सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

घर के नौकर मालिक बने


गुरजिएफ कहा करता था कि मैने एक ऐसे घर के सम्बन्ध में सुना है जिसका मालिक कहीं दूर यात्रा पर गया था। बहुत बड़ा भवन था, बहुत नौकर थे। वर्षों बीत गए,मालिक की खबर नहीं मिली।मालिक लौटा भी नहीं,सन्देश भी नहींआया।धीरे-धीरे नौकर यह भूल गए कि कोई मालिक था भी कभी। भूलना भी चाहते हैं नौकर कि कोई मालिक है तो जल्दी भूल गए। फिर कभी कोई यात्री उस महल के बाहर से निकलताऔर कोई नौकर सामने मिल जाता तो वह उससे पूछता कौन है इस भवन का मालिक?नौकर कहता,मैं हूँ इसका मालिक।लेकिन आसपास के लोग बड़ी मुश्किल में पड़े क्योंकि कभी द्वार पर कोई मिलता,कभी द्वार पर कोई और बहुत नौकर थे और हरेक कहता कि मालिक मैं हूँ।
     सारे लोग चिंतित हुए कि कितने मालिक हैं इस भवन के।तब एक दिन सारे गांव के लोग इकट्ठे हुए और उन्होने पता लगाया।सारे घर के नौकर इकट्ठे किए, तो मालूम हूआ वहां कई मालिक थे। अब बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। सब नौकर लड़ने लगे। उन्होने कहा,मालिक हम हैं और जब बात बहुत बढ़ गई तब उसी एक बूढ़े नौकर ने कहा, क्षमा करें, हम व्यर्थ विवाद में पड़े हैं। मालिक घर के बाहर गया है। हम सब नौकर हैं। मालिक लौटा नहीं, बहुत दिन हो गए,हम भूल गए। और अब कोई ज़रूरत भी नहीं रही याद रखने की। शायद वह कभी लौटेगा भी नहीं।फिर मालिक तत्काल विदा हो गए यानी वे तत्काल नौकर हो गये। गुरजिएफ कहा करता था, यह आदमी के चित्त की कहानी है।
     जब तक भीतर की आत्मा जागती नहीं तब तक चित्त का एक-एक टुकड़ा एक-एक नौकर कहता है, मैं हूँ मालिक। जब क्रोध करने वाला टुकड़ा सामने होता है तो वह कहता है, मैं हूँ मालिक।ओर वह मालिक बन जाता है है कुछ देर के लिए, और पूरा शरीर उसके पीछे चलता है। इसी तरह अन्य विकार। मालिक बने हुए हैं। असली मालिक का पता ही नहीं। जब तक असली मालिक न आ जाये तब तक अराजकता रहेगी। इसी तरह मन कई खण्डों में बंटा है जब तक मन सब तरफ से एकत्र नहीं होता एक नही होता सुख प्राप्त नहीं हो सकता।

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

हीरे परखने में ही जीवन गँवाया


     एक राजा के राज्य में एक मन्त्री बड़ा भक्त था। राजा को हीरा-परखने की विद्या सीखने की अभिरुचि हुई। उसने बड़े बड़े कुशल मणिकारों (जोहरी) से विद्या सीखना आरम्भ किया। उस राजा के राज्य का विधान था कि जो भी राजा दिवंगत हो जाय उस के मुकट आदि को संग्रहालय में जमा कर दिया जाता था। उनमें हीरे-जवाहरात तो जड़े हुए होते ही है। राजा जब हीरों का कुशल परीक्षक बन गया तो उसने अपने संग्रहालय में रखे हुए दादा-परदादों में मुकुटों के जो हीरे जवाहरात लगे हुए थे उन की परीक्षा करने लगा। उसने और सब ताजों की परख कर ली किन्तु सातवीं पीढ़ी के सम्राट का जो मुकुट था उसमें एक हीरा ऐसा लगा हुआ था जिसका मुल्य वह अपनी मति से नआँक सका। अपने शिक्षकों को बुलवा कर उनसे उस हीरे का दाम मालूम किया तो वे भी सन्तोषदायक उत्तर न दे सके। निदान उसने समाचार पत्रों में लेख दिया और देश-देशान्तरों में यह बात फैल गई कि हमारे पास एक हीरा है जिसकी परीक्षा हमारे देश के मणिकार नहीं कर सके यदि किसी देश में ऐसा जौहरी हो जो उसका सही दाम बतावे तो उसे हम बहुत बड़ा पारितोषिक देंगे यह समाचार पढ़कर एक वृद्ध मणिकार जिसकी आयु 70-75 वर्ष की होगी उस राजा के देश में आया। राजा ने उसे वह हीरा दिखाया।उस जौहरी ने उस हीरे की पूर्ण परीक्षा कर के और उचित दाम बताकर राजा को सन्तुष्ट कर दिया।राजा गद्गद हो गयाऔर उसने अपने भक्त मन्त्री को बुलवायाऔर कहा कि इसे अपनी इच्छानुसार पारितोषिक दे दो, हम तुम्हारा हाथ नही रोकेंगे।मन्त्री ने कहा कि यदि मुझसे पूछते हो तो मैं समझता हूँ कि इसे इनाम में एक सौ जूते लगवाये जायें।राजा ने चकित होकर मन्त्री से पूछा ऐसा क्यों?मन्त्री ने उत्तर दिया कि इसने बुद्धि जैसी सुर्दुलभ वस्तु को पत्थरों के परखने में ही नष्ट कर दिया है। यदि यह अपनी बुद्धि को प्रभु के प्रेम में डुबो देता तो प्रभु रूप हो जाता। परन्तु उसके बदले इसने अपनी सारी आयु पत्थरों के परखने में गँवा दी। इसलिये में इसे दण्ड पाने का अधिकारी समझता हूँ।
     इसी प्रकार जिस ने अपनी सकल बुद्धिमता शरीर और शारीरिक सम्बन्ध जो अस्थिर और नश्वर हैं, एक दिन विनष्ट हो जाने वाले हैं उन में ही खो दी तब उसने धूलि फाँकने के सिवा क्या संचित किया। उस जैसा अल्पमति और नादान और कौन हो सकता है। जिसने इतना घाटे वाला काम किया किन्तु इस रहस्य को हर एक नहीं जान सकता सन्त सतगुरु की शरण में जाने से ही इन भेदों का ज्ञान होता है। तब ही जीवन की सफलता हाथ में आ सकती  है।

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

छाया

एक सन्यासी एक घर के सामने से निकल रहा था। एक छोटा सा बच्चा घुटने टेक कर चलता था। सुबह थी और धूप निकली थी और उस बच्चे की छायाआगे पड़ रही थी।वह बच्चा छाया में अपने सिर को पकड़ने के लिए हाथ ले जाता है, लेकिन जब तक उसका हाथ पहुँचता है छाया आगे बढ़ जाती है। बच्चा थक गया और रोने लगा। उसकी माँ उसे समझाने लगी कि पागल यह छाया है, छाया पकड़ी नहीं जाती। लेकिन बच्चे कब समझ सकते हैं कि क्या छाया है और क्या सत्य है? जो समझ लेता है कि क्या छाया है और क्या सत्य,वह बच्चा नहीं रह जाता। वह प्रौढ़ होता है। बच्चे कभी नहीं समझते कि छाया क्या है, सपने क्या हैं झूठ क्या है।वह बच्चा रोने लगा।कहा कि मुझे तो पकड़ना है इस छाया को।वह सन्यासी भीख माँगनेआया था।उसने उसकी माँ को कहा,मैं पकड़ा देता हूँ। वह बच्चे के पास गया। उस रोते हुए बच्चे की आँखों में आँसू टपक रहे थे। सभी बच्चों की आँखों से आँसू टपकते हैंज़िन्दगी भर दौड़ते हैं और पकड़ नहीं पाते। पकड़ने की योजना ही झूठी है। बूढ़े भी रोते हैं और बच्चे भी रोते हैं। वह बच्चा भी रो रहा था तो कोई नासमझी तो नहीं कर रहा था। उस सन्यासी ने उसके पास जाकर कहा,बेटे रो मत।क्या करना है तुझे? छाया पकड़नी है न?उस सन्यासी ने कहा, जीवन भर भी कोशिश करके थक जायेगा, परेशान हो जायेगा। छाया को पकड़ने का यह रास्ता नहीं है। उस सन्यासी ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा और उसके सिर पर हाथ रख दिया।इधर हाथ सिर पर गया, उधर छाया के ऊपर भी सिर पर हाथ गया। सन्यासी ने कहा,देख, पकड़ ली तूने छाया। छाया कोई सीधा पकड़ेगा तो नहीं पकड़ सकेगा। लेकिन अपने को पकड़ लेगा तो छाया पकड़ में आ जाती है।
     जो अहंकार को पकड़ने को लिए दौड़ता है वह अहंकार को कभी नहीं पकड़ पाता। अहंकार मात्र छाया है। लेकिन जो आत्मा को पकड़ लेता है, अहंकार उसकी पकड़ में आ जाता है।वह तो छाया है। उसका कोई मुल्य नहीं। केवल वे ही लोग तृप्ति को, केवल वे ही लोग आप्त कामना को उपलब्ध होते हैं जो आत्मा को उपलब्ध होते हैं।

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

बेढ़ा दीन्हो खेत को, बेढ़ा खेतहि खाय।।


          तीन लोक संशय पड़ा काहि कहूँ समुझाय।।
खेत के चारों तरफ बाड़ लगाते हैं-खेत की रक्षा के लिए। जीवन में बाड़ खेत को खा जाती है और लोगों को पता नहीं चलता,समझो। जीवन को चलाना है तो रोटी की ज़रूरत है,एक तरफ की सुरक्षाभी चाहिए,सुविधा भी चाहिए, बिलकुल आवश्यक है। लेकिन फिर एक आदमी जीवन भर मकान बनाने में लगा रहता है,मकान को ही बड़ा करने मेंलगा रहता है। वह वक्त ही नहींआता,जब वह रहता। मकान में निवास करता,वह समय ही नहींआ पाता।रोटी चाहिए,कपड़े चाहिए,तो थोड़ा धन तो चाहिए ही होगा। लेकिन फिर एकआदमी धन राशि लाने में जुड़ जाता है,फिर वह यह भूल ही जाता है कि धन एक बाढ़ थी-धन खेत हो गई,बाढ़ खेत को खा गई।धन की एक ज़रूरत है।ज़रूरत की एक सीमा है। आवश्यकता असीम नहीं है। वासना असीम है। आवश्यकताएं तो बड़ी-छोटी हैं-रोटी चाहिए,पानी चाहिए,कपड़ा चाहिए।अगर दुनियाँ में सिर्फ आवश्यकताएं हो तो एक भी आदमी भूखा न हो, एक भी आदमी दीन न हो,दरिद्र न हो। क्योंकि आवश्यकताएं तो सीमित हैं। पशु-पक्षियों की पूरी हो जाती हैं। कैसा आश्चर्य कि आदमी की पूरी नहीं होतीं। वृक्ष अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं,जिनके पास पैर भी नहीं हैं कहीं जाने को।एक ही जगह खड़े रहते हैंऔरआवश्यकताएं पूरी हो जाती है। पशु-पक्षी जिनके पास बड़ी बुद्धि,विश्वविद्यालय का शिक्षण नहीं, वे भी पूरी कर लेते हैं अपनी आवश्यकताओं को।आदमीआवश्यकताओं को क्योंं पूरा नहीं कर पाता?
लगता है कहीं कुछ भूल हो गई। आवश्यकताएं तो ठीक हैं, वासना खतरनाक है। फर्क क्या है?आवश्यकता तो बाड़ है,वासना, पूरा खेत हो गई। तुम्हारी ज़रूरतें तो पूरा हो सकती है, लेकिन तुम्हारी कामनाएं पूरी नहीं हो सकतीं। ज़रूरत पर रुक जाना समझदारी है। कामना में बढ़ते जाना पागलपन है। फिर उसका कोई अंत नहीं। देखो लोगों की तरफ।
    मैं एक आदमी को जानता हूं,जिसके सात मकान हैं।और कई हज़ार रूपए महीने का किराया आता है। लेकिन उस आदमी ने एक छोटी-सी खोली ले ली है किराए की,उसमें रहता है। एक साइकिल है उस आदमी के पासऔर वह है।साइकिल का उपयोग वह किराए की वसूली के लिए करता है। खोली में रहता है,खाना होटल में खा लेता है। उस आदमी के एक बंगले में मुझे रहने का मौका मिला। तो हर महीने एक तारीख को वह आ के अपना किराया ले जाता। जो मित्र उसके बंगले में रहते थे, जिनका मैं मेहमान था,उनसे मैने पूछा कि यह आदमी कौन है? वे हँसने लगे, उन्होने कहा,यह मकान मालिक है,उसके कपड़ों में छेद है।साइकिल भी न मालूम पहला संस्करण है। वह दूर सेआता है तो पता चलता है, खड़बड़-खड़बड़ चला आ रहा है। उसे देख के कोई भी नहीं कह सकता कि इस आदमी के पास सात मकन हैं।सात मकानों की कीमत अँदाजन कोई बीस लाख  रुपया है।हज़ारों रूपए महीने वह किराया वसूल करता है,लेकिन अपने लिए वह एक खोली में रहता है पांच रुपए महीने किराए की। इस आदमी के जीवन को बाड़ खा गई।

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

चात्रिक स्वांति बूंद ही पीता है


    चात्रिक अथवा पपीहा केवल स्वांति नक्षत्र का ही जल पीता है,अन्य कोई भी जल ग्रहण नहीं करता।स्वातिं जल कीआशा में वह सदाआकाश की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता है कि कब स्वांति-बूँद ऊपर से गिरे और वह अपनी प्यास बुझाए। इसी प्रतीक्षा में वह सदा पीउ- पीउ की रट लगाये रहता है। स्वांति ही उसका इष्ट है तथा केवल उसी का आधार और विश्वास वह मन मे रखता है।
     एक बार श्री रामकृष्ण परमहँस जी के चरणों में नरेन्द्र(स्वामी विवेक आनन्द जी)ने निवेदन किया-आप तो कहते हैं कि पपीहा स्वाँति-जल के अतिरिक्त अन्य कोई जल नहीं पीता, परन्तु मैने तो आज अपनी आँखों से उसे तालाब का जल पीते देखा है।श्रीरामकृष्ण जी ने फरमाया-नरेन्द्र!यह तुम क्या कहते हो?पपीहा और स्वांति के अतिरिक्तअन्य जल पिए, यह कदापि नहीं हो सकता।असम्भव!नरेन्द्र ने विनय की-मैने स्वयं उसे तालाब का पानी पीते देखा है। वह पी पी की रट लगाये था। श्री रामकृष्ण परमहँस गम्भीर हो गए और बोले-नरेन्द्र!क्या तुम वह चिड़िया मुझे दिखला सकते हो? नरेन्द्र ने कहा-अवश्य गुरुदेव!अभी चलिये। नरेन्द्र उन्हेंनगर के बाहर एक तालाब के किनारे ले गएऔर एक चिड़िया की ओर संकेत करते हुए कहा-वह देखिये,वह रहा पपीहा। श्री रामकृष्ण परमहंस उस चिड़िया को देखकर बड़ी ज़ोर से हँस पड़े और फरमाया-नरेन्द्र!इसी को तुम पपीहा बतला रहे हो?अरे!यह पपीहा नहीं और नाही यह पीउ पीउ कर रहा है।यह तो टिटिहर है जो टी-टी बोल रहा है।पपीहा और अन्य जल पिए, यह हो ही नहीं सकता। वह तो किसी अन्य जल की आस रखता ही नहीं। इसी प्रकार ऐ जिज्ञासु!चात्रिक अथवा पपीहे से शिक्षा ग्रहण कर तुम भी अपनी सुरति सदैव इष्टदेव के चरणों में लगाये रखो और संसार केअन्य सभी आसरे त्यागकर केवल इष्टदेव काआधार तथा विश्वास मन में रखो।

    

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

र्इं मुर्दन के गाँव


    जीसस एक झील के पास से गुज़र रहे थे। एक बहुत मज़ेदार घटना घटी। सुबह है, सूरज निकलने को है, अभी-अभी लाली फैली है। एक मछुवे ने जाल फेंका है मछलियां पकड़ने को। मछलियाँ पकड़कर वह जाल खींचता है।जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखाऔर कहा,मेरे दोस्त, क्या पूरी ज़िन्दगी मछलियाँ ही पकड़ते रहोगे? सवाल तो उसके मन में भी कई बार यह उठा था कि क्या पूरी ज़िन्दगी मछलियाँ ही पकड़ता रहूं। किसके मन में नहीं उठता? हां, मछलियां अलग-अलग हैं,जाल अलग-अलग हैं, तालाब अलग-अलग हैं,लेकिन सवाल तो उठता ही है कि क्या ज़िन्दगी भर मछलियां ही पकड़ते रहें।
   उसने लौटकर देखा कि कौन आदमी है,जो मेरा ही सवाल उठाता है। पीछे जीसस को देखा,उनकी हँसती हुई शांत आँखें देखीं,उनका व्यक्तित्व देखा। उसने कहा,और कोई उपाय भी तो नहीं है,और कोई सरोवर कहां है। और मछलियाँ कहां हैं। और जाल कहां फेकूं? पूछता तो मैं भी हूँ कि क्या ज़िन्दगी भर मछलियाँ ही पकड़ता रहूंगा। तो जीसस ने कहा कि मैं भी एक मछुआ हूं,लेकिन किसीऔर सागर पर फेंकता हूँ जाल।इरादा हो तो आओ मेरे पीछे आ जाओ। लेकिन ध्यान रहे,नया जाल वही फेंक सकता है,जो पुराना जाल फेंकने की हिम्मत रखता हो। छोड़ दो पुराने जाल को वहीं। मछुवा सच में हिम्मतवर रहा होगा। कम लोग इतने हिम्मतवर होते हैं। उसने जाल को वहीं फेंक दिया जिसमें मछलियाँ भरी थीं।मन तो किया होगा कि खींच ले,कम से कम इस जाल को तो खींच ही ले। लेकिन जीसस ने कहा,वे ही नए जाल को फेंक सकते हैं नए सागर में, जो पुराने जाल को छोड़ने की हिम्मत रखते हैं। छोड़ दे उसे वहीं। उसने वहीं छोड़ दिया।उसने कहा,बोलो,कहां चलूँ?जीसस ने कहा, आदमी हिम्मत के मालूम होते हो, कहीं जा सकते हो।आओ। वे गांव के बाहर निकल रहे थे,तब एक आदमी भागता हुआ आया और उस मछुवे को पकड़कर कहा, पागल! तू कहां जा रहा है?तेरे बाप की मौत हो गई है जो बीमार थे। रात ज्यादा तबीयत खराब हो गयी थी।तू सुबह उठकर जल्दी चला आया था, उनकी मृत्यु हो गयी,तू गया कहां था? हम गए थे तालाब पर,पड़ा हुआ जाल देखा है वहां।तू कहां चला जा रहा है? उसने जीसस से कहा,क्षमा करें। दो-चार दिन की मुझे छुट्टी दे दें। मैं अपने पिता की अन्त्येष्टि कर आऊं, अन्तिम संस्कार कर आऊँ। फिर मैं लौट आऊँगा। जीसस ने जो वचन कहा, वह बड़ा अद्भुत है। उन्होने कहा, पागल! वह जो गांव में मुर्दे हैं,वे मुर्दे को दफना लेंगे। तुझे क्या जाने की ज़रूरत है, तू चल।अब जो मर गया है,वह मर ही गया,अब दफनाने की भी क्या ज़रूरत है?यानी दफनाना भीऔर तरकीबें हैं उसकोऔर जिलाए रखने की। अब जो मर गया, वह मर ही गया। और फिर गांव में काफी मुर्दे हैं,वे दफना लेंगे,श्री कबीर साहिब ने भी कहा है र्इं मुर्दन के गांव। तू चल। एक क्षण वह रुका,जीसस ने कहा कि फिर मैने गलत समझा कि तू पुराने जाल छोड़ सकता है। एक क्षण वह रुका और फिर जीसस के पीछे चल पड़ा। जीसस ने कहा, तू आदमी हिम्मत का है। तू मुर्दों को छोड़ सकता है। तो तू जीवंत को पा भी सकता है।
     असल में वह जो पीछे मर गया है,उसे छोड़ें। ध्यान में आप निरंतर बैठते हैं,लेकिन मुझसे आप आकर कहते हैं कि होता नहीं है, विचार आ जाते हैं। वह आ नहीं जाते।आपने उनको छोड़ा है कभी? उऩको निरंतर पकड़े रहे हैं,उन विचारों का क्या कसूर है?अगर कोई आदमी एक कुत्ते को रोज़ अपने घर में बांधे रहे और रोज़ खाना खिलाए और फिर एक दिन अचानक उसको घर के बाहर निकालने लगे,और कुत्ता चारों तरफ से घूमकर वापिस आने लगे, तो कुत्ते का क्या कसूर है? अचानक आप ध्यान करने लगें और कुत्ते से कहें, हटो यहां से। और कल तक उसको रोटी दी,आज सुबह तक रोटी दी,आज सुबह तक चूमा,पुचकारा, उसकी पूंछ हिलाने से आनन्दित हुए, घंटी बांधी गले में,पट्टा बांधा,घर में रखा-अचानक आपका दिमाग हो गया कि ध्यान करें।उस कुत्ते को क्या पता? वह बेचारा घूमकर लौट आता है वापिस। वह कहता है, कोई खेल हो रहा होगा।और जब आप उसको और भगाते हैं तो वह और खेल में आ जाता है।वह और रस लेने लगता है कि कोई मामला ज़रूर है। मालिक आज कुछ बड़े आनन्द में मालूम पड़ते हैं। तब मुझसे आपआकर कहते हैं कि विचार नहीं जाते हैं।
     वे जाएंगे कैसे? उऩ्हीं विचारों को पोसा है आपने, खून पिलाया है अपना। उनको बांधे फिरते हैं,उनके गले पर पट्टे बांधे हुए  हैं अपने-अपने नाम के।आदमी से ज़रा कह दो कि यह जो तुम कह रहे हो,गलत
है। वह कहता है, मेरा विचार और गलत? मेरा विचार कभी गलत नहीं हो सकता अब जिस पर आप पट्टा बांधे हुए हैं अपना,वह बिचारा लौट कर आ जाता है। उसे क्या पता है कि आप ध्यान कर रहे हैं।अब आप कहते हैं हटो,भागो। ऐसे वह नहीं भागेगा। विचार को हम पोस रहे हैं। अतीत के विचार को पालते चले जा रहे हैं,बांधते चले जा रहे हैं। अचानक एक दिन आप कहते हैं, हटो। एक दिन में नहीं हट जाएगा। उसका पोषण बंद करना पड़ेगा, उसको पालना बंद करना पड़ेगा। ध्यान रहे, अगर विचार छोड़ने हों, तो 'मेरा विचार' कहना छोड़ देना। क्योंंकि जहां मेरा है, वहां कैसे छूटेगा। अगर विचार छोड़ने हैं तो विचार में रस लेना छोड़ दीजिए।       

शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

गेहूँ की जगह जौं बोये


          अज़ मकाफाते अमल गाफिल  मशौ।।
          गन्दुम अज़ गन्दुम बरोयद जौ ज़ जौ।।
     अर्थः-ऐ जीव!अपने किये हुये कर्मों के फलसे असावधान मत रह, क्योंकि यह बात तो सर्वविदित है कि गेहूँ बोने से गेहूँ और जौ बोने से जौं की फसल ही प्राप्त होगी। इस विषय में लुकमान की कथा अत्यन्त रोचक एवं शिक्षाप्रद है। लुकमान के समय में दासप्रथा का ज़ोर था और लुकमान को भी बाल्यकाल में गुलाम की तरह एक धनाढय ज़मींदार ने खरीदा था। उसके पासऔर भी बहुत से गुलाम थे।लुकमान का मालिक अत्यन्त निष्ठुर एवं निर्दयी था और बात बात पर गुलामों को कोड़े से पीटता औरअपशब्द कहता था। उसके ह्मदय में दया नाम की कोई वस्तु न थी। उसका धर्म तो केवल धन था, जिसके मद में चूर होकर वह हर समय पापाचार में रहता। लुकमान को भी अन्य गुलामों की तरह प्रायः मालिक के कोपभाजन बनना पड़ता, परन्तु मार खाकर अन्य गुलामों की तरह रोने-चिल्लाने की अपेक्षा वह सदैव इस बात पर विचार करता कि मालिक को कैसे इसअऩुचित मार्ग से हटाया जाये।अन्त में उसे एकयुक्ति सूझी।यद्यपि इस कार्य में उसे यहभय भी था कि यदि पासा सीधा न पड़ा तो मालिक उसकी चमड़ी उधेड़कर रख देगा,परन्तु उसनेअपने प्राणों की परवाह न कर इस युक्ति को आज़माने का पूरी तरह निश्चय कर लिया।
     लुकमान चूँकि बाल्यावस्था से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि था,अतएव उसके मालिक ने उसे कुछ नौकरों के ऊपर काम करवाने के लिये नियुक्त कर रखा थाऔर कुछ खेत भी उसके अधिकार में दे रखे थे।जब
गेहूँ बोने का समय आया,तो लुकमान के मालिक ने उसे बुलाया और गेहूँ का बीज देते हुए कहा कि इसे खेतों में बो दो। लुकमान अपने अधीनस्थ गुलामों को साथ लेकर खेतों पर गया और उन्हें जौ का बीज देते हुये बोला कि इन्हें खेतों में बो दो। अधीनस्थ गुलामों ने लुकमान से कहा-यह तुम क्या कर रहे हो?गेहूँ के स्थान पर जौ का बीज डलवा रहे हो? यदि मालिक को पता चल गया तो वह तुम्हारी खाल खिंचवा देगा। किन्तु लुकमान ने उनकी बातों की ओर ध्यान न देते हुये कहा कि जैसा मैं कहता हूँ, वैसा ही करो। अन्य गुलामों द्वारा अनेक बार रोकने पर भी जब लुकमान ने वही बात कही, तो उन्होने खेत में जौ बो दिये, परिणाम स्वरूप कुछ ही दिनों में खेतों में जौ के पौधे उग आये।
     धीरे-धीरे यह बात मालिक के कानों तक जा पहुँची कि लुकमान ने खेतों में गेहूँ के स्थान पर जौं का बीज डलवाया है। उसने खेत पर जाकर निरीक्षण किया, तो बात को सत्य पाया। यह देखकर उसके क्रोध की सीमा न रही। क्रोध के मारे उसकीआँखों से आग बरसने लगी।उसने लुकमान को बुलवाया। लुकमान अत्यन्त धैर्यपूर्वक आकर मालिक के सामने खड़ा हो गया।उसके मालिक ने क्रोधावेशमें उससे पूछा-लुकमान! हमने तुम्हें खेतों में गेहूँ बोने को कहा था, क्या तुमने हमारे आदेश का पालन किया? लुकमान ने शान्तिपूर्वक कहा-जी हाँ महाशय! कुछ ही दिनों में गेहूँ की फसल तैयार हो जायेगी। मालिक ने कहा-किन्तु हम तो यह देख रहे हैं कि खेतों में गेहूं के स्थान पर जौ के पौधे उगे हैं। और नौकर भी यही कहते हैं कि तुमने गेहूँ के स्थानपर जौ का बीज डलवाया है।लुकमान वैसे ही शान्त बना रहा और बोला-महाशय! मैने यद्यपि बीज जौं का डलवाया है, परन्तु फसल हम गेहूँ की ही काटेंगे। ये शब्द सुनते ही मालिक का क्रोध सीमा पार कर गया। उसने कोड़ा उठाते हुए कहा-मूर्ख!जब बीज जौं का डाला गया है तो फसल भी तो जौ की मिलेगी। जौं का बीज डालकर गेहूँ की फसल कैसे काटी जायेगी?
     बस,इसी प्रश्न की प्रतीक्षा में तो था लुकमान। उसने तुरन्त उत्तर दिया-मालिक! जब जौं का बीज बोकर गेहूँ प्राप्त नहीं किया जा सकता, जौ के बदले जौ की फसल ही मिलेगी, तो आप जो दिन-रात पापकर्म करने में रत हैं, उनके फलस्वरूप क्याआप को परलोक में दण्ड नहीं भुगतना पड़ेगा?आप क्या आशा रखते हैं कि ऐसे क्रूर और अन्यायपूर्ण कर्म करने पर धर्मराज के न्यायालय मेंआपके साथअच्छा व्यवहार किया जायेगा?क्या आपसे वहां पाई-पाई और रत्ती-रत्ती का हिसाब न लिया जायेगा? यदि ऐसे अनुचित कर्म करके भी आप परलोक में शुभ फल प्राप्त करने की आशा रखते हैं, तो आप मुझसे भी अधिक नासमझ हैं। लुकमान के ये शब्द तीर की तरह उसके मालिक केअन्तर्मानस में उतरते चले गये। कुछ देर तक तो वह चित्रलिखित-सा खड़ा रहा,फिर बोला-लुकमान! तुम ठीक कहते हो।आज तुमने मेरी आँखों पर पड़ीअज्ञान की पट्टी खोल दी। मैं आज कितनी भूल में था कि पापकर्म करते हुए भी शुभ परिणाम सोचता था, बबूल बोकर द्राक्ष की आशा रखता था।जाओ आज मैंने तुम्हें दासता से मुक्त कर दिया। कहते हैं कि उस दिन के पश्चात उसके स्वभाव में समूल परिवर्तन हो गया। वह प्रभु-भक्त, शुभ कर्मी और नम्रस्वभाव का बन गया और प्रत्येक व्यक्ति के साथ सद- व्यवहार करने लगा।
कथा का अभिप्राय यह कि अशुभ अथवा पापकर्मों का फल अशुभ तथा शुभ कर्मों का फल भी शुभ होता है। आम संसारी लोग पापकर्मों में तो हर समय प्रवृत्त रहते हैं और चाहते यह हैं कि उनके कर्मों का फल उन्हें शुभ मिले, तो यह कैसे सम्भव है?

बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

इस गाँव के लोग कैसे हैं


     एक छोटे से गांव में सुबह ही सुबह एक बैलगाड़ी आकर रूकी। और उस बैलगाड़ी के मालिक ने उस गांव के दरवाज़े पर बैठे हुए एक बूढ़े आदमी से पूछा, ऐ बूढ़े। इस गांव के लोग कैसे हैं?मैं इस गांव में स्थायी रूप से निवास करना चाहता हूँ। क्या तुम बता सकोगे, गांव के लोग कैसे हैं?उस बूढ़े ने उस गाड़ी वाले को नीचे से ऊपर तक देखा। उसकी आवाज़ को ख्याल किया, उसने आते ही कहा, ऐ बूढ़े। वृद्धजनों से यह बोलने का कैसा ढंग है?फिर उस बूढ़े ने उससे पूछा कि मेरे बेटे, इसके पहले कि मैं तुझेबताऊँ कि इस गांव के लोग कैसे हैं मैं यह जानलेना चाहूँगा कि उस गांव के लोग कैसे थे,जिसे तू छोड़कर आ रहा है। क्योंकि उस गांव के लोगों के सम्बन्ध में जब तक मुझे पता न चल जाए तब तक इस गांव के सम्बन्ध में कुछ भी कहना संभव नहीं है। उस आदमी ने कहा,उस गांव के लोगों की याद भी मत दिलाओ, मेरी आंखों में खून उतर आता है। उस गांव जैसे दुष्ट,उस गांव जैसे पापी, उस गांव जैसे बुरे लोग ज़मीन पर कहीं भी नहीं है। उन दुष्टों के कारण ही तो मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा है।और किसी दिन अगर मैं ताकत इकट्ठी कर सका तो उस गांव के लोगों को मज़ा चखाऊँगा। उस गांव के लोगों की बात ही मत छेड़ो। उस बूढ़े ने कहा,मेरे बेटे,तू अपनी बैलगाड़ी आगे बढ़ा। मैं सत्तर साल से इस गांव में रहता हूं, मैं तुझे विश्वास दिलाता हूं, इस गांव के लोग उस गांव के लोगों से भी बुरे हैं। मैं अनुभव से कहता हूँ। इस गांव से बूरे जैसे आदमी तो कहीं भी नहीं हैं अगर तू यहाँ रहेगा तो पायेगा कि उस गांव के लोग से यह गांव और भी बदतर है। तू कोई गांव खोज ले। जब उसने बैलगाड़ी बढ़ा ली तो उस बूढ़े ने कहा,और मैं जाते वक्त तुझसे यह भी कहे देता हूं कि इस पृथ्वी पर कोई भी गांव तुझे नहीं मिल सकता,जिस गांव में उस गांव से बुरे लोग न हों। लेकिन वह आदमी तो जा चुका था।
    वह गया भी नहीं था कि एक घुड़सवार आकर रूक गया और पूछा कि इस गांव के लोग कैसे हैं?मैं भी इस गांव में ठहर जाना चाहता हूँ। उस बूढ़े ने कहा,बड़ेआश्चर्य की बात हैअभी अभी एक आदमी यही पूछ कर गया है। लेकिन में तुमसे भी पूछना चाहूँगा कि उस गांव के लोग कैसे थे,जहां से तुम छोड़कर आये हो। उस घुड़सवार की आँखों में कोई जैसे रोशनी आ गई,उसके प्राणों में जैसे कोई गीत दौड़ गया। जैसे किसी सुगन्ध से उसकी श्वासें भर गयीं और उसने कहा,उस गांव के लोगों की याद भी मुझे खुशी की आँसुओं से भर देती है, इतने प्यारे लोग हैं। पता नहीं,किस दुर्भाग्य के कारण मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा।अगर कभी सुख के दिन वापिस लौटेंगे तो मैं वापिस लौट जाऊँगा उसी गांव में,वही गांव मेरी कब्रा बने, यही मेरी कामना रहेगी। उस गांव के लोग बड़े भले हैं। इस गांव के लोग कैसे हैं?उस बूढ़े ने उस जवान आदमी को घोड़े से हाथ पकड़कर नीचे उतार लिया,उसे गले लगा लिया और कहा,आओ, हम तुम्हारा स्वागत करते हैं।इस गांव के लोगों को मैं भलीभांति जानता हूँ सत्तर साल से जानता हूँ इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से बहुत भला पाओगे। ऐसे भले लोग कहीं भी नहीं हैं।
     आदमी जैसा होता है,पूरा गांव वैसा ही उसे दिखायी पड़ता है आदमी जैसा होता है,पूरा जीवन उसे वैसा ही प्रतीत होता है।आदमी जैसा होता है संसार उसे वैसा ही मालूम होने लगता है। जो लोग भीतर दुःख से भरे हैं और जिनकी जीवन दृष्टिअन्धेरी है वे लोग कहते हैं कि जीवन दुःख है जीवन अन्धकार है।उनका जीवन दुख रूप हो जाता है। आनन्द के भाव से जीवनऔर जीवन के स्वस्थअनुभव,जीवन का सौंदर्य और जीवन का सत्य और जीवन का शिवत्व उपलब्ध होता है इसलिए अगर जीवन को धार्मिक बनाना है तो दुःख के भाव को छोड़ देना होगा और आनन्द के भाव को जगह देनी होगी।दुःख का भाव क्या है और आनन्द का भाव क्या है?किस भाँति हमारे मन में दुःख के भाव को धीरे धीरे बिठाया जाये। और किस भांति हमारे मन में आनन्द का भाव तिरोभूत हो जाये। यह समझ लेना ज़रूरी है।एक दुःखी व्यक्ति देखता है, हज़ारों कांटों की गिनती कर लेता है और तब कहता है कितने कांटे इतने कांटे, कि एक फूल की कीमत नहीं कोई। एक फूल हो या न हो, बराबर है। लेकिन आनन्द के भाव से देखने वाले को दिखाई पड़ता है कितनी अद्भुत है यह दुनियाँ जहां इतने कांटे हैं वहां एक फूल भी पैदा होता है।और जब कांटों में फूल पैदा हो सकता है तो कांटे हमारे देखने के भ्रम होंगे क्योंकि जिन कांटों के बीच फूल पैदा हो जाता है। वे कांटे भी फूल सिद्ध हो सकते हैं।जो कांटों की गिनती करता है उसके लिए फूल भी कांटा दिखायी पड़ने लगता है और जो फूल के आनन्द को अनुभव करता है उसके लिए धीरे धीरे कांटे भी फूल बन जाते हैं। एक दुःखी और निराश और उदास चित्त से अगर हम पूछें कि कैसी दुनियां तुमने पायी,वह कहेगा,बहुत बुरी है यह दुनियाँ दो अन्धेरी रातें होती हैं तब कहीं मुश्किल से एक छोटा सा दिन होता है।एकआनन्द के भाव में डूबे आदमी से हम पूछें कि कैसी पायी तुमने दुनियां?वह कहेगा बड़ी अदभुत है दो उजाले से भरे दिन होते हैं,तब बीच में एक छोटी सी अन्धेरी रात होती है।रातें भी हैं दिन भी हैं।कांटे भी हैं फूल भी हैं। लेकिन हम क्या देखते हैं,हमारी दृष्टि क्या है इसपर पूरी की पूरी जीवन की दिशा और जीवन का आयाम निर्धारित होगा।औरआश्चर्य तो यह है कि हम जो देखना शुरू करते हैं,धीरे धीरे उसके विपरीत जो था उसी में परिवर्तित होता चला जाता है।वह भी उसीमें परिवर्तित होता चला जाता है। कांटे फूल बन सकते हैं। फूल कांटे बन सकते हैं।हमारी दृष्टि पर निर्भर है कि हम किस भाँति देखना शुरु करते हैं।

शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

नवाब के साथ नमाज़ पढ़ना


     जब श्रीगुरुनानकदेव जी ने नवाब दौलतखाँ के मोदीखाना में काम करना छोड़ दिया, तब नवाब के बुलाने पर पहली बार तो वे उसके पास न गए,परन्तु जब उसने दोबारा बुलवाया तो फिर वे चले गए। नवाब ने जब उनसे पहली दफा बुलवाने पर न आने का कारण पूछा तो श्री गुरु नानकदेव जी महाराज ने फरमाया-अब हमआपके नौकर नहीं, परमेश्वर के चाकर हैं।अब हम फकीर हो गए हैं। यह सुनकर नवाब ने कहा-यदि आप फकीर हो गए हैं, तो फिर चलिए, हमारे साथ चलकर मस्जिद में नमाज़ पढ़िये। आज जुमा(शुक्रवार) है और हम सब नमाज़ पढ़ने जा रहे हैं।श्री गुरुनानकदेव जी उसकी बात सुनकर मुस्करा दिये और फरमाया-चलिये!हम तैयार हैं।
     मस्जिद में पहुँचकर नवाब दौलत खाँ तथा अन्य लोगों ने नमाज़ अदा की, परन्तु श्रीगुरुनानकदेव जी चुपचाप खड़े रहे। नमाज़ पढ़ चुकने पर नवाब ने श्रीगुरुनानकदेव जी से कहा-आप तो हमारे साथ नमाज़ पढ़ने आए थे,फिर आप खड़े क्यों रहे? आपने हमारे साथ नमाज़ क्यों न अदा की। यदि आपने ऐसा ही करना था,तो फिर यहाँ आए ही क्यों?श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-जब आप यहाँ मौजूद ही नहीं थे,तो फिर हम किसके साथ नमाज़ अदा करते?नवाब दौलत खाँ ने क्रोध में भरकर कहा-आप फकीर होकर झूठ क्यों बोलते हैं?मैं तो नमाज़ में शरीक था। श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमाया-नवाब सहिब!आपका शरीर तो यहाँ अवश्य थाऔर आपकी शरीर-इन्द्रियाँ भी नमाज़ अदा करने में व्यस्त थे, परन्तु आपका मन तो नमाज़ पढ़ते समय घोड़े खरीदने के लिए कंधार गया हुआ था, फिर हम किसके साथ नमाज़ पढ़ते? और निम्नलिखित बाणी का उच्चारण कियाः
          मत्था ठोके ज़मीन पर, मन उड्डे असमान।
          घोड़े कंधार खरीद करे, दौलत खाँ पठान।।
यह सुनकर नवाब बड़ा लज्जित हुआ। तब काज़ी ने कहा-नवाब साहिब के विषय में झूठ क्यों बोलते हो? श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमाया-हम सच बोल रहे हैं या झूठ,इस बारे में नवाब साहिब से ही क्यों नहीं पूछ लेते? तब नवाब ने कहा-काज़ी जी!नानक सच कहते हैं, वास्तविकता यही है कि जब मैं सजदे में खड़ा था, तब मेरा मन कंधार में भटक रहा था और वहाँ घोड़े खरीद रहा था। काज़ी ने कहा-नवाब साहिब! मान लिया कि आप मन से उस समय कंधार गए हुये थे, परन्तु हम तो कहीं नहीं गए थे, हमारे साथ नानक नमाज़ पढ़ लेते?काज़ी की बात सुनकर श्री गुरुनानकदेव जी ने हँसते हुए फरमाया-आप भी शारीरिक रूप से अवश्य यहाँ उपस्थित थे,परन्तु आपका मन तो आपके घर पर घूम रहा था,वह यहाँ पर कहाँ था? क्योंकि आपको तो उस समय यह चिन्ता सता रही थी कि बछेड़ा(घोड़े का बच्चा) जो आज ही पैदा हुआ है, वह कहीं आँगन में खुदे हुए गड्ढे में न गिर जाए। बात सच्ची थी,इसलिए काज़ी निरुत्तर हो गया।वह भला इस बात का क्या उत्तर देता?अब ऐसी नमाज़ अदा करने से कोई पूरा-पूरा लाभ उठा सकता है?कदापि नहीं। जब मन ही कहीं और भटक रहा है तो फिर पूरा लाभ कैसे मिल सकता है?पूरा पूरा लाभ तभी मिल सकता है जबकि मन भी एकाग्र होकर इन साधनों में जुट जाए ऐसा होने पर ही मनुष्य द्वारा की हुई पूजा,उपासना,सेवाआदि सच्ची मानी जायेगीऔर तभी उसे पूरा-पूरा लाभ भी मिलेगा।