दशमेश श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के दरबार में एक भाई बेला आया-जाया करता था। दरबार के अनेक भक्त पढ़े-लिखे थे परन्तु यह निरक्षर था। किन्तु गुरु महाराज जी के वचनों पर इसे अटल विश्वास था। एक दिन अवसर देखकर इसने श्री गुरु महाराज जी के चरणों में प्रार्थना की कि और सिक्ख-सेवकों को गुरुवाणी पढ़ते देखकर मेरा भी मन करता है कि मैं भी पढ़ूँ। परन्तु मुझे अक्षर पढ़ना भी नहीं आता। श्री गुरु महाराज जी ने फरमाया कि तू रोज़ साडे कोल आया कर असीं तैनूँ अखर सिखावांगे। अब बेला प्रतिदिन गुरुमहाराज जी के पास आने लगा। गुरुमहाराज जी हर रोज़ पाँच-सात अक्षर उसे पढ़ाते थे। दूसरे दिन उन्हें सुन कर और बता देते। एक दिन दरबार की सेवा करते करते भाई बेला को कुछ देर हो गई। श्री गुरुमहाराज जी बाहर जाने के लिये घोड़े पर सवार हो चुके थे। तब यह आ पहुँचा और उसने घोड़े की लगाम को पकड़ कर कहा कि मुझे अक्षर तो बताकर जाओ ताकि मैं याद करता रहूँ।
श्री गुरुमहाराज जी ने हँसकर फरमायाः- "वाह भाई बेला! तेरा वक्त न वेला।' भाई बेले ने इतना सुनते ही लगाम छोड़ दी। श्री गुरुमहाराज जी चले गये। वह दिन बीत गया दूसरे दिन श्री गुरुमहाराज जी ने नियम के अनुसार पूछा बेला! कल तुम्हे कौन सी सन्था दी थी? भाई बेला ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि सच्चे पादशाह! कल आपने यह पाठ पढ़ाया था वाह भाई बेला! तेरा वक्त न वेला। श्री गुरु महाराज यह सुनकर बहुत हँसे। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा कि भाई बेला! तुम्हारा स्वभाव और हमारे वचन पर तुम्हारा विश्वास देखकर हम बहुत पुलकित हुए हैं। हम तुम्हें वर देते हैं कि तुम को सब विद्याएं अपने आप आ जाएंगी। वह अशिक्षित बेला पंडितों में सर्वश्रेष्ठ हो गया।
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