शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

निराला चोर


    विधि बस सुजन कुसंत परहीं। फनि मनि सम निच गुन अनुसरहिं।।
    सज्जन दैवयोग से कहीं दुर्जनों की संगति में पड़ जावें तो वे वहां भी अपना प्रभाव उन पर इस प्रकार डालते हैं जैसे मणि साँप के सिर में रहने पर भी उसके विष को ग्रहण नहीं करती-परन्तु उसे अपने प्रकाश करने का गुण बराबर देती रहती है।
          जो रहीम उत्तम प्रकृति, करि सकत कुसंग।।
          चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
चन्दन का वृक्ष साँपों से लिपटे रहने पर भी विषैला नहीं होता इसी तरह सज्जनों पर कुसंगति का प्रभाव नहीं पड़ता।एक महात्मा जी कावेरी नदी के तीर पर रहा करते थे। उनका नियम था-दिन को जंगल में विहार करके कन्दमूल खाकर उदर-ज्वाला को शान्त करना और सन्ध्या होते ही समाधि में लीन हो जाना। एक बार चार चोर चोरी करने जा रहे थे-उनकी दृष्टि महात्मा जी पर पड़ी।वे सोचने लगे कि यहाँ कोई न झोंपड़ा है,न मकान,न आबादी का निशान।फिर इसअकेले आदमी का यहाँ क्या काम?हो न हो यहभी हमारा साथी होगा।यह सोचकर उन्होंने महात्मा जी से पूछा-""तुम कौन हो?''महात्मा जी ने निडर होकर वही शब्द दोहराये-""तुम कौन हो?'' उन्होने कहा-हम तो चोर हैं।और तुम? महात्मा जी ने मन में सोचा कि पक्का चोर तो मैं हूँ जो जगत से छुप कर भगवान के घर पर डाका डाला चाहता हूँ। झूठ बोलने से क्या लाभ!कहा-भाई! मैं भी एक चोर हूँ। यह सुनकर ने चारों कहने लगे-वाह-भाई-वाह! अच्छी सायत में निकले! खूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो। चार से पाँच हुए आज खूब हाथ रंगेंगे। चलो तुम भी हमारे साथ। महात्मा जी उठे और उनके साथ हो लिये।
     चोरी चोरी में भेद था। जिसे वे चोर न जानते थे। चोरों के मन में तो यह था किआज हमारी शक्ति बढ़ गई है। अब तो किसी बड़े मालदार के घर का सफाया करेंगे। किन्तु महात्मा जी तो मन में और ही मनसूबे बाँध रहे थे कि आज भगवान का साक्षात् दर्शन होगा। चोरों ने एक सेठ का मकान देखकर पिछवाड़े से सेंध लगाई। नये साथी से कहा कि तुम अन्दर घुसो हलका परन्तु बहुमूल्य समान लाकर देते जाओ। फिर हम एक जगह बैठ कर बँटवारा कर लेंगे। इस बात में भी एक भेद था कि यदि कहीं पकड़-धकड़ हो तो यही पकड़ा जाय हम तो धनमाल लेकर चम्पत हो जाएंगे। संयोगवश वह भवन किसी धर्मात्मा सेठ जी का था और प्रभु-भक्त भी था। तभी तो एक कक्ष में श्री भगवान का सुन्दर चित्र विराजमान था।आरती पूजा की सकल सामग्री भी वहाँ एकत्र थी। अन्दर जाते ही महात्मा जी का हाथ एक मन्जीरे पर पड़ा। देखा कि इसका भार भी नहीं और पूजा करने में इसकी अत्यन्त आवश्यकता पड़ती है। इससे श्रेष्ठतर सामग्रीऔर क्या हो सकती है।उसे ही लेकर बाहर सरका दिया। चोरों के मन में तो सोना-चाँदी-नकदीआदि मिलने की आशा थी। मंजीरे को देख कर झुंझलाये और बोले-कोई भारी भारी सामान पकड़ा। अब महात्मा जी लगे खोजने किसी भारी पदार्थ को। चक्की पर हाथ पड़ते ही बड़े प्रसन्न हुए-ऊपर का पाट उठाकर उसे बाहर किया और बोले यह लो भारी सामान!उसे देखकर अब तो वे चारों और भी लाल-पीले हुए। उन्होने कहा किअरे बुद्धू!कोई गठड़ी बाँधकर दे।वहाँ मैले-कुचैले कपड़ों की गठड़ी बँधी पड़ी थी। महात्मा जी ने उसे उठायाऔर  बोले-लो भाई! बँधी बँधाई गठड़ी,अब तो ठीक है न!इधर तो वे चारों आग बगोले हो रहे थे, क्योंकि रात बीते जा रही थी। इतना श्रम करने पर भी अब तक कुछ हाथ नहीं लगा था। वे बोले,नादान! कोई कीमती से कीमती माल ला, अब की बार भूल की तो तेरा कुशल नहीं!समझे!महात्मा जी ने कहा अच्छा,फिर ठहरो,मैं देखभाल करके अब तोअच्छे सेअच्छा अमूल्य सामान ला दूंगा।महात्मा जी भी अब ध्यान से लगे कीमती सामान ढूँढने। दियासलाई पर हाथ पड़ा,उसे जलाया और प्रकाश में देखा कि एक अत्यन्त मनोरम,सुभूषित सिंहासन पर श्री भगवान का रुचिर स्वरूप विराजमान है। उसके आगे आरती का थाल तैयार है। मन ही मन में झूम उठे कि इससे बढ़कर अधिक मूल्यवान वस्तु क्या हो सकती है? इऩ्हें ही लेकर दे देना चाहिये। उठाने को ज्यों ही हाथ बढ़ाया परन्तु रुक
गये। उन्हें कोई भय तो था ही नहीं, सोचा कि पहले प्रभात की आरती-पूजा ही क्यों न कर लूँ। ऐसा विचार कर आरती जगाई, ढोलक गले में डाली और गाने बजाने में ऐसे मग्न हुए कि समाँ ही बँध गया।
     ढोलक की आवाज़ सुनते ही चोरों के हवास फाख्ता हो गये। महात्मा जी को कटु वचन कहते और हज़ारों गालियाँ देते हुए सिर पर पाँव रख कर जिधर जिस के सींग समाये भाग निकले। उधर आरती की आवाज़ सुनकर दूसरे कमरों में सोये हुए लोग जाग उठे। लड़कों ने सोचा कदाचित वृद्धा माता जी ने आज बहुत सवेरे आरती शुरु कर दी है। भाग कर पहुंचे। उधर बूढ़ी मां सोच रही थीं कि हो सकता है बहू ने आजआरती जल्दी शुरू कर दी है। कहीं मैं रह न जाऊँ। बहु अपने मन में और ही कुछ सोचकर,तुरन्त उठी और उसने सेठ जी को भी जगाया, दोनों ही पूजा गृह की तरफ लपके। कुछ ही क्षणों में सब आदमी वहाँ इकट्ठे हो गये। सबने मिलकरआरती गाई। पूजा समाप्त होने पर सबकी दृष्टि एक बार में महात्मा जी पर पड़ी। और उन्होने चकित होकर पूछा-महाराज इतनी रात रहते आप यहाँ कैसे पधारे? महात्मा जी ने निःशंक होकर कहा, चोरी करने आया था बच्चा!चार मनुष्य और भी मेरे साथ हैं जो पिछवाड़े खड़े हैं। यह सुनते ही सब भयभीत हो गये। ""चोर-चोर'' का शोर मच गया। सहसा लोगों का समुदाय वहाँ जुड़ गया। पुलिस भी वहाँ आ पहुँची। महात्मा जी तो आँखें मूँदकर समाहित हो गये। दारोगा ने आकर महात्मा जी से पूछा आप कौन हैं? वह अचकचा कर बोले ""चोर ही तो हूँ-और क्या हूँ?''दारोगा ने कहा, फिर आपने क्या चुराया?
महात्मा जी ने कहा मैं भगवान को चुराने आया था। पर ये लोग जाग उठे!क्या करूँ।जब यह सारा काण्ड जन समाज में खुल गया तो सब के सब हँस हँस कर लोट पोट हो गये। सबने हाथ जोड़कर महात्मा जी की बड़ी प्रशंसा की और कहा आप तो निराले चोर हैं।सेठ जी ने बहुत बहुत अपने भाग्यों को सराहाऔर महात्मा जी को धन्यवाद दिया कि आपकी ही कृपा से मेरा बचाव हो गया नहीं तो जाने मेरी क्या दुर्दशा होती। उन महात्मा जी को सेठ ने अपने घर पर ठहराया। वहाँ सतसंग की गंगा बह निकली। जिससे कितने ही लोगों का कल्याण हो गया।जब महाराज वहाँ से विदा होने लगे तो श्रद्धालु लोगों ने जुलूस निकाल कर उनका बड़ा सम्मान किया।
     महात्मा जी फिर अपनी ही कुटिया पर पूर्ववत रहने लगे।अकस्मात एकदिन फिर वही चाण्डाल चौकड़ी वहाआ निकली।महात्मा जी को वहाँ बैठा देखकर चारों चकित होकर लगे आपस में गुप्त चर्चा करने। यह शायद पकड़े गये होंगे और कारावास भोगकर अब लौटे हैं।इनसे विस्तृत वर्णन पूछना चाहिये। महात्मा जी को समाधि से जगाया और उस दिन का शेष वृत्तान्त सुनने की इच्छा प्रकट की। महात्मा जी ने बिना ननुनच किये सारी गाथा कह सुनाई वे लोग अपनी करनी पर बड़े लज्जित हुए। महात्मी जी के सच्चरित्र ने उन्हें विमुग्ध कर लिया। सबने उन से क्षमा याचना की और भविष्य में सदाचारी बन कर रहने का व्रत लिया। इतना ही नहीं वे उन महात्मा जी के शिष्य हो गये।

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