते रहे आखिर फैंसला किया कि इस शरीर को रखकर क्या करेंगे। अगर मुर्शिद की राह में कुर्बान होता है तो होने दो एक न एक दिन तो इसे छोड़ना ही है। मेरी कम्बली भीगती है तो भीगने दो यदि शरीर जाता है तो जाये चाहे रहे। मुझे तो आग लाकर पानी गर्म करके अपने प्यारे मुर्शिद को स्नान कराना है। मेरा उनसे मुहब्बत का नाता नहीं टूटना चाहिये।आखिर चल दिये। एक मकान में दीपक जलता देखा तो आवाज़ लगाई कि अल्लाह के वास्ते मेरी बात सुनों में बहुत सन्ताप में हूँ मुझ पर रहम करो। आवाज़ सुनकर एक स्त्री ने अन्दर से ही कहा (वह घर वेश्या का था) उसने कहा, तू कौन है? इस समय सभी सोये पड़े हैं, तू क्या चाहता है? बाबा फरीद जी ने कहा कि मेरा नाम फरीद है। मैने अपने मुर्शिद को स्नान कराना है। मेरे पास जो आग थी वह बुझ चुकी है। मुझे थोड़ी सी आग दे दे। मुझ पर रहम कर तेरा एहसान मैं कभी नहीं भूलूँगा। खुदा तेरे पर बख्शिश करे। खुदा के वास्ते थोड़ी सी आग दे दे। वह बोली फरीदा यह घर पीरों-फकीरों मुरीदों के लिये नहीं है। यहाँ तो दोज़ख के टिकट बिकते हैं जिस घर के आगे तू खड़ा है आप पीर, मुरीद लोग इसे नफरत की निगाह से देखते हो, अति बुरा मानते हो, यहाँ सब कुछ मोल बिकता है। तू भी मोल दे के ले सकता है। आग मुफ्त नहीं मिलेगी तुझे उसके बदले में अपने शरीर का कोई अंग देना पड़ेगा। बाबा फरीद जी ने कहा
              ये तन गंदगी की कोठड़ी हरि हीरियों की खान।
              सिर  दित्यां  जे  हरि मिले ताँ भी सस्ता जान।।
यदि तू मेरा सिर भी माँगे तो मैं तेरे चरणों में रख दूँगा। पर मुझे आग दे दे। उस समय उस औरत ने कहा तू अपना सिर नहीं केवल अपनी एक आँख निकाल कर दे दे। और आग लेजा। बाबा फरीद जी ने कहा मुझे बहुत खुशी हुई कि तूने मुझपे रहम करके मेरा सिर नहीं माँगा। केवल एक आँख ही माँगी है। मैं तेरे हक में दुआ करता हूँ कि अल्लाह तुझे शान्ति बख्शे। और अपने प्यार मुहब्बत का एक कण तेरी झोली में भी डाल दे। बाबा फरीद जी ने अपनी आँख निकाल कर उसके हवाले कर दी अपनी पगड़ी फाड़ी और दर्द पीकर अपनी आँख पर बाँध ली। आग ले जाकर पानी गर्म किया। सुबह हुई जब मुर्शिद को स्नान कराने लगे तो मुर्शिद ने पूछा कि फरीद आँख पर पट्टी क्यो बाँध रखी है? फरीद जी ने कहा आँख आ गई है।(आँख आ गई का मतलब होता है दर्द करती है) तब मुर्शिद ने बड़ी प्रसन्नता के लहज़े में फरमाया कि आ गई है तो फिर बाँध क्यों रखी है? जब आ गई है तो आ ही गई है पट्टी खोल दे। पट्टी खोली तो आँख को पहले जैसी ठीक पाया। तब मुर्शिद ने अपने अंक में भर कर उऩ्हें ""अहम् ब्राहृ अस्मि'' बना दिया उनके ह्मदय में परमेश्वर ऐसे प्रकट हो गये जैसे अन्धेरी रात के बाद प्रकाश प्रकट होता है। परमात्मा का रूप उनके ह्मदय में झलकने लगा, वे मुर्शिद की कृपा से स्वयं परमात्म रूप हो गये।
   जो कुर्बानी देने से घबरा गया, भय खा गया, शरीर का जिसने मोह रखा। अपने आप को बचाने का जिसने प्रयास किया, वह तो मृत्यु को प्राप्त हो गया। आज उसका नाम पता भी नहीं मिलता। कई बार मरता जीता होगा। लेकिन जिसने शरीर का मोह त्यागकर सांसारिक कामनाओं को एक ताक पर रख कर, अपने सतगुरु की प्रसन्नता का, सच्चे नाम का सौदा कर लिया, सतगुरु की मुहब्बत में अपने जीवन को लगा दिया, वे अमर हो गये। अनेकों जीवों के अमर बनाने वाले बन गये। इसलिये कहा है कि--
      ये तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान।
      सीस दिये जो गुरु मिलें तो भी सस्ता जान।।

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

औषधियों का असर

श्री परमहंस अद्वैत मत के महान प्रवर्तक श्री श्री 108 श्री परमहंस दयाल जी श्री स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज के श्री चरणों में एक बार रायसाहिब दीवान ईश्वरदास जी उपस्थित हुए। दीवान ईश्वरदास जी के छोटे भाई का श्रयरोग के कारण देहांत हो गया था। दीवान साहिब उसके विषय में चर्चा करने लगे और श्री चरणों में निवेदन किया- महाराज जी। मैंने कितने ही अच्छे-अच्छे हकीमो और वैधो को उसे दिखलाया। हजारो तरह की दवाईया दी गई। परन्तु कुछ भी लाभ ना हुआ क्या दवा आदि में कुछ भी असर नहीं होता? श्री परमहंस दयाल जी का प्राय: यह नियम था कि किसी भी विषय को अच्छी तरह समझाने के लिए कोई ना कोई प्रमाण दिया करते थे उस समय भी आपने ऐसा ही किया। श्री परमहंस दयाल जी ने फरमाया- हमें एक कहानी याद आई। एक हकीम साहिब दवा-दारु के विषय में अत्यंत प्रसिद्ध एव दक्ष थे। उनके हाथ में कुछ ऐसी शिफा थी कि जिस किसी का भी उपचार करते थे वह चाहे कैसा भी रोगी क्यों ना हो, ठीक हो जाता था। चिकित्सा शास्त्र की पुस्तकों से लदे सत्तर उँठ हमेशा उनके साथ रहते थे। एक बार वे कही जा रहे थे कि मार्ग में उन्हें एक विचित्र आकृति का व्यक्ति मिला। हकीम साहिब ने उनसे पूछा- तुम कौन हो और क्या करते हो। उसने उत्तर दिया- मैं मौत का फरिशता हूँ और लोगो के प्राण हरना मेरा काम है। हकीम साहिब ने पूछा- अब कहा जा रहे हो? उसने उत्तर दिया- आज अमुक व्यक्ति के प्राण लेने है। हकीम साहिब ने फिर पूछा- किस तरह से उसके प्राण लोगे? उसने कहा- उस व्यक्ति के पेट में ऐसा दर्द पैदा करूंगा जिससे वह अच्छा ना हो सकेगा और अंततः प्राण त्याग देगा। यह कहकर वह गायब हो गया। हकीम साहिब ने औषधियों का बक्सा संभाला और उस व्यक्ति के घर जा पहुंचे जिसके बारे में मौत के फ़रिश्ते ने बतलाया था। नियत समय पर जब उस व्यक्ति के पेट में दर्द प्रारभ हुआ। तो उस रोग की एक अच्रक औषधि उसे दी, परन्तु जब कोई लाभ ना हुआ तो फिर अन्य अनुभृत औषधिया आजमानी शुरू की। गोली, अर्क, चूरण, जोशांदा, माजून, अवलेह - सभी कुछ दिया, परन्तु कुछ असर ना हुआ, अपितु  दर्द बढता ही गया। अन्तत: दो तीन घंटे दर्द से तड़प-तड़पकर रोगी ने प्राण त्याग दिए। हकीम साहिब सोचने लगे कि जब मृत्यु अटल एवं अवश्य भावी है और कोई औषधि प्रभावकारी नहीं हो सकती, तो फिर हम उपचार किसका करे और ये पुस्तक तथा औषधिया लादे-लादे क्यों मारे-मारे फिरे? यह सोचा और सब सामान-पुस्तके तथा औषधिया आदि लेकर इस निश्चय के साथ नदी के किनारे पहुंचे कि सब सामान नदी में डुबो देंगे कि उसी समय वही विचित्र आकृति का व्यक्ति सामने आ उपस्थित हुआ और कहने लगा- हकीम साहिब। यह क्या धुन सवार हुई? हकीम साहिब ने उत्तर दिया- जब इन औषधियों से रोगी को कोई फायदा ही नहीं होता, न इनका प्रभाव रोगी पर होता है, तो फिर इनके रखने से क्या लाभ? क्यों ना इनको डूबो दिया जाये? मौत के फ़रिश्ते ने कहा- हकीम साहिब। ऐसी बात नहीं है कि इन औषधियों में असर न हो। परमात्मा ने जिस वस्तु में जो असर रखा है। वह वस्तु वह असर अवश्य प्रकट करती है। परन्तु उसी समय जिस समय उसे प्रकट करने का अवसर मिले। फिर जितनी औषधिया हकीम साहिब ने रोगी को दी थी, वे सब दिखाकर  के मौत के फ़रिश्ते ने कहा- जिस समय रोगी के गले से औषधि उतरती थी, मैं लेता जाता था उसे पेट में  जाने ही नहीं देता था। अब आप ही बताइये कि असर कैसे प्रकट होता? असर तो तब प्रकट होता, जब में औषधि पेट में जाने देता? और हकीम साहिब को समझा- बुझाकर उन्हें औषधिया तथा पुस्तके नदी में डुबोने से रोका।।
यह कथानक् सुनकर श्री परमहंस जी ने दीवान ईश्वरदास जी से फ़रमाया- दीवान साहिब प्रभाव तो हर वस्तु का होता है, परन्तु जब मौत का समय आ जाता है, तो फिर कोई औषधि प्रभावकारी सिद्ध नहीं होती। सब औषधिया प्रभावहीन हो जाती है।।

रविवार, 17 जुलाई 2016

साधुता जीवनभर की गहरी उपलब्धि है


एक स्मरण मुझे आता है एक आश्रम में बहुत से भिक्षु थे, और एक आदमी ने आकर पूछा उस आश्रम के गुरु से, मुझे भी साधु होना है, तो उस आश्रम के गुरु ने कहा-"तुम्हें साधु दिखना है या साधु होना है? इन दोनों में फर्क है। उस गुरु ने कहा; अगर दिखना है तो बिलकुल आसान बात है, अगर होना है तो बहुत कठिन है। दिखना बिलकुल आसान है। अभी आप यहां बैठे हैं, आधी घड़ी भी नहीं लगेगी, आप साधु हो जाएंगे। कपड़े बदल लीजिए, सिर घुटा लीजिए, किसी का आशीर्वाद ले लीजिए, आप साधु हो गए। अभी आप दूसरों के पैर पड़ते थे, दूसरे आपके पैर पड़ने लगेंगे। आधी घड़ी में आप गृहस्थ थे, अब आप साधु हो गए। साधुता कोई मज़ाक नहीं है। जबकि साधुता जीवन भर की गहरी उपलब्धि है।
     अभी एक बहुत बड़े साधु ने मुझसे पूछा, आप साधु क्यों नहीं हो जाते? मैने कहा; साधुता कोई ऐसी बात है कि कोई चाहे तो हो जाए? साधुता तो विकसित होती है। ग्रोथ है। बहुत आहिस्ता-आहिस्ता मनुष्य के चित्त में परिवर्तन होता रहता है और एक बढ़ती होती है। उसे पता भी नहीं चलता कि कब क्या हो गया? कब दुनियां छूट गई और वह दूसरा आदमी हो गया। दूसरों को भला पता चल जाता हो, उसे पता भी नहीं चलता।
     आपको पता चला आप किस दिन जवान हुए? आपको पता चला आप किस दिन बूढ़े हुए? आपको बिलकुल पता नहीं चला, दूसरों ने आपको कहा होगा कि अब तो आप बूढ़े हो गए। लेकिन आपको पता चला था पहले कि आप बूढ़े हो गए। किस दिन बूढ़े हो गए? नहीं।

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

अहंकार

एक दिन पानी से भरे कलश पर रखी हुई कटोरी ने उससे कहा," कलश, तुम बड़े उदार हो। तुम्हारे पास जो भी बर्तन आता है, उसे तुम पानी से भर देते हो, किसी को खाली नहीं जाने देते।' कलश ने उत्तर दिया," हाँ, मैं अपने पास आने वाले प्रत्येक पात्र को जल से भर देता हूँ, मेरे अंदर का सारा सार दूसरों के लिए है।' कटोरी बोली," लेकिन मुझे कभी नहीं भरते, जबकि मैं हर समय तुम्हारे सिर पर ही मौजूद रहती हूँ।' घड़े ने उत्तर दिया," इसमें मेरा कोई दोष नहीं, दोष तुम्हारे अभिमान का है। तुम अभिमानपूर्वक मेरे सिर पर चढ़ी रहती हो, जबकि अन्य पात्र मेरे पास आकर झुकते हैं और अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं। तुम भी अभिमान छोड़कर मेरे सिर से उतरकर विनम्र बनो, मैं तुम्हें भी भर दूंगा।' पूर्णता की प्राप्ति, पात्रता एवं नम्रता से होती है, अभिमान एवं अहंकार से नहीं।

सोमवार, 11 जुलाई 2016

सन्त तुलसी दास जी

कहते है कि इंसान का मन भजन में तभी लगता है, जब उसके दिल में वैराग्य की भावना आती है। श्री गोस्वामी तुलसीदास जी, जिन्होंने रामायण की रचना की है, को भी वैराग्य हुआ। संसार जानता है कि जब उनका विवाह हुआ तो उनका अपनी स्त्री के साथ कितना मोह, प्यार और लगन थी।  इतने वासना के अधीन और स्त्री के वशीभूत जिस का प्रमाण संसार में बहुत कम मिलता है। लेकिन जब समय आ गया और पूर्व जन्मो के शुभ कर्म फल देने को आये तो संसार की मोह माया से दिल उखड़ने का कारण उसी स्त्री का एक वाक्य ही बना। स्त्री ने अपने प्रति उनके अत्यंत प्रेम को देखकर ये वचन कहे। ऐसा समझो कि प्रेरणा करने वाला मालिक उस स्त्री के मुँह से बोला-
दिग दिग दिग तोही प्राण प्यारे
हाड चाम अति नीरस हमारे
इतनी प्रीटी जी लगत रामे
तो सुधारे तेरे सब काम
नारी वचन शर सम हिये लागे
पूर्व सकल पुन्य तब जागे
तुलसीदास कहे मान गिलानी
है सत्य है सत्य तीय तव वाणी
शुकर शेत्र ग्यु पुनि सौगुरु कियो
तह अति मुद् मौरामायण अध्यातम पायो

स्त्री के वचन तुलसीदास जी को तीर के समान लगे। छाती फट गई और अपने आप को धिक्कारते हुए स्त्री से बोले- प्रिय। तेरी वाणी सत्य है। मैं सचमुच मूर्ख हूँ, जो भगवान की भक्ति से विमुख होकर माया के पीछे अंधा हो रहा हूँ। बस तेरा और मेरा यह अंतिम मिलाप था जो मेरे लिए शिक्षादायक बना, अब मैं जाता हूँ। ठोकर लगते ही कुरुक्षेत्र को गए, वहाँ पर गुरु का मिलाप हुआ। तब गुरु की अत्यंत श्रद्धा सहित सेवा कर के अध्यात्म रामायण अर्थात रूहानी उपदेश प्राप्त किया और भजनाभ्यास कर के उच्चकोटि के संतो की श्रेणी पर जा पहुँचे। जब अन्तर्मन की आँख खुली तो त्रेतायुग की भगवान श्री राम जी की कथायें और लीलाये ज्यो की त्यों कलियुग के अंदर श्री रामचरितमानस के रूप में लिख दी जिसके सामने आज लोग श्रद्धा भक्ति से सिर झुकाते और प्यार करते हैं।

शनिवार, 9 जुलाई 2016

काक भुशुण्ड

काक भुशुण्ड जी ने गरूड को अपनी पिछले जन्मो की कथा सुनाई कि एक बार मैं शिवजी के मन्दिर में बैठकर शिवजी की उपासना कर रहा था उसी अवसर में गुरु महाराज भी आ गये किन्तु मैंने अभिमान वश उठकर उनको प्रणाम न किया। विचार यह था कि इस समय तो मै शिवजी के मंदिर में बैठकर तप करता हूँ। इस समय गुरु को प्रणाम करने की क्या आवश्यकता है। गुरुमहाराज जी तो बड़े दयालु थे। उन्होंने तो कुछ न कहा और न ही उन के हृदय में क्रोध आया। परन्तु हे गरूड जी। गुरु का निरादर करना तो महाघोर पाप है उसको शिवजी महाराज सहन न कर सके। क्रोध से भरी हुई मंदिर से आकाश वाणी उतरी। सो मंदिर में से यह आकाशवाणी हुई- अरे हतभाग्य नीच अभिमानी। यधपि तेरे गुरु को कुछ भी क्रोध नहीं उपजा क्योंकि वे दयामय सन्त है और पूर्ण ज्ञानी है। हे मुर्ख। तदपि मै तुझको शाप देता हूँ। क्योंकि नीति के विरुद्ध चलने वाला मुझे अच्छा नहीं लगता। रे दुष्ट! जो मै तुम को दण्ड नहीं दूंगा तो मेरा नीति का मार्ग भ्रष्ट हो जाएगा क्योंकि गुरु का अपमान करना वेद शास्त्रों की नीति के विरुद्ध बात है। इसलिए वेद की नीति की रक्षा के लिए मैं तुझे अवश्य शाप दूंगा। उस आकाशवाणी में यह वचन भी हुआ कि जो मुर्ख गुरु के साथ ईर्ष्या करते है वे सौ कल्प तक रोख नामक आग में जलते है। तत्पश्चात हजार जन्म तक नीच योनियों के अन्दर जाकर महाकष्ट सहन करते है। रे पापी। तू गुरु को आते देखकर अजगर की भांति जमकर बैठा रहा। इस कारण मेरा शाप है कि तू अजगर हो जा। अरे दुष्ट। तेरी बुद्धि में पाप समा गया है, इसलिए तू सर्प योनि की महान नीच गति को पाकर किसी बड़े पुराने पेड़ की जड़ के नीचे भयानक अँधेरी खोड में जाकर निवास कर। शिवजी का ऐसा कठिन शाप सुनकर गुरु महाराज सहन न कर सके और हाहाकार करके तथा मन में अति दुखित होकर शिवजी के मंदिर में जाकर उन्होंने प्रार्थना की कि हे देवो के देव।
 कलियुग के जीव मन माया के अधीन सदा भूलते है। इन पर दया होनी चाहिये और भूल चूक को श्रमा कर देना चाहिये और साथ ही गुरु महाराज ने शिवजी की स्तुति भी की। तब मंदिर से फिर आवाज आई- ऐ परोपकारी महात्मन। यधपि आपके शिष्य ने दारूण पाप किया है और मंदिर से फिर आवाज आई- ऐ परोपकारी महात्मन। यधपि आपके शिष्य ने दारूण पाप किया है और मैंने भी क्रोध करके शाप दिया है तदपि आपके दयामय, परोपकारी, साधु स्वभाव को देख कर इस पर विशेष कृपा करता हूँ। ऐ महात्मन, मेरा शाप तो व्यर्थ जा नहीं सकता। हजार जन्म तो यह अवश्य पायेगा, किन्तु जन्मते और मरते समय जो जीव को अत्यंत दुःख होता है, वह दुःख इसको विचिन्तमात्र भी नहीं व्यपेगा। ऐ परोपकारी महापुरुष। दूसरी कृपा इस पर यह करता हूँ कि जिस जन्म में यह जायेगा किसी भी जन्म में इस का ज्ञान नहीं मिटेगा। अपने सारे जन्मो की इस को सुधि रहेगी। तीसरी कृपा में यह करता हूँ कि अन्त में इसे भगवान की भक्ति प्राप्त होगी।।

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

गरुड़ जी ने कागभुसुंडि जी से सात प्रश्न पूछे।


प्रथम- सृष्टि के अंदर जड़ तथा चेतन जितने भी जीव है, सब से दुर्लभ शरीर कौन-सा है?
उत्तर- मनुष्य देह के समान दूसरी कोई देह नहीं है। चर अथवा अचर अर्थात चलने फिरने और न चलने वाले, जड़ व चैतन सृष्टि के अंदर जितने भी जीव है, सब इस देह की याचना करते है।
दूसरा – इस संसार मैं सब से बड़ा दुःख क्या है?
उत्तर- संसार में दरिद्रता के समान दूसरा कोई दुःख नहीं है।
तीसरा– इस संसार में सबसे बड़ा सुख क्या है?
उत्तर- संतो के मिलने के समान दूसरा कोई सुख नहीं है।
यहाँ पर प्रश्न उठता है कि दरिद्रता कंगालपन को कहते है धनहीन को। तो यह धन की हीनता माया का धन है या भक्ति का धन? उत्तर साफ़ है यह भक्ति का धन है- जिसके बिना मनुष्य कंगाल और दुखी है। क्योंकि जब यह कहा गया कि संतो के मिलाप के समान दूसरा कोई सुख नहीं है तो फिर यह बात सिद्ध हो जाती है कि भक्ति से हीन होने के बराबर दूसरा कोई दुःख भी नहीं है। किन्तु जब संत मिलते है तो अपनी भक्ति का धन देकर सुखी कर देते है क्योंकि संतो के पास  भक्ति ही का धन होता है।
चौथा – संत सत्पुरुषो तथा दुष्ट पुरुषों का सहज स्वभाव वर्णन कीजिये।
उत्तर- मन वचन और कर्म से उपकार करना संतो का सहज स्वभाव है। यहाँ तक कि संत दूसरे के हित के निमित्त अपने ऊपर दुःख भी सहते है, जैसे भोज पत्र का वृक्ष दूसरों को सुख देने के निमित अपनी खाल खिचवाता है (भोज परत के वृक्ष की खाल उतार कर ऋषि मुनि और तपस्वी लोग अपने शरीर को ढ़कते थे)। तात्पर्य यह है कि संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहन करते है तथा खोटे पुरुष दूसरों की बुराई के निमित दुःख सहते है। दुष्ट पुरुष बिना प्रयोजन ही दूसरों की बुराई करते है, जैसे साँप काट लेता है, तो उसको कुछ लाभ नहीं होता पर दूसरों के प्राण चले जाते है। चूहा बहुमूल्य वस्त्रों को काट डालता है, दूसरों की हानि हो जाती है परन्तु उसका कुछ लाभ नहीं होता। फिर कहते है जैसे बर्फ के ओले खेती का नाश करके आप नष्ट हो जाते है, ऐसे ही दुष्ट जन दूसरो की सम्पदा का नाश करके आप भी नष्ट हो जाते है।
पांचवा – वेदों ने कौन-सा सबसे बड़ा पुण्य बताया है?
उत्तर- वेदों में सबसे बड़ा पुण्य अर्थात परम धर्म अहिंसा कहा गया है। अर्थात किसी की आत्मा को न ही दुखाना अहिंसा है।
छठा – सबसे घोर पाप कौन-सा है
उत्तर-परायी निंदा के समान कोई बड़ा पाप नहीं है कागभुसुंडि जी का कथन है कि भगवान और गुरु की निंदा करने वाले मेंढ़क की योनि में जाते हैं और हजार जन्म तक मेंडक ही बनते रहते है तथा संतो की निंदा करने वाले उल्लू की योनि में जाते है। जिनको मोह रुपी रात्रि प्यारी है परन्तु ज्ञान रूपी सूर्य नहीं भाता अथवा जो मुर्ख सब की निंदा करते है, वे दूसरे जन्म में चमगादड़ बनते है
सातँवा – मानसिक रोग कौन-२ से है?
उत्तर- अब मन के रोग सुनिए, जिन से सब लोग दुःख पाते है। सम्पूर्ण व्याधियो अर्थात रोगों की मूल जड़ मोह है। इस मोह से फिर अनेक प्रकार के शूल उत्पन्न होते है यदि मोह की जड़ कट जाए तो फिर शांति ही शांति है ।

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

इच्छा

एक गरीब व्यक्ति एक महात्मा के पास गया और बोला, 'महाराज, मेरा अधिकतर जीवन गरीबी में गुजर गया। मैं भी वैभव व अमीरी में जीवन गुजारना चाहता हूं। कृपया मेरी मदद करें।' व्यक्ति की बात सुनकर महात्मा मुस्करा दिए और बोले, 'कल तुम इसी समय मेरे पास आना और अपनी कोई भी एक इच्छा बताना। मैं उसे अवश्य पूरा कर दूंगा।' यह सुनकर व्यक्ति खुश होते हुए अपनी झोपड़ी में आ गया।
रात भर वह विचार करता रहा कि मैं महात्मा से कौन सी इच्छा पूरी करने को कहूं? कभी वह सोचता कि वह महात्मा से कहेगा कि वह उसकी महल में रहने की इच्छा पूरी कर दें। महल में रहने से वह खुद ही सेठ बन जाएगा। फिर उसने सोचा, नहीं खाली महल से तो काम नहीं चलेगा। इससे अच्छा तो वह राजा बन जाए। राजा बनकर वह सब पर शासन करेगा और उसे धन-धान्य किसी भी बात की कोई कमी नहीं रहेगी। किंतु तभी उसके मन में विचार आया कि राजा तो स्वयं प्रजा पर आश्रित होता है।
यदि उसे प्रजा पसंद न करे तो वह रातोंरात जमीन पर आ जाता है। इसी उधेड़बुन में सुबह हो गई। सुबह वह महात्मा के पास पहुंचा। महात्मा उसे देखकर मुस्कराते हुए बोले, 'हां भाई, बोलो, तुम्हारी कौन सी इच्छा पूरी की जाए?'
महात्मा की बात सुनकर वह व्यक्ति बोला, 'महाराज, रात भर मैं इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि कौन सी इच्छा पूरी करूं? लेकिन मुझे लगा कि एक इच्छा अनेक इच्छाओं को जन्म दे देती है। इसलिए सबसे अच्छी व मन को संतोष देने वाली इच्छा तो आत्मसंतुष्टि है। इसलिए आप मेरी यही इच्छा पूरी कर दीजिए कि मेरे अंदर आत्मसंतोष रहे और कभी भी असंतोष की भावना मुझे गलत मार्ग पर चलने को प्रेरित न करे।' व्यक्ति की बात सुनकर महात्मा मुस्करा कर बोले, 'तथास्तु।' इसके बाद वह व्यक्ति संतुष्ट होकर अपने घर चला गया और मेहनत-मजदूरी करके अपना जीवन बिताने लगा ।

रविवार, 3 जुलाई 2016

इन्द्र का भ्रम

भरत जी की भगवान के चरणों मे इस प्रकार गहरी श्रद्धा, भक्ति देख कर स्वर्ग के राजा इंद्र को चिंता हुई क्योकि यह जगत भले मानुष को भला और नीच को नीच दिखाई देता हैप्र् इंद्र ने सोचा यदि भगवान भरत जी का इस प्रकार प्रेम देखेंगे तो अवश्य ही अयोध्या को लौट जायेंगेप्र् और अगर भगवान वापस अयोध्या को लौट गए तो हमारा कारज वहीं का वहीं रह जायेगाप्र् यह सोचकर इंद्र ब्रहस्पति जी से प्राथना करने लगे, ‘हे गुरुदेव! कोई उपाय किया जाये जिससे भगवान और भरत का मिलाप ना हो सकेप्र् भगवान तो प्रेम के संकोची है अर्थात प्रेम के वश है और भरत जी प्रेम के समुन्द्र है, मालूम ऐसा होता है कि बनी बात बिगडना चाहती हैप्र् अब कोई छल-कपट का उपाय करना चाहिए जिससे भगवान वापस अयोध्या को न लौट पायेंप्र्’ गुरु ब्रहस्पति जी प्रभु भक्ति की महिमा को समझते है, इंद्र का स्वार्थ से भरा हुआ वचन सुनकर मन-ही-मन में हंसे और हजार नेत्र वाले इंद्र को बिना नेत्र के यानि अंधा जानाप्र् ब्रहस्पति जी ने कहा, ‘हे इंद्रप्र् दिल से मिथ्या भ्रम को निकाल दो और छल-कपट को छोड दो, यहाँ छल-कपट करोगे तो भांडा फूट जायेगा अर्थात छल प्रकट हो जायेगा और हानि होगीप्र् हे स्वर्ग के राजा इंद्र, माया पति भगवान के सेवक से माया का छल कपट करने पर वह माया उसी करने वाले के सिर पर पलट पड़ती हैप्र् तब (बनवास के निमित) जो कुछ किया गया वह भगवान की इच्छा जान कर किया गया परन्तु अब कुछ भी करने से हानि होगीप्र्’
इतिहास बताता है जब भगवान श्री राम जी को अयोध्या मे राज्य तिलक करने की तैयारी हो रही थी, तब देवताओं के राजा इंद्र को चिंता हुई कि यदि भगवान राजगद्दी पर बैठ गए तो राक्षसों के नाश का कारज नहीं होगाप्र् ऐसा विचार कर उसने एक चाल चली और सरस्वती को इशारा दियाप्र् उसने रानी कैकेयी की दासी मंथरा की जबान द्वारा रानी कैकेयी को प्रेरित किया कि वह इस अवसर पर राजा दशरथ से दो वर मांगे, एक तो राम को चौदह वर्ष का बनवास और दूसरा उसके बेटे भरत को अयोध्या का राजा बनाया जायेप्र् यह चाल सफल हो गई थी और इंद्र का साहस बढ़ गया थाप्र् अब यहाँ तो बात दूसरी हैप्र् भरत और राम के बीच मे  प्रेम भक्ति का सम्बन्ध है, स्वामी और सेवक का पुराना नाता है, इंद्र इस नाते को जानता नहीं, उसकी आँखों पर स्वार्थ की पट्टी बंधी हैप्र् वह नहीं देख पा रहा कि भगवान को अपने भक्तो से किस कदर प्यार होता हैप्र् इसी कारण उसके जवाब मे ब्रहस्पति जी ने उसे हजार नेत्र रखते हुए भी अंधा कहा और सत्य ही है जिसके पास भक्ति व परमार्थ की आँख नही है वह अंधा ही होता है ब्रहस्पति जी ने कहा, “ हे इंद्र, बनवास के समय तेरी कपट की चाल चल गई थी तो उसमे भगवान की अपनी मर्जी थीप्र् उस समय जो कुछ किया गया था, उनकी मर्जी से ही हुआ थाप्र् परन्तु फिर आगे चलकर ब्रहस्पति जी इंद्र को उपदेश करते है

सुन सुरेश रघुनाथ सुभाऊ
निज अपराध रिसाहि न काउ
जो अपराध भक्त कर करहि
राम रोष पावक सो जरहि

‘हे इंद्र, भगवान का स्वभाव सुनोप्र् वह अपने अपमान से किसी पर कोप नहीं करते अर्थात उनका अपना कोई अपमान कर देता है तो वह परवाह नहीं करतेप्र् परन्तु जो उनके भक्त का अपमान करता है वह भगवान के क्रोध की अग्नि मे जरुर जलता हैप्र् भक्तो और संतो के अपराधी को ईश्वरीय नियम के अधीन अवश्य ही दंड भुगतना पड़ता है, उससे उसे कोई नहीं बचा सकताप्र् हे इंद्रप्र् भरत के समान भगवान का प्यारा कौन हैप्र् संसार तो भगवान का नाम जपता है और स्वयं भगवान उनका (भरत जी का) नाम जपते हैप्र् हे अमरपति(देवराज इंद्र) भगवान के भक्त का अकाज मन मे न लाइए अर्थात भक्त के अकाज की मन मे चितवन भी न कीजिए, नहीं तो इस लोक मे अपयश और परलोक मे दुखी होगे और दिन- प्रतिदिन शोक संताप बढ़ते जायेंगेप्र् आगे फिर कहते है
           
                सुन सुरेश उपदेश हमारा
रामहि सेवक परम प्यारा
मानत सुख सेवक सेवकाई
सेवक वैर वैर अधिकाई

‘हे इंद्र, हमारा उपदेश सुनोप्र्  भगवान को अपना सेवक बहुत ही प्यारा हैप्र् उनके सेवक की जो सेवा करता है, उसे सुख और उससे वैर करने से दुःख मिलता हैप्र्’ ब्रहस्पति जी की सुंदर बाते सुन कर इंद्र को ज्ञान हुआ और मन की ग्लानि मिट गईप्र् तब सुरराज इंद्र भी प्रसन्नता से फूल बरसाकर भरत जी के स्वभाव की बढ़ाई करने लगे।